नाटक के केन्द्र में एक बंगाली परिवार (शंकर और शीला) है, जो बिहार के एक बाढग़्रस्त इलाके में रहता है। यहां हर वर्ष नदी में बाढ़ आती है और यह बाढ़ तब तक नहीं उतरती जब तक की कोई इंसान इस नदी में कूदकर आत्महत्या ना कर ले। यह अन्धविश्वास अब बलि प्रथा बन गया है। एक दिन उनका दोस्त राजेश इलाज कराने आता है। मानव मन की अतल गहराइयों में बहुत कुछ जज्ब रहता है! हमारे संशय रह-रह कर हमारी प्रयोजन व उत्पत्ति पर प्रश्न खड़ा करते है. हम यहाँ क्यूँ हैं? जिसका हल तलाशते एक जीवन भी कम पड़ जाता है. मनुष्य योनि में जन्म लेने पर; माया के चक्र से खुद को बचाना नमुमकिन सा है. जो इस चक्र में रमता है...वो हर भौतिक वस्तु की लालसा में एक (मृगतृष्णा) को पकड़ने का दुस्साहस करते हुए अपने को चिल्ला-चिल्ला कर इस रेस का विजेता घोषित करता है! जबकि उसके हाथ लगा कुछ भी नहीं है...लेकिन जीने के लिए भ्रम का आवरण जरूरी अवयव है...
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