पात्र परिचय
राजेश: शर्मा
शंकर: दत्त
डॉ. कृष्णस्वरूप कक्कड़
पद्मा:
शीला:
घटना-काल सन 1949 की बरसात
प्रथम दृश्य
एक कमरा जो स्पष्टत किसी लड़की का मालूम पड़ता है क्योंकि स्वच्छ है किन्तु सुरुचिविहीन है। सामान बड़ी तरतीब से लगा है पर उस तरतीब से नहीं जिससे कलाभवन में चित्र लगे रहते हैं, बल्कि वैसे जैसे किसी दुकान के शो-रूम में बिकाऊ चीजें लगी रहती हैं। सामने बहुत बड़ी-सी एक खिड़की है जिस पर एक बड़ा-सा सादा पर्दा पड़ा है। कमरे भर में केवल एक तस्वीर है, मेज पर। एक 20 साल की हँसमुख लड़की की तस्वीर। तस्वीर के बगल में टेस, कामायनी और टेनीसन के मोटे वॉल्यूम रक्खे हैं, बगल में टैलकम पाउडर का एक ऊँचा-सा डब्बा।
स्टेज पर बाईं ओर एक दरवाजा है। कमरे के बीचोबीच चटाई पर बैठा हुआ, चौकी पर आइना रखकर शंकर: शेव की तैयारी कर रहा है। ब्रश में पानी लगा कर साबुन के प्याले में घुमा रहा है। बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है।
शंकर: उँह! किसी पल चैन नहीं। अब पता नहीं कौन आ गया मरने! [दरवाजा फिर खटकता है। कोई बाहर से नेम-प्लेट पढ़ता हुआ- 'शंकर: दत्त!... मकान तो यही मालूम पड़ता है। अरे शंकर: !' शंकर: जल्दी से ब्रश पानी के गिलास में डाल देता है। आधा उछल कर] अरे! राजेश: आया! [बाईं ओर देख कर, पत्नी को पुकारता हुआ] शीला: ! लो राजेश: तो आ गया। [उठ कर दरवाजा खोलता है। राजेश: हाथ में अटैची लटकाए हुआ आता है। शंकर: उठ कर अटैची हाथ में लेता है] ओह डियर! तीन दिन से तुम्हारा इन्तजार हो रहा है। [बाईं ओर से शीला: आती है।]
शीला: [नमस्ते करती हुई] रोज एक आदमी का खाना ज्यादा बनाती थी मैं।
शंकर: तो इस समय किस ट्रेन से आए हो!
राजेश: ट्रेन! वह तो लाइन ही टूट गई है। मैं तो स्टीमर से आया हूँ। डूबते-डूबते बच कर!
शीला: इस बाढ़ में आप नदी पार करके आए हैं! सचमुच आप वैसे ही हैं, जैसा ये बताते थे।
राजेश: क्यों शंकर: , क्या बताते थे भाभी से!
शंकर: तुम्हारी भाभी तो तुम्हें देखने को वैसे ही आकुल थीं जैसे बच्चे ऊदबिलाव देखने के लिए आकुल रहते हैं। और नदी से आपको भी उतना ही प्रेम है। भला बताइए, नदी के रास्ते से आए हैं! [शीला: से] सुनो! चाय बढ़ा दो जल्दी से! [शीला: जाती है] तो आप नदी के रास्ते से आए हैं?
राजेश: करता क्या? दो साल से आने को सोच रहा था। जब से युनिवर्सिटी छूटी तुमसे भेंट ही नहीं हुई।
शंकर: मैं तो कनवोकेशन में इसीलिए गया, पर तुम वहाँ भी गायब।
राजेश: [गहरी साँस ले कर] क्या करूँ। पता नहीं क्या हो गया मुझे? इसी दो साल के अरसे में जिन्दगी मुझे कहाँ से कहाँ ले गई। और इस समय भी इतना परेशान होकर भागा हूँ। मन पर जैसे हजारों हथौड़े एक साथ चलते हों। अक्सर तो यहाँ तक सोचा कि मर जाऊँ, फुरसत मिले। पर आग के बिस्तरे पर न इस करवट चैन, न उस करवट।
शंकर: क्यों! आखिर यह तुम्हें हो क्या गया है? न ठहाके, न लतीफे। जाने कहाँ की निराशा लाद ली है। बैठो तो। टहल क्यों रहे हो।
राजेश: नहीं, बैठेंगे नहीं। टहलने दो। तुम समझते नहीं शंकर: । मुझसे क्षण भर भी बैठा नहीं जाता। लगता है जैसे नस-नस में लाखों तूफान घुट रहे हों और उनके बहने का कोई रास्ता नहीं मिलता। जैसे व्यक्तित्व का रेशा-रेशा बिखर रहा हो।
शंकर: लेकिन क्यों?
राजेश: पता नहीं क्यों। पता नहीं क्यों जी रहा हूँ। कोई अर्थ नहीं मेरे जीने का।
शंकर: [गहरी साँस ले कर] तुम भी ऐसे हो जाओगे राजेश: यह मैं कभी नहीं सोच पाता था। भावुक मैं था। जिन्दगी ने मुझे ठीक कर दिया, और तुम जो अपने मन को कितना बाँध कर रखते थे...
राजेश: हाँ दोस्त! लेकिन मन की नदी का बाँध फूट ही गया। और फिर तो इतनी भयानक बाढ़ आई कि जाने कितनी मान्यताएँ टूट गईं, कितने संस्कार उखड़ गए, और धार इतनी तेज थी मित्र, कि पाँव तले की धरती तक बह गई। न पाँव तले रेत, न सर पर आकाश... जाने किस दुनिया में यह खूँखार नदी खींच लाई है और न जाने क्या करने पर तुली है...
सहसा गीत जो कुछ देर से पृष्ठभूमि में दूर से सुन पड़ता था, स्पष्ट हो जाता है, शंकर: , राजेश: के स्वर उसमें डूब जाते हैं...
हाय बाढ़ी नदिया, जिया लैके माने
दाया न जाने, माया न जाने, जिया लैके माने,
जिया लैके माने, हाय बाढ़ी नदिया।
बाहर से स्वरबहू जी! नदी भवानी के भीख मिलै।
शीला: [अन्दर से] अच्छा। [मुट्टी में कुछ ले कर आती है।]
राजेश: ये क्या है भाभी?
शंकर: चना है। हर घर से ये लोग चने की भीख माँगते हैं।
राजेश: क्यों?
शीला: बकरे को खिलाएँगे। नदी बढ़ी है न। ये सब बकरे को नदी के किनारे ले जा कर बलि चढ़ाएँगे और ताजा खून जल पर छिड़केंगे। तभी नदी घटेगी।
राजेश: यह सच है शंकर: ।
शंकर: हाँ पहले हम लोगों को भी यकीन नहीं था। अब तो कई साल तक अपनी आँख से देख चुके हैं।
शीला: लेकिन कभी-कभी इससे भी जल नहीं घटता। देवी के मन्दिर तक जल चढ़ जाता है, मन्दिर डूबने लगता है, तब कस्बे का कोई आदमी डूब कर आत्महत्या कर लेता है और जल उतर जाता है।
गीता का स्वर दूर जाते हुए-
हे देवी मैया तोहार हम बालक राखहु हमरा धेयान।
तोका चढ़उबै नरियर बतासा, चढ़उबै पाठा जवान! ...
राजेश: सच!
शीला: और क्या। त्योरस्साल एक पागल डूब गया था। पारसाल एक औरत ने खुदकुशी कर ली। उसकी तो लाश ही ले कर नदी पीछे सिमट गई। [क्षण भर सन्नाटा] चाय यहीं पिएँगे?
शंकर: नहीं अन्दर मेज पर लगा दो। [शीला: जाती है] [सन्नाटा]। कभी-कभी गीत हवा में बह आता है। राजेश: ! क्या सोच रहे हो।
राजेश: कुछ नहीं। बलि का बकरा! सोच रहा हूँ जिन्दगी कितनी खूँखार है हर जगह एक-सी है शंकर: ! कहीं चैन नहीं लेने देती। वहाँ से भाग कर यहाँ आया था कि कुछ चैन मिलेगी। ये लोग हैं। कितनी खुशी से मासूम जानवर की जिबह करने ले जा रहे हैं। हर जगह यही होता है। गाते-बजाते हुए जिन्दगी अपने शिकार को ले जाती है, उसका खून लहरों पर छिड़कने के लिएँ। एक शिकार मैं हूँ। लेकिन मैंने सोचा था मरूँगा नहीं, यहाँ आ कर मन को ताजा करूँगा। [दाँत पीस कर] लेकिन नहीं, जिन्दगी का शिकंजा तो हर जगह खून का प्यासा है। [गीत फिर सुन पड़ता है] देखो। जिन्दगी बार-बार बुलाती है। यह खूनी पुकार यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती। मैं मरना नहीं चाहता, शंकर: … [अस्फुट चीख से] मगर इस आवाज से पीछा छुड़ाओ।
शंकर: पागल हो गए हो राजेश: ! लो मैं खिड़की बन्द किए देता हूँ। अब आवाज नहीं आएगी। आखिर कुछ बताओगे तुम्हें हुआ क्या है?
राजेश: बताएँगे मित्र! कुछ दिन चुपचाप आराम करने दो।
शंकर: खूब आराम करो! किताबें पढ़ो! पूरी आलमारी भरी है!
राजेश: हाँ, किताबें तो हैं [मेज पर से किताबें उठाता हुआ] टेनीसन, टैस आ' ड रबरविले, कामायनी। अच्छा टैलकम पाउडर भी इसी के साथ! [चित्र उठाता है, देख कर उल्टा रख देता है।] ये तुम्हारी किताबें हैं?
शंकर: नहीं, पद्मा: की। मेरी छोटी साली है। उसी की यह फोटो भी है। आजकल शीला: के पास आई हुई है। शीला: ! पद्मा: कहाँ गई है?
शीला: [अन्दर से] वहीं गई है, डाक्टर साहब के यहाँ।
शंकर: मेरे दोस्त हैं डा. कृष्णस्वरूप कक्कड़। उनके यहाँ पद्मा: भी चली जाती है। करे क्या दिन भर पड़ी-पड़ी? अब तुम आ गए हो। तुम्हीं से मगज-पच्ची किया करेगी।
शीला: चलिए चाय तैयार है। लेकिन पद्मा: अभी तक नहीं आई, पता नहीं कब तक आएगी।
शंकर: अब आ ही रही होगी। मैं तो कहता हूँ कर दो दोनों की शादी, कुछ हम लोगों को भी पद्मा: की बाढ़ से रिलीफ मिले।
शीला: चलो! तुम तो मजाक करते हो। मुझे तो दोनों की जोड़ी बड़ी अच्छी लगती है। मैंने तो कल चाचा जी को लिख भी दिया है। चलिए अन्दर चाय ठंढी हो रही है।
[सब अन्दर जाते हैं। क्षण भर स्टेज खाली रहता है। फिर बाईं ओर से डा. कृष्णा: और पद्मा: आते हैं। डा. कृष्णा: पैंट और कमीज पहने हैं। पद्मा: लापरवाही से उल्टा पल्ला डाले है। देह पर तरुणाई, आँखों में बचपन, बातों में मिसरी, चाल में अल्हड़पन।
पास से कुर्सी खींच कर पलंग के पास डाल लेती है और बन्द खिड़की खोल देती है। फिर डाक्टर का कन्धा पकड़कर कुर्सी पर बिठाल देती है।]
पद्मा: लो बैठो। आज दीदी और जीजा गए हैं स्टेशन, अपने एक दोस्त को रिसीव करने! सुना है कि बड़े लेखक हैं।
कृष्णा: लेकिन मुझे देर हो रही है। आज बाढ़ रिलीफ कमेटी की मीटिंग है। मैं उसका सेक्रेटरी हूँ न!
पद्मा: तो क्या करते हो तुम लोग?
कृष्णा: बाढ़-पीड़ितों की सहायता! जो लोग बेघरबार हो गए हैं उनकी मदद! जो बाढ़ में फँस गए हैं उन्हें निकालना।
पद्मा: अहा! अहा! तुम तो खूब निकालते होगे। जरा-से पानी में तो उतरा नहीं जाता, तुम किसी को बाढ़ में से क्या निकालोगे!
कृष्णा: मैं तैरना जानता हूँ पद्मा: ! तुम्हें यकीन नहीं। आजकल भी भरी नदी में कूद जाऊँ तो डूब नहीं सकता।
पद्मा: और अगर कोई ऐसी धार में उलझा हो कि डूब कर ही उसे बचा सकते हो तो? क्या करोगे?
कृष्णा: डूब ही जाऊँगा तो बचाऊँगा कैसे? तुम तो बच्चों की-सी बातें करती हो।
पद्मा: यही तो तुम नहीं समझते डाक्टर साहब! कैसे बताएँ तुम्हें कि बिना डूबे तुम बचा ही नहीं सकते?
कृष्णा: किसे?
पद्मा: किसी को भी! मसलन मुझे...
कृष्णा: [हँस पड़ता है। पद्मा: के आँचल का छोर अपनी अँगुली में लपेटते हुए] तुमने इतनी बात करना कहाँ से सीखा है? डाक्टरी पढ़ने में बड़ा नुकसान रहता है। मुझे भी लिटरेचर पढ़ा दो तो कम से कम तुम से बात तो कर सकूँ। तुम कितनी कुशल हो बात करने में।
पद्मा: [लजा जाती है] धत्!... अरे यह मेरी फोटो किसने उल्टी रख दी है। [उठ कर ठीक करती है] और यह अटैची किसकी पड़ी है? [नाम पढ़ती है] राजेश: वर्मा! अच्छा आ गए ये लोग!
कृष्णा: कौन लोग? क्या शंकर: आ गए? अच्छा तो उनसे भी चन्दा ले लूँ रिलीफ का, और चलूँ फिर!
पद्मा: अरे बैठो भी! हमारे पास एक मिनट भी बैठे भारी लगता है। हमसे चन्दा नहीं माँगा तुमने?
कृष्णा: तुससे मदद मागूँगा, चन्दा नहीं। मेरे साथ चलो। तमाम औरतें बे-घरबार मदद के लिए पड़ी हैं।
पद्मा: न बाबा! मुझे उनकी हालत देख कर बड़ी रुलाई आती है। अभी उस दिन बाढ़ देखने गई, रोते-रोते आँख सूज गई। हमारी आँखें बड़ी कमजोर हो गई हैं कृष्णा: ! एक चश्मा दिला दो ना!
कृष्णा: [अनमना-सा] अच्छा।
पद्मा: और हाँ, तुम्हें एक बात बताऊँ [कृष्णा: घड़ी देखता है] अरे बैठो भी- [कान के पास मुँह लगाकर धीमे से] कल जीजी ने चाचा के पास तुम्हारे बारे में चिट्ठी लिखी है। और तो सब ठीक है लेकिन हम लोग सारस्वत हैं और तुम लोग कक्कड़...
कृष्णा: [क्षण भर पद्मा: की ओर देखता है... फिर हाथ होठों से लगा कर] हम लोग कितने सुखी होंगे पद्मा: ! यह ठीक है कि मैं तुम्हारी तरह भावुक नहीं, इन्टेलेक्चुअल नहीं, लेकिन हम लोग एक दूसरे की कमी पूरी करेंगे।
पद्मा: [बहुत मुलायम स्वरों में] हाँ कृष्णा: , मैं कविताओं में डूबी रहती हूँ, मगर कवियों से, लेखकों से मुझे डर लगता है। एक-तिहाई तो इनमें से भिखारी होते हैं, एक-तिहाई पागल और एक-तिहाई...
कृष्णा: सखी सम्प्रदाय के! [दोनों हँसते हैं] नहीं, एक बात तो है... कभी-कभी कविताओं के मीनिंग मुझे अच्छे लगते हैं। साल भर पहले मैंने भी सोचा था कि कविता बनाऊँ, फिर सोचा उससे मेरे पेशे में नुकसान पहुँचेगा और उसके बाद मिल गईं तुम - बजातखुद कविता! [पद्मा: का आँचल अँगुलियों पर लपेटने लगता है।]
पद्मा: [जल्दी से आँचल खींच कर] छोड़ो जीजा जी आ रहे हैं।
[शंकर: और राजेश: बाहर से दोनों बहस करते हुए आते हैं।]
राजेश: और इसलिए कभी-कभी लगता है कि आदमी को पत्थर होना चाहिए, फौलाद की राक्षसी मशीन होनी चाहिए जो अपने बाहु-चक्रों में सभी को कुचल दे। उसके बिना आदमी जिन्दा नहीं रह सकता। कभी-कभी मन में एक भयंकर खूनी प्यास जागती है जिन्दगी से बदला लेने की; मगर दोस्त! प्यार ने यह भी साहस तोड़ दिया है। जहाँ खयाल आता है कि इस चक्र में वह भी पिस जायगी जिसे मैंने ईश्वर से बढ़ कर माना है, जो आज मुझसे दूर हो गई है तो क्या हुआ, तभी ऐसा लगने लगता है कि मुझ में हिलने तक की ताकत नहीं। मेरा सब कुछ छिन गया [पद्मा: और कृष्णा: एक दूसरे की ओर देखते हैं...] अब मेरे लिए जिन्दगी का क्या अर्थ है। मैं किसके लिए जिन्दा रहूँ, क्यों जिन्दा रहूँ? फिर सोचता हूँ क्यों मरूँ? जिन्दगी ने फूल बन कर न रहने दिया तो काँटा बन कर रहूँ... लेकिन रहूँ जरूर! [पद्मा: और कृष्णा: को देख कर चुप हो जाता है।]
शंकर: आओ तुम्हारा परिचय करा दें - ये हैं राजेश: ! तुम दोनों इनके बारे में सुन चुके हो। ये हैं पद्मा: , ये हैं डॉ. कृष्णस्वरूप कक्कड़ - [झुक कर धीमे से] पद्मा: के भावी पति, और कल से यही तुम्हारा इलाज करेंगे। कृष्णा: इन्हें कुछ-कुछ हार्ट ट्रबुल है। और अब महीने भर रह कर इन्हें स्वास्थ्य सुधारना है यहाँ!
कृष्णा: बड़ी खुशी हुई आपसे मिल कर।
राजेश: मैं ऐसा आदमी नहीं जिससे मिल कर किसी को खुशी हो डाक्टर!
शंकर: नहीं! वह व्यापार की दृष्टि से कह रहे थे। उन्हें एक मरीज मिला, क्यों!
[सब हँस पड़ते हैं, शीला: हाथ में स्वेटर और सलाई लिए आती है।]
शीला: अरे भई, इतना मत हँसो। अहा कृष्णा: हैं!
कृष्णा: भाभी तुमसे कुछ वसूलने आया हूँ।
शीला: देखो, अभी घबराए क्यों जाते हो डाक्टर साहब! हमने नुस्खा लिखा है। दवा तैयार हो जाय।
[पद्मा: शरमा जाती है। कृष्णा भी झेंप जाता है, लेकिन चन्दे की कापी निकालता है।]
कृष्णा: लिखो।
शंकर: यह क्या है भाई, कुछ हमें भी मालूम होगा?
कृष्णा: बाढ़ रिलीफ कमेटी का चन्दा। [कापी राजेश: की ओर बढ़ा कर] कुछ आप!
राजेश: [कापी हाथ में ले कर और लाइनें लिख कर हस्ताक्षर कर देता है।] देखो शंकर: , मैंने क्या लिखा है - 'जब आदमी के सामने जिन्दगी की दिशाएँ धुँधली पड़ जाएँ, जब वह अपनी जिन्दगी के सही-सही अर्थ न खोज सके तो उसका जिन्दा रहना उसका अहंकार और कायरता है। उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए - राजेश: !' [सब अचरज से देखते हैं...]
शंकर: अरे यह चन्दे की रसीद है राजे, आटोग्राफ बुक नहीं।
[पद्मा: आँचल में मुँह दबा कर हँसती है। शीला: खिलखिला पड़ती है। शंकर: आँख से दोनों को मना करता है।]
कृष्णा: मुझे संदेश नहीं चाहिए। मुझे चन्दा चाहिए।
राजेश: ओ, आई ऐम सारी! काहे का चन्दा।
कृष्णा: बाढ़ रिलीफ का।
राजेश: क्यों?
कृष्णा: क्यों? उससे हम बाढ़ में मरनेवालों को बचाएँगे।
राजेश: लेकिन क्यों बचाएँगे उन्हें?
पद्मा: तो क्या उन्हें मरने दिया जाय?
राजेश: बेशक! कितना बड़ा दम्भ है। हम घास-फूस के छप्परों को बह जाने देते हैं। ढोर-ढंगर को बह जाने देते हैं। आदमियों को बचाने के लिए चन्दा करते हैं। क्यों! क्या ये आदमी घास-फूस और ढोर-ढंगर से किसी माने में बेहतर होते हैं? कभी नहीं डाक्टर! ये लोग कीड़ों से भी बदतर होते हैं। इनका जिन्दा रहना दुनिया के लिए अभिशाप है और इनके लिए यातना। फिर इन्हें क्यों न मरने दिया जाय। मैं जब कभी सोचता हूँ कि इस धरती पर करोड़ों आदमीनुमा कीड़े रेंगते हैं और नारकीय जिन्दगी बिताते हैं तो मेरा मन गुस्सा और तरस से भर जाता है। ये, हम सब, क्या हैं हमारी जिन्दगी के माने? करोड़ों साल से हम लोग सितारों की छाँह में धरती पर अपने पद-चिह्न बनाते हुए चले आए हैं। मगर हैं हम सब भी कीड़े के कीड़े! हमारा अस्तित्व मिट जाय तभी अच्छा हो। मुझे तो अफसोस है कि ये बाढ़ें इतनी कम क्यों आती हैं? मनु के जमाने का जल प्रलय क्यों नहीं आता है! इन्सान की जिन्दगी का नाम-निशान क्यों नहीं खत्म हो जाता? कीड़े? ये सब मरने के लिए बने हैं।
शीला: तो क्या दया और सहानुभूति कुछ भी नहीं है? राजेश: बाबू, आप क्या कह रहे हैं?
कृष्णा: दिस इज़ ब्रूटिश!
राजेश: तो क्या दया कम ब्रूटिश होती है डाक्टर साहब! अभी उस बलि के बकरे को देखा था। दया तो हमारे व्यवहार का महज वह अंश है जिसमें हम बकरे को फूल-माला से लादते रहते हैं। डाक्टर साहब! हमारे दो चेहरे हैं। एक जो हम दुनिया को दिखाते हैं, वह है दया, ममता, स्नेह, प्रेम का चेहरा; एक वह जो हम खुद देखते हैं, वह है क्रूरता, घृणा, हिंसा, प्रतिशोध का चेहरा और यही जिन्दगी की असलियत है मेरे दोस्त! दया करके, प्रेम करके, हम हमेशा जिन्दगी की असली कुरूपता को ढँकने की कोशिश करते रहे हैं। यह गलत है। असलियत यह है कि जिन्दगी क्रूर है, जिन्दगी कुरूप है, घिनौनी है और आदमी उसे बदल नहीं सकता। आदमी को मर जाना चाहिए। खत्म हो जाना चाहिए।
शंकर: यह फिलासफी की बात दूर... लाओ तुम्हारे नाम से चन्दा लिख दूँ।
राजेश: चन्दा... यही लाइनें मेरा चन्दा है। यह तो रसीद बुक है। यह मैं आग की लपटों पर लिख सकता हूँ, पानी की लहरों पर लिख सकता हूँ, आसमान के बादलों पर यही लिख सकता हूँ। यही जीवन का ध्रुव सत्य है। कह दो आदमियत से वह मर जाय। चूँकि आज तक उसकी दिशाएँ अस्पष्ट हैं, धुँधली हैं। छि ! [उसी आवेश में] मैं बाथरूम जा रहा हूँ। नहाऊँगा मैं। अन्दर जैसे भट्ठी सुलग रही हो।
[चला जाता है।]
शंकर: कृष्णा: , कल इन्हें इक्जामिन करो जरा। जानते हो यह बड़े अच्छे लेखक हैं।
कृष्णा: हिन्दी के न? तभी ये न्यूराटिक हैं। मानसिक रोग है शंकर: भइया!
पद्मा: रोग नहीं; बहुत गम्भीर बात कहते हैं ये! मैं तो जैसे बह गई थी।
[कृष्णा: आश्चर्य से पद्मा: की ओर देखता है, वह लजा जाती है।]
कृष्णा: अच्छा कल देखूँगा इन्हें। अब जरा रिलीफ़ कमेटी की मीटिंग में जाना है।
शंकर: क्या हालत है बाढ़ की।
पद्मा: सब जगह पानी भर गया है जीजा! देवी के मन्दिर पर भी पानी आ रहा है। इस साल फिर कोई बेचारा डूबेगा।
कृष्णा: वाहियात! महज अन्ध-विश्वास है। हाँ शंकर: भइया, इनमें बड़ी आत्मघाती प्रवृत्तियाँ हैं। जरा सम्हाल कर रखना...
[शीला: घबराई हुई आती है।]
शीला: सुनते हो, उन्हें दिल का दौरा फिर आ गया है।
[सब अन्दर जाते हैं।]
[पर्दा गिरता है।]
द्वितीय दृश्य
[दो सप्ताह बाद अपने कमरे में बैठी हुई पद्मा मुसम्मी निचोड़ रही है। उसका चेहरा क्लान्त है और बाल बिखरे हुए हैं। मुद्रा गंभीर और चिन्तामग्न है। अन्दर से कृष्णा आता है। हाथ में स्टेथेस्कोप और सूटकेस, साथ में शंकर।]
पद्मा: क्यों, क्या रीडिंग है?
कृष्णा: बहुत अच्छी है तबियत अब तो। दस दिन में आधा मर्ज चला गया।
शंकर: इसका सेहरा तो पद्मा के सिर बँधना चाहिए। उसने दिन-रात एक कर दिया कृष्णा! मैं नहीं समझता था कि ये इतनी सुश्रूषा कर सकती हैं।
पद्मा: अरे जीजा, इतनी तारीफ न करो, नजर लग जायगी! हाँ तो कृष्णा, तुमने कुछ एनालाइज किया?
कृष्णा: हाँ बताते हैं अभी, शंकर भइया। उन्हें आप इसी कमरे में ले आइए। उसका वातावरण बहुत मनहूस है।
[शंकर जाता है]
पद्मा: हाँ तो बताओ कृष्णा!
कृष्णा: डाक्टर से ज्यादा तो शायद तुम मरीज के बारे में जानने के लिए आतुर हो [गहरी साँस ले कर] दस दिन में जिन्दगी का चक्र कितना घूम गया है पद्मा!
पद्मा: कृष्णा: , कृष्णा: ! बोली न बोला करो। तुम्हारा मन इतना छोटा है, यह मैं नहीं जानती थी।
कृष्णा: तुम्हारा मन इतना अस्थिर है, यह मैं नहीं जानता था पद्मा! इन दस दिनों में जैसे दुनिया बदल गई है। मेरा सब कुछ खो गया पद्मा! अब तुम्हें मेरे बारे में कोई दिलचस्पी ही नहीं रही। वह न्यूराटिक, आत्मघाती तुम्हारे लिए सब कुछ हो गया।
पद्मा: कृष्णा: , कृष्णा: ! इस तरह की बातें सुनने की मैं आदी नहीं। वह कुछ भी हों मैं उन्हें श्रद्धा करती हूँ, ममता करती हूँ, प्रेम... [रुक जाती है।]
कृष्णा: प्रेम करती हूँ! कहो न! आखिर हो न औरत! बदलते देर नहीं लगती।
पद्मा: आखिर हो न पुरुष! अधिकार की प्यास जायगी थोड़े। ब्याह हो गया होता तो जाने क्या करते... [कृष्णा: स्तब्ध रह जाता है ... एकटक पद्मा: की ओर देखता है, धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठ जाता है। माथे पर हाथ रख कर, सोचने लगता है। पद्मा उठती है और धीरे-धीरे कुर्सी के पीछे खड़ी हो जाती है। बालों में उँगलियाँ डाल कर -] नाराज हो गए कृष्णा [चुप रहता है... कन्धा झकझोर कर] बोलो! सचमुच मैं अपने को समझ नहीं पाती कृष्णा , मुझे क्या हो गया है। मैं जानती हूँ तुम्हारे मन में मेरे लिए क्या है, लेकिन क्या करूँ कृष्णा! उनके मन के दर्द को जिस दिन पहचाना है उस दिन से जैसे उसने मन को बाँध लिया है। लगता है जैसे उनके दर्द का एक जर्रा मेरे सारे व्यक्तित्व, सारे प्रेम से बड़ा है। मेरा प्रेम अब भी तुम्हारे लिए है, लेकिन लगता है यदि उनके दर्द में जरा-सी कमी हो सके तो मेरा सारा व्यक्तित्व सार्थक हो जाय। यकीन मानो कृष्णा: , मैं उन्हें प्यार नहीं करती। उनकी आँखों में इतनी अँधेरी गहराइयाँ हैं कि उनमें झाँकते हुए मुझे डर लगता है, लेकिन जाने कैसा जहरीला जादू है उनमें कि डूब जाती हूँ। मुझे कुछ अपने ऊपर बड़ा गुस्सा आता है और जब वह मुझ से नहीं सम्हल पाता तो तुम पर उतर जाता है कृष्णा: ! ...बोलो... [कृष्णा: केवल आँख उठा कर देखता है और चुपचाप सर नीचे कर लेता है]... माफ कर दो कृष्णा: ! थोड़े दिन में तो वे यहाँ से चले जाएँगे, तब तक उनकी सेवा कर लेने दो! मुझे लगता है कि...
कृष्णा: मैं जानता हूँ मैं बहुत नीरस हूँ पद्मा: । तुम्हारे योग्य नहीं। लेकिन, मैं क्या करूँ। अगर मेरी जिन्दगी में कोई है जिसकी वजह से मैंने कुछ ऊँचाई पाई है तो वह तुम हो...लेकिन खैर........
पद्मा: तुम्हारी इसी बात से मेरा मन भर आता है! [एक आँसू टप से गिर पड़ता है, गला भर आता है।] मैं क्या करूँ? [रोने लगती है।]
कृष्णा: अरे रोओ मत। बैठो! आँसू पोंछो। तुम जैसी भी हो मुझे स्वीकार हो पद्मा: ! काश कि तुम समझ पातीं... लेकिन खैर जाने दो! आओ बताएँ उन्होंने क्या बताया। आँसू पोंछ डालो... हँसो... हाँ ऐसे... तुम्हें मालूम है? वे इसलिए इतने निराश हैं, इसलिए आत्महत्या करना चाहते हैं कि वह लड़की उन्हें मिल न सकी जिसे वह...
पद्मा: [चीख कर] छि कृष्णा, उन्हें इतने नीचे न घसीटो।
कृष्णा: [कड़े स्वर में] तुम्हारी पूजा से तो वह ऊँचे हो नहीं जाएँगे।
पद्मा: [और भी कड़े स्वर में] तुम्हारी व्याख्या से वह नीचे तो गिरेंगे नहीं। बेवकूफ मत बनाओ मुझे। उन्होंने तुमसे पहले मुझे बता दिया है, सब बता दिया है। उन्होंने बताया है कि उन्होंने और कामिनी ने निश्चय किया था कि वे जीवन भर अलग रहेंगे, प्रतिदान न लेंगे। मगर अपने प्यार से दोनों एक दूसरे का व्यक्तित्व सम्हालते चलेंगे। पर अब कामिनी धीरे-धीरे मुर्झा रही है और वह रोक नहीं पाते... उनके सामने जीवन का एक अर्थ था। और अब उनका जीवन निरर्थक है। वह जिन्दा नहीं रहना चाहते... कितनी गहराई से सोचते हैं वह कृष्णा: ! तुम समझ नहीं सकते।
कृष्णा: तुम तो समझती हो।
पद्मा: हाँ समझती हूँ। और तुम्हारे इस तरह बोलने से मैं डर नहीं जाऊँगी। तुम उनके पैरों की धूल भी नहीं हो। तुम इस ऊँचाई से सोच भी नहीं सकते।
कृष्णा: कभी नहीं सोच सकता। ईश्वर न करे मैं वहाँ से सोचूँ। औरत जो एक शाम को बदल सकती है, उस औरत के पीछे मैं आत्महत्या नहीं कर सकता। छि..
[तेजी से निकल जाता है।]
पद्मा: कृष्णा! कृष्णा...सुनो। उफ मुझे क्या हो गया है। [मेज पर सिर रख कर रोने लगती है- दाईं ओर से शंकर: का सहारा लिए हुए राजेश: आता है।]
शंकर: पद्मा: ! जरा कुर्सी खिड़की के पास डाल दो।
[पद्मा: जल्दी से आँख पोंछ कर उठती है, और कुर्सी डाल देती है। राजेश: बैठ जाता है। शंकर: उसके पैरों पर चादर डाल देता है। पद्मा: मुसम्मी का रस ला कर देती है।]
शंकर: अच्छा, मैं डिस्पेन्सरी जा कर दवा ले आऊँ। शीला! ओ शीला ! जरा शीशी दे जाना... पद्मा, तुम्हारी आँख क्यों लाल है?
पद्मा: सर में दर्द है जीजा!
राजेश: मेरी वजह से। अगर सब से ज्यादा मेजबानी किसी पर लदी तो इन पर। मुर्दे को लोग मरने भी तो नहीं देते।
पद्मा: मरें आपके दुश्मन! आपके बिना हमारे जीजा नहीं विधवा हो जाएँगे।
[शंकर: और राजेश हँसते हैं। शीला ला कर शीशी देती है... शंकर: ले कर जाता है।]
राजेश: बैठो भाभी।
शीला: दूध चढ़ा आई हूँ, उतार आऊँ।
पद्मा: अरे बैठो भी दीदी। [हाथ पकड़ कर बिठाल लेती है]
शीला: राजेश: बाबू! अब शादी कर लो तुम। ये सब तो हर एक की जिन्दगी में होता है। शादी कर लो। बिखरा हुआ मन बँध जायगा और धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
राजेश: [हाथ जोड़कर] क्षमा करो भाभी। क्या इतना प्रायश्चित काफी नहीं है?
पद्मा: अच्छा तो है राजेश: बाबू, शादी कर लीजिए, इतना डरते क्यों हैं?
राजेश: डरते क्यों हैं? बुरा न मानना, मैंने सुना था अफ्रीका में एक नरभक्षी पेड़ होता है। जहाँ कोई उसके समीप गया कि उसके पत्ते उसे झुक कर लपेट लेते हैं। और उसके बाद वह अपने जहरीले रेशमी काँटों से बूँद-बूँद खून चूस कर हड्डियाँ फेक देते हैं। औरत भी बिल्कुल ऐसी ही है। किसी भी जीनियस को देखते ही वह अपनी बाँहों में कस लेती है और फिर व्यक्तित्व को बूँद-बूँद चूस कर उसे फेंक देती है।
शीला: अच्छा तो इसका मतलब तुम्हारे मित्र का व्यक्तित्व मैंने खत्म कर दिया है। जाइए, जनाब, मैं न होती तो...।
पद्मा: अरे दीदी, वह जीनियस की बात कर रहे हैं! जीजा कहाँ के जीनियस थे? [राजेश और शीला हँस पड़ते हैं]
शीला: तो यह किसी जीनियस लड़की से शादी कर लें।
राजेश: जीनियस और लड़की। यह सर्वथा अन्तर्विरोध है। औरत जीनियस हो ही नहीं सकती। उसके लिए जिन्दगी का बाह्य सब से प्रमुख होता है। कामिनी के ही बारे में मैंने आपको बताया था। बाह्य परिस्थितियाँ उसके अन्तर के सौन्दर्य को नष्ट कर रही हैं और वह चुपचाप है। यह कोई प्रतिभा है। प्रतिभा विद्रोह करती है, सृजन करती है। नारी केवल प्रसव करती है या प्रसाधन, प्रसव की भूमिका... क्षमा कीजिएगा। यही है पद्मा ! इनकी मेज पर कामायनी रक्खी है। लेकिन कामायनी के ऊपर क्या है? पाउडर का डिब्बा।
शीला: [सहसा चौंक कर] दूध जल रहा है। मैं अभी आई।
[चली जाती है, पद्मा: उठती है और पाउडर का डिब्बा उठा कर फेंक देती है। राजेश: चौंक जाता है।]
राजेश: अरे यह क्या? आप बुरा मान गईं। मैंने तो उदाहरण दिया था। मैं क्या आपको समझता नहीं हूँ!
पद्मा: समझते हैं आप! खूब समझते हैं। जहाँ नारी दुर्बल है, कमजोर है, वहाँ उसे गाली दे लीजिए, लेकिन जहाँ वह ममता दे देती है, अपना सब कुछ दे देती है, वहाँ भी आप लोग कहने से नहीं चूकते।
राजेश: गलत समझीं आप पद्मा जी! आपको क्या मैंने समझा नहीं! आप ही ने तो मेरी जान बचाई है।
पद्मा: देखिए आप होंगे आप! मैं तो तुम हूँ!
राजेश: [गहरी साँस ले कर] तुम सही पद्मा । लेकिन तुम इतनी ममता से बात न किया करो! तुम नहीं समझतीं कि प्यार न मिलने से मन में एक घाव होता है, लेकिन एक घाव और होता है जो प्यार मिलने से बुरी तरह कसक उठता है। तुम क्यों, क्यों इतनी ममता बढ़ा रही हो?
पद्मा: पता नहीं क्यों। मैं खुद नहीं समझ पाती। जाने कैसा मंत्र-सा छा गया है मुझ पर। लगता है जैसे मैं आपे में नहीं हूँ।
राजेश: लेकिन यह बुरी बात है।
पद्मा: जानती हूँ यह गलत बात है, फिर भी आप कभी नहीं समझ सकते आप मेरे लिए क्या हो गए हैं। लगता है मेरी जिन्दगी का अर्थ मेरे सामने खुल गया है। कोई छाया थी जो बार-बार सपनों में आती थी। मैं पुकारती रहती थी, वह चली जाती थी, आपको पा कर मैं उस छाया को पा गई हूँ।
राजेश: [आवेश से] पद्मा ! क्या कह रही हो तुम?
पद्मा: कह लेने दीजिए मुझे। फिर कभी न कहूँगी, लेकिन जो कुछ कह रही हूँ वह अक्षर-अक्षर सही है। मैं आज तक कविताएँ गाती थी। आप को पा कर उन गीतों की आत्मा पा गई हूँ। आप को खुद नहीं मालूम कि आते ही आपने क्या किया था। आते ही मेरा चित्र उलट दिया था। मेरा व्यक्तित्व उलट दिया था; बताइए क्यों किया था आपने? क्यों? क्यों आपने उन गहराइयों में उतार दिया, जहाँ आपके सिवा कोई नहीं है?
राजेश: लेकिन पद्मा ... डाक्टर?
पद्मा: मैं स्वयं नहीं जानती उनके लिए क्या करूँ। आज लगता है जैसे वे मेरे प्यार की पगडण्डी थे, जिसे मैं छोड़ आई हूँ। आप मंजिल हैं जहाँ मैं पहुँचना चाहती हूँ।
[सहसा शीला का प्रवेश।]
शीला: पद्मा! जरा जा कर धोबी को कपड़े दे आओ! जल्दी जाओ [पद्मा: जाती है] राजेश: बाबू, आज शाम को नाश्ते के लिए क्या बनाऊँ?
राजेश: [गम्भीर विचार में] कुछ नहीं! चाहे जो बना दो।
शीला: मूँग का हलुआ अच्छा लगता है। [राजेश स्वीकृति में सिर हिला देता है।]
[डाक्टर आता है, अस्तव्यस्त!]
कृष्णा: भाभी इनसे कुछ बातें करनी हैं एकान्त में... अगर...।
शीला: हाँ, हाँ। मैं जाती हूँ। [जाती है]
राजेश: [उत्सुकता से डाक्टर की ओर देखता है] क्या है डाक्टर?
कृष्णा: [कुछ देर चुप रह कर] राजेश: बाबू [बहुत कड़े स्वर में] मैंने तुम्हारी जान बचाई है... और... और तुमने... [सहसा धीमे पड़ कर, गहरी साँस ले कर] जाने दो मुझे यह कहना भी उचित नहीं है। लेकिन मैं तुम्हें ऐसा नहीं समझता था। [सहसा तेज हो कर] लेकिन तुम चुप हो जैसे कुछ जानते ही नहीं, तुम चुप रह कर...।
राजेश: लेकिन मेरा क्या दोष?
कृष्णा: तुम्हारा क्या दोष? दोष है तुम्हारी उल्टी-सीधी बातों का, जिनमें आदमियों को बेहोश बनाने का नशा है। माना मुझ में इन्टेलेक्ट नहीं है। मैं लच्छेदार बातें नहीं कर पाता, मेरे व्यक्तित्व में आग नहीं, इसके मतलब यह नहीं कि मेरा सब कुछ छिन जाय। तुमने यह काँटे बोए हैं, तुमने यह जहर घोला है। जहर... जानते हो... मैं सब कुछ खो कर भी स्वयं नहीं मरूँगा... लेकिन यह देखते हो... [बैग से एक शीशी निकाल कर] दवा में इसकी एक बूँद तुम्हारे लिए काफी है... मैं नष्ट होना नहीं जानता, मैं कायर नहीं हूँ...
राजेश: [हाथ बढ़ाकर] कितने मेहरबान हो कृष्णा: तुम। इसी दवा की तो मुझे तलाश है। काश कि तुम समझ पाते कि कितनी बेचैनी है इस हृदय में! कब से मैं धधक रहा हूँ। मैं खुद तुम लोगों की जिन्दगी के बीच से हट जाना चाहता हूँ। मुझे किसी का मोह नहीं रहा, जिसे प्राणों से बढ़ कर प्यार किया जब उसी... लाओ दो, शीशी दो!...
कृष्णा: [उठ कर] कभी नहीं, मेरा काम जिलाना है, मैं डाक्टर हूँ, मैं जहर नहीं दे सकता हूँ, मैं दवा देता हूँ [खिड़की के पास जा कर शीशी फेंक देता है, मुड़ कर पद्मा: के चित्र को देख कर] काश कि तुम कभी भी समझ पाती मैं जीनियस नहीं हूँ, मगर तुच्छ भी नहीं हूँ... [लौट कर, राजेश: के कन्धे पर हाथ रख कर] मगर मैं क्या करूँ। कोई भी तो मेरे दर्द को नहीं...
राजेश: [हाथों में उसके हाथ ले कर] मैं समझता हूँ डाक्टर, मैं समझता हूँ। मैं कितना तुच्छ हूँ। कैसा फूटा नसीब है मेरा कि जो मेरे संसर्ग में आता है उसी को आग लग जाती है। मैं समझता हूँ... मैं तुम्हारे रास्ते से हट जाऊँगा। कृष्णा: ... मैं समझता हूँ...
कृष्णा: [गमगीन आवाज में] मुझे कोई नहीं समझता... कोई नहीं... [धीरे-धीरे चला जाता है। राजेश: कमरे में टहलने लगता है।
राजेश: जिन्दगी का कुछ अर्थ नहीं रहा मेरे सामने। एक प्रेतात्मा की तरह जिस वातावरण में रहता हूँ वही अभिशप्त हो जाता है। मौत में इतनी तकलीफ तो नहीं होगी, इतनी उलझन तो नहीं होगी। जिन्दगी तो मुझे नीच साबित करने पर तुली है। अब मुझे जाना ही पड़ेगा। मुझे कोई नहीं रोक सकता [मुट्ठी तान कर] कोई नहीं... दुनिया मेरे लिए बहुत छोटी है, जिन्दगी बहुत सँकरी है। [खिड़की से उतर जाता है। उतरने में पैर लग कर पद्मा: की तस्वीर गिर कर टूट जाती है।]
[पर्दा गिरता है।]
तृतीय दृश्य
[वही कमरा... शंकर बेचैनी से टहल रहा है... शीला सर झुकाए बैठी है।]
शंकर: [सहसा रुक कर] सारी गलती तुम्हारी है। मैंने बार-बार कह दिया था कि चाहे आसमान फट पड़े, तुम राजेशको एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ना, लेकिन तुमने कभी कहना माना? तुम समझती हो कि अगर राजेश को कुछ हो गया तो मैं किसी को मुँह दिखला सकूँगा? [फिर टहलने लगता है।]
[पद्मा: आती है।]
पद्मा: कुछ पता लगा जीजा?
शंकर: : कुछ नहीं! पुलिस में रिपोर्ट की, जाल छुड़वाया, मल्लाहों से पूछा, स्टेशन पर जाँच की, कहीं से कोई जवाब नहीं... [सहसा मुड़ कर] लाओ कुछ रुपए निकाल लाओ, जब तक ढूँढ़ूँगा नहीं, तब तक वापस नहीं आऊँगा। [शीला चुपचाप उठ कर अन्दर जाती है। शंकर फिर टहलने लगता है। पद्मा एकटक खिड़की के बाहर देखती है, शीला ला कर पर्स देती है। शंकर बाहर जाता है!]
शीला: [डरते-डरते] कुछ खा तो लो, कल से एक बूँद पानी नहीं डाला मुँह में!
शंकर: खाओ तुम! मैं तो सिर्फ जहर खाऊँगा...
[तेजी से चला जाता है। शीला रोते-रोते अन्दर चली जाती है। पद्मा दरवाजे पर खड़ी हो कर शंकर को देखती है, फिर लौट कर पलंग पर गिर जाती है और राजेश की अटैची पर सिर रख कर फूट-फूट कर रोने लगती है। कृष्णा आता है।]
कृष्णा: : कुछ पता लगा! [पद्मा कुछ जवाब नहीं देती, वह क्षण भर खड़ा रहता है, फिर पलंग पर बैठ जाता है। पद्मा के सिर पर हाथ रख कर] पद्मा इतना क्यों रोती हो [गहरी साँस ले कर] धीरज रक्खो...
पद्मा: [सहसा फुँफकार उठती है, उसका हाथ झटक कर] दूर रहो छुओ मत मुझे। मुझे सब मालूम है। तुम इतने पशु हो मैं नहीं जानती थी।
कृष्णा: मैं?
पद्मा: हाँ! तुम! तुम! तुम! मुझ से छिपो मत, यह देखो, यह खिड़की के पास था [जहर की शीशी देती है] तुम्हारे दवाखाने की है यह, तुम्हीं आए थे उस वक्त। मैं अभी दीदी को दिखा सकती हूँ। अभी पुलिस को दे सकती हूँ, लेकिन... [रोने लगती है।] मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था कृष्णा? तुमने उन्हें जहर पिला दिया। मैं उनसे शादी नहीं करती। मगर तुमसे इतना भी बर्दाश्त नहीं हुआ। फिर तुमने किस कलेजे से यह शीशी दी होगी उन्हें! हत्या! उफ!
कृष्णा: : लेकिन पद्मा सुनो तो..
पद्मा: [चीख कर] मैं तुमसे नफरत करती हूँ। तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती। चले जाओ, अभी चले जाओ। वरना मैं दीदी को बुलाती हूँ...
[कृष्णा: क्षण भर रुक कर पद्मा को देखता है। फिर सिर झुका कर चला जाता है, पद्मा रोने लगती है। फिर उठ खड़ी होती है, अपने चित्र के टुकड़े उठाती है और फिर उन सब को फेंक कर बदहवास हो कुर्सी पर बैठ जाती है। थोड़ी देर बाद शंकर: आता है, साथ में राजेशहै।]
शंकर: शीला! शीला ! लो राजेश आ गए!
[पद्मा: चौंक पड़ती है, उछल कर पीछे खड़ी हो जाती है, झट से आँसू पोंछती है, आँसू बहने लगते हैं। शीला: भागी हुई आती है।]
शीला: वाह राजेशबाबू! परेशान कर डाला आपने तो। आज न आते तो शायद कल आपके भइया मुझे तलाक दे देते।
शंकर: : अरे इसी उम्मीद से तो ये लौट रहे थे कि शायद मैं तलाक दे चुका हूँ।
पद्मा: ये थे कहाँ जीजा?
शंकर: : इन्हीं से पूछो। शीला , जल्दी से दूध गर्म करो इनके लिए।
राजेश: लेकिन मैं इसी गाड़ी से घर जाऊँगा।
पद्मा: [सहसा विचित्र स्वर में चौंक कर] अरे डाक्टर...
शंकर: हाँ, अरे पहले डाक्टर से सलाह तो ले लो।
राजेश: नहीं, मैं रुक नहीं सकता अब, एक दिन भी नहीं।
शंकर: अच्छा! अच्छा! मैं खुद नहीं रोकूँगा तुम्हें। कृष्णा से पूछ आऊँ जल्दी से। सुनो पद्मा ! [पद्मा को अलग बुला कर] इनकी अटैची ठीक कर दो और शीला से सौ रुपए ले कर रख देना उसमें?
[जाता है।]
पद्मा: [राजेश से] आप कहाँ चले गए थे? सच आपको जरा भी खयाल नहीं है किसी का! आप गए कहाँ थे?
राजेश: अजब-सी बात है पद्मा: ! विश्वास करोगी! मैं गया था देवी के मन्दिर, डूबने के लिए! [पद्मा चीख पड़ती है] न, चीखो मत। तुम जानती हो, मैं कितना ऊब गया था अपने से। अपनी जिन्दगी एक भार थी मेरे लिए, धीरे-धीरे वह सभी के लिए भार बन गई। सब की जिन्दगी के बाँध मेरी वजह से टूटने लगे। मैं कितना आत्मदंशन बर्दास्त करता। मैंने निश्चित कर लिया कि अब मेरी मौत ही हर उलझन का इलाज है। किसी को भी तो सुख न दे पाया मैं। [उठ कर टहलने लगता है।]
पद्मा: आप बैठे रहिए।
राजेश: नहीं अब मैं ठीक हूँ... बिलकुल ठीक... हाँ तो मुझमें उस वख्त जाने कितनी ताकत आ गई! मैं देवी के मन्दिर के पास गया। मैंने अपने मन में सोचा था कि बहुत भयानक जगह होगी। लेकिन वह तो बहुत खुशनुमा जगह थी। मन्दिर का सिर्फ गुम्बद चमक रहा था। पीपल और पाकड़ के पेड़ डूब गए थे। इतनी खामोशी थी चारों ओर कि लगता था हजारों मील से पत्थरों से टकराती, गाँवों को डुबाती हुई यह नदी इन पेड़ों की छाँह में आ कर सो गई है। मैं चुपचाप खड़ा रहा। कुछ दूर तक पेड़ों की छाँह से पानी साँवला पड़ गया था। थोड़ी देर में सूरज डूबने लगा। सैकड़ों सिन्दूरी बादल पानी में उतर आए और फूल की तरह धीरे-धीरे बहने लगे। मैं चुपचाप था। पता नहीं किसने मेरे कदमों की ताकत छीन ली थी। धीरे-धीरे मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मुझे लगा मैं क्यों मरना चाहता हूँ। जिन्दगी तो इतनी सुन्दर है, इतनी शान्त है। मुझे जिन्दगी का नया पहलू मिला उस दिन! वह यह कि चाहे ऊपर की सतह मटमैली हो, मगर जिन्दगी की तहों के नीचे गुलाब के बादलों का कारवाँ चलता रहता है। क्रूरता, कुरूपता के नीचे सौन्दर्य है, प्रेम है और सौन्दर्य और प्रेम, कुरूपता और क्रूरता को चीर कर नीचे पैठ जाता है। उसे देखने के लिए सहज आँख में नया सूरज होना चाहिए, पद्मा! [गहरी साँस लेकर] और धीरे-धीरे लगा कि जैसे मन की सारी कटुता, सारी निराशा, सारा अँधेरा, धुलता जा रहा है। लगा कि जब तक जिन्दगी में एक कण सौन्दर्य है, तब तक मरना पाप है। पागलों की तरह उन्हीं तैरते हुए बादलों के साथ मैं चल पड़ा... अँधेरा हो गया... [शीला दूध लाकर रख देती है और बैठ जाती है] मैं वहीं बैठ गया। थोड़ी देर में उधर कुछ सियार आए। वे लोग किसी की लाश को घसीट रहे थे। मुझे देख कर भागे। मैं समीप गया; देखा एक दस-बारह साल का लड़का है। अभी साँस चल रही है। मैंने उसे बाहर निकाला। मन काँप उठा। मगर उठा कर लाने की ताकत नहीं थी। कितना सुन्दर था वह, कितना मासूम! मैं बैठ कर सियारों से उसकी रखवाली करने लगा। उस तरफ सितारे थे, इस तरफ लाश। बीच में मैं उसकी रखवाली कर रहा था। चारों ओर सुनसान! लग रहा था आसमान से अजब-सी शान्ति मेरी आत्मा पर बरस रही है। मेरे व्यक्तित्व के रेशे फिर से सुलझते जा रहे हैं, और यह लड़का वह चिरन्तर जीवन है, वह सौन्दर्य है जिसकी रखवाली मैं युगों से करता आ रहा हूँ और युगों तक करता जाऊँगा। जिन्दगी नील कमल की तरह मेरे सामने खुल गई। मुझे लगा कि आदमी सारी तकलीफ और दर्द के बावजूद इसलिए जिन्दा है कि वह सौन्दर्य और जीवन की खोज करे, उसकी रक्षा करे, उसका निर्माण करे... और सौन्दर्य के निर्माण के दौरान वह खुद दिनों-दिन सुन्दर बनता जाय। अगर कोई नहीं है उसके साथ तो भी वह सौन्दर्य का सपना, वह ईश्वर के साथ है। उसे आगे बढ़ना ही है... यही जिन्दगी के माने हैं। इसलिए मैं फिर जिन्दगी में वापस लौट आया कि क्रूरता और कमजोरी के सामने हारूँगा नहीं, मरूँगा नहीं, सौन्दर्य का सृजन करूँगा और सुन्दर बनूँगा। जिन्दगी बहुत प्यारी है, बहुत अच्छी है, और आदमी को बहुत काम करना है।
शीला: और उस लड़के का क्या हुआ?
राजेश: उसे रिलीफ की नाव ले गई। मैं इधर आ रहा था तो शंकर भइया मिल गए।
शीला: दूध ठंडा हो रहा है पी लो! मैं फल ले आऊँ। [जाती है।]
पद्मा: तो अब आप जा क्यों रहे हैं? लीजिए दूध पीजिए। [मुँह से गिलास लगा देती है]
राजेश: [पी कर] मैं जा रहा हूँ इसलिए कि मेरी जगह वहीं है जहाँ कुरूपता और क्रूरता है, जहाँ मेरे सपने टूटे हैं; क्योंकि वहीं मुझे लड़ना है। वहीं प्यार बिखेरना है, वहीं निर्माण करना है। मैंने जीवन का सत्य पाया है और उसे ले कर कामिनी के पास जाऊँगा, फिर सारी दुनिया के पास और अगर कोई नहीं मिलता तो अकेले, बिल्कुल अकेले चलूँगा, लेकिन हारूँगा नहीं। [पद्मा: चुपचाप खिड़की के बाहर देखती है और आँचल से आँसू पोंछती है। राजेशउठ कर उसके पास खड़ा हो जाता है। सिर पर हाथ रखता है।]
राजेश: पद्मा! यह मोह गलत है। मुझे तो जाना ही है पद्मा! लेकिन तुम मेरी बात समझो, हर चीज का सौन्दर्य पहचानो, उसे प्यार करो। मेरी बात मानोगी?
पद्मा: मैंने कभी टाली है आपकी बात?
राजेश: देखो पद्मा: , कृष्णा: को तुम्हारी जरूरत है। मैंने भी आज यही सीखा और तुम्हें भी यही कहूँगा कि दूसरों की जरूरत के लिए जिन्दा रहो, अपने लिए नहीं। तुमने उसे प्यार किया है मुझे नहीं। मुझसे तो तुम केवल मुग्ध रही हो। एक बौद्धिक सम्मोहन मात्र! समझीं! [पद्मा सिसकती है] छि! ऐसा नहीं करते पगली! उससे समझौता कर लो। उसके पास भाषा नहीं मगर हृदय बहुत बड़ा है! बहुत सुकुमार! उससे समझौता कर लेना। फिर अपने ब्याह में बुलाओगी हमें? बोलो!
पद्मा: [रुँधे गले से] हाँ...
[शीला: फल लाती है।]
शीला: क्या सचमुच अभी जाओगे राजेश: ?
राजेश: हाँ भाभी! पद्मा: , जल्दी से अटैची ठीक करो... भाभी! ऊपर हमारे कपड़े पड़े होंगे।
शीला: अभी लाई।
[जाती है। राजेश चुपचाप बैठा है। बाहर कोई बड़े दर्दनाक स्वरों में वही गीत गाता है- 'हाऽऽय बाढ़ी ऽऽ नदियाऽऽ'...]
पद्मा: [अटैची सम्हालते हुए] क्या सोच रहे हैं आप! जो आप कह रहे हैं, वही होगा। सचमुच मैंने कृष्ण से बहुत कठोर व्यवहार किया है। मैं उनसे क्षमा माँग लूँगी। मैं उन्हें समझा लूँगी।
[खिड़की के सामने से दो मुसाफिर बात करते हुए जा रहे हैं- 'बिल्कुल घट गया जल, मन्दिर से... बड़ा अचम्भा है।' गीत बराबर चल रहा है... चढ़उबै पाठा जवान… शंकर: आता है। माथे पर बेहद पसीना!]
शंकर: : पद्मा: , एक गिलास पानी लाओ जल्दी से...
[पद्मा: जाती है।]
राजेश: : क्या हुआ? पूछा कृष्णा से? मैं आज जाऊँगा जरूर। मेरा मन नाच रहा है शंकर: । कृष्णा: मुझसे मिलने नहीं आएँगे?
शंकर: [पलंग पर लेटते हुए] नहीं आएँगे... पद्मा से कहना मत। उन्होंने खुदकशी कर ली... वहीं देवी के मन्दिर के पास डूब कर...।
पद्मा: [दरवाजे पर सुन कर, चीखते हुए] भइया! [गिलास छूट जाता है। शंकर से लिपट कर] भइया! [सिसक-सिसक कर रोने लगती है।]
[संगीत फिर तेज हो उठता है, गूँज उठता है-
'हाय बाढ़ी नदिया जिया लैके मानै!'
तेज होते हुए संगीत के साथ पर्दा गिरता है।]