2010 में सरकारी उपक्रमों संबंधी (COPU) संसदीय समिति चौक गयी कि सरकार द्वारा पूरे देश की आर्थिक संप्रभुता को दांव पर रख कर कैसे अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी को 1 लाख करोड़ की छपाई का ठेका दिया गया। अमेरिकी नोट कंपनी (यूसए), थॉमस डे ला रू (ब्रिटेन) और giesecke and devrient consortium (जर्मनी) ये वो तीन कम्पनियां है, जिसे भारतीय मुद्रा की छपाई करने के लिए ठेका दिया गया था। इस घोटाले के बाद रिज़र्व बैंक ने अपने वरिष्ठ अधिकारी को तथ्य तलाशने के लिए डे ला रू के प्रिटिंग प्लांट हैम्पशायर (ब्रिटेन) भेजा| रिज़र्व बैंक अपनी सुरक्षा कागज की आवश्कताओं का 95% का आयात उसी कंपनी से करता था जो कि कम्पनी के लाभ का एक तिहाई था, फिर भी भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा डे ला रू को नये अनुबन्ध से दूर रखा गया।
डे ला रू के इस झूठ के कारण सरकार द्वारा इसे काली सूची में डाल दिया जिसके कारण 2000 मीट्रिक टन कागज, प्रिटिंग प्रेस और गोदामों सब ऐसे ही पड़े रह गए। इस असफलता के बाद डे ला रू के सीईओ जेम्स हंसी, जो इंग्लैंड की रानी का धर्म-पुत्र है ने बहुत ही रहस्यमय तरीके से कम्पनी छोङ दी| अपने सबसे मूल्यवान ग्राहक “भारतीय रिजर्व बैंक” को खोने के बाद डे ला रू के शेयर लगभग दिवालिया हो गए। इसके फ्रेंच प्रतिद्वन्दी ओबेरथर ने इसका अधिग्रहण करने के लिए नीलामी की कोशिश की जिससे कंपनी किसी तरह बची।
वित्त मंत्रालय के अज्ञात अधिकारियों ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भेजी शिकायतों में अन्य कम्पनियों का भी उल् लेख किया। इसमें फ्रेंच फर्म अर्जो विग्गिंस, क्रेन एबी (यूसए) और लाविसेंथल (जर्मनी) शामिल है! हालांकि अभी हाल ही में जनवरी 2015 में गृहमंत्रालय ने जर्मन कंपनी लाविसेंथल को प्रतिबंधित कर दिया, जो कि आरबीआई को बैंक नोट पेपर बेचने के साथ-साथ पाकिस्तान को भी कच्चा नोट बेच रही थी।
ऐसे में सवाल उठता है कि कौन हैं ये रूपया छापने वाले? और वो भारत सरकार के मुद्रण तक पहुचे कैसे? कालीसूची में और दिवालियापन के कगार पर होने के बावजूद भी वो लोग कैसे भारतीय बाज़ार में दुबारा प्रवेश करने की तैयारी कर रहें हैं? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आम भारतीयों को इसके बारे में कुछ पता क्यों नही है| यहाँ पर हम पैसे बनाने वालो का एक छोटा सा किस्सा रख रहे हैं।
पैसा बनाने वालों की रहस्यमयी दुनिया
सारे हाई सिक्योरिटी पेपर्स की छपाई और टेक्नोलॉजी मार्किट में चंद पश्चिमी-यूरोपीय कंपनियों का प्रभुत्व है। अपनी किताब “मनी मेकर्स – सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ करेंसी प्रिंटर्स” में लेख़क क्लाउस बेंडर ने नोट उद्योग और उसके काम करने के ढंग और उस इंडस्ट्री की गोपनीयता से पर्दा हटाकर सबके सामने रखा है। इस कहानी को प्रकट करने के लिए एक प्रयास में 1983 में एक अमेरिकी लेख़क टेरी ब्लूम द्वारा अपनी पुस्तक “द ब्रदरहुड ऑफ़ मनी द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ बैंक नोट प्रिंटर्स” में सारी काली करतूतों का लेखा जोखा लिखा। लेकिन इस व्यापार के अंदर की कहानी जनता तक पहुँचने से रोकने के लिए उसी उद्योग के दो प्रमुख प्रतिनिधियों द्वारा सीधे प्रिटिंग प्रेस से उस किताब के सारे संस्करण खरीद लिए गए।
मुद्रा कारोबार में प्रमुख क्षेत्र हैं कागज, प्रिंटिंग प्रेस, नोट, स्याही और इंटीग्रेटर्स। इन कामों का जिम्मा सेवा देने वाली कंपनी के कार्यों में आता हैं| ऐसा माना जाता है कि यह ब्यापार यूरोप में बहुत ही गुप्त तरीके से लगभग दर्ज़न भर कम्पनियो द्वारा किया जाता है| साथ ही इन कम्पनियो की शुरुवात 15वीं सदी के बाद से मानी जाती है| डे ला रू कंपनी का इतिहास और इसके संचालन और कंपनी के संयंत्र का किस्सा इसके 1000 साल पहले से है|
डे ला रू ब्रिटिश हुकूमत का आधिकारिक क्राउन एजेंट था, जो कि अभी भी बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के लिए नोट प्रिंटिंग का काम करता है। क्राउन एजेंट साम्राज्य के रोज मर्रा के मामलों को चलाते थे। अपनी किताब “मैनेजिंग ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर – द क्राउन एजेंट्स” के लेख़क डेविड सेनडरलैंड बताते हैं कैसे क्राउन एजेंट्स तकनीकी, इंजीनियरिंग और वित्तीय सेवाओं के साथ कॉलोनियो के लिए मुहरे और नोट मुद्रित करते थे| निजी बैंको से लेकर गुलाम देशों के मौद्रिक अधिकारियो, सरकारी अधिकारियो और राज्य के प्रमुख को हाथियार उपलब्ध कराना, सेनाधिकारी और गुलाम देशों की सेनाओ को पैसा देकर गलत काम करवाने (वेतनाधिकारी) के लिए काम करते थे। 19वी सदी में ब्रिटिश साम्राज्य की लगभग 300 कालोनियो और नाम मात्र के “स्वतंत्रत देशों” को ब्रिटिश ताज के लिए साम्राज्य में सम्मिलित किये गए थे। जिसका प्रशासन क्राउन एजेंट के हाथो में था।
बाद में 1831 में कालोनियो के लिए राज्य सचिव की देख रेख में अलग-अलग क्षमता और ईमानदारी के एजेंटो को सुब्याव्स्थित करने के लिए क्राउन एजेंट्स के ऑफिस स्थापित किये गए। इस प्रबंधन का गठन नवोदित औद्योगिक क्रांति को ठीक से चलाने के लिए हुई जिसने पारंपरिक भारतीय बाज़ार और अर्थवस्था को नष्ट कर दिया।
माँरिसस पहली कॉलोनी थी जिसको नोट जारी करने की सरकारी अनुमति दी गयी| वहां 1849 में नोटो को वितरित करने का काम शुरू किया गया| 1884 तक किसी कॉलोनी को इसकी अनुमति नही दी। कॉलोनियों को नोट एजेंटो से प्राप्त करना होता था जिसके लिए प्रिटिंग फर्म डे ला रू आर्डर पास करती थी।
आधिकारिक इतिहास के अनुसार भारत में बैंक नोट मुद्रण सरकार द्वारा 1928 में भारत सुरक्षा प्रेस की स्थापना के साथ शुरू किया गया। नासिक में प्रेस के चालू होने तक भारतीय करेंसी नोट यूनाइटेड किंगडम के थॉमस डे ला रु जियोरी द्वारा मुद्रित किया जाता था।
स्वतंत्रता के बाद भी 50 सालों से भारत अपने रुपये की छपाई डे ला रू से खरीदी हुई मशीन से कर रहा है| जो की एक स्विस परिवार गिओरी द्वारा संचालित होती है और नोट मुद्रण ब्यापार पर उसका लगभग 90% का नियंत्रण है| लेकिन 20वीं के अन्त तक कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिसने की सब कुछ बदल के रख दिया। source : greatgameindia.com