नई दिल्ली: जिंदगी में कुछ बड़ा करने की हसरत, जेब खाली लेकिन हौसला किसी पहाड़ सा बड़ा। कुछ इसी तरह की कहानी है बिहार के अमित कुमार दास की। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन पैसे नहीं थे। मां-बाप दुआ के अलावा कुछ दे नहीं सकते थे। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद पटना चले गए। जेब में थे मात्र 250 रुपए। आज 150 करोड़ के मालिक हैं।
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चले आए दिल्ली
अमित का जन्म बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे में हुआ उनके पिता एक किसान थे। अमित हमेशा से इंजीनियर बनना चाहते थे। परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि बेटे की पढ़ाई का खर्च उठा सके। पैसे नहीं थे लेकिन जैसे-तैसे सरकारी स्कूल से पढ़ाई हो पाई। 10 वीं करने के बाद अमित ने पटना के एएन कॉलेज से साइंस से इंटर किया। अमित ना परिवार से पैसे लेना चाहते थे और ना ही परिवार की आर्थिक ऐसी थी कि उनके पढाई का खर्च उठा सके। दिल्ली आ गए और पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे।
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जब अंग्रेजी में नहीं दे पाए जवाब
अमित दिल्ली आ गए और पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे। खुद भी पढ़ाई करते रहे और बच्चों को भी पढ़ाते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी। पढ़ाई के दौरान उन्हें कंप्यूटर सीखने की सूझी। इसी मकसद के साथ वो दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे। सेंटर में उनसे अंग्रेजी में सवाल पूछे लेकिन वो उसका जवाब नहीं दे पाए। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। वो आहत हो गए। तभी एक आदमी ने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और उन्होंने बिना देर किए तीन महीने का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।
पहली नौकरी
कुछ महीने कोर्स करने के बाद अमित की अंग्रेजी अच्छी हो चुकी थी। जिस इंस्टीट्यूट ने उन्हें एडमिशन देने के लिए मना कर दिया था उन्हें अब उसी में एडमिशन मिला। 6 महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन साल के लिए प्रोग्रामर की नौकरी ऑफर की।
जब मिला विदेश जाने का ऑफर
प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। वहां पहली सैलरी के रूप में उन्हें 500 रुपए मिले। कुछ साल काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया। वो भारत में ही अपना कारोबार शुरू करना चाहते थे। उस समय अमित की उम्र 21 साल थी।
शुरू की अपनी नौकरी
अब अमित के मन में अपना कुछ करना का प्लान चला रहा था इसीलिए उन्होंने जॉब छोड़ दी। कुछ हजार रुपए की बचत से दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराए पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी आइसॉफ्ट शुरू की। कुछ महीनों तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट नहीं मिला था। गुजारे के लिए वे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात 8 बजे तक पढ़ते और फिर रात भर बैठ कर सॉफ्टवेयर बनाते। मेहनत और लगन रंग लाई और धीरे-धीरे उन्हें प्रोजेक्ट मिलने लगे।
लैपटॉप नहीं था कंप्यूटर ले गए साथ
अमित को अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए 5000 रुपए मिले। यहाँ से अमित का संघर्ष दिखा जब उनके पास लैपटॉप खरीदने के भी पैसे नहीं थे लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी उन्होंने क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाने लगा। इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया। 2006 में उन्हें ऑस्ट्रेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला।
चले गए विदेश और बने 150 करोड़ के मालिक
इस अवसर ने उन्हें इंटरनेशनल एक्सपोजर दिया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया। आइसॉफ्ट सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी की तरक्की शुरू हो चुकी थी। आज उसने ऐेसे मुकाम को छू लिया, जहां वह हजारों कर्मचारियों और दुनिया भर में सैकड़ों क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है। इतना ही नहीं 150 करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर की इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थित हैं।
पिता के नाम पर खोला कॉलेज
अमित को अपने राज्य बिहार में शिक्षा के अवसरों की कमी का अहसास भी था। साल 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने फारबिसगंज में उनके नाम पर एक कॉलेज खोला। कॉलेज का नाम मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखने वाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था।