प्रधानमंत्री बनने के लिए महत्वकांक्षा है न योग्यता। सुनने में थोड़ा विचित्र लगेगा कि मैं 2019 में प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं हूं। यह बयान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है। उन्होंने कहा कि लोगों को जिस व्यक्ति में क्षमता नज़र आ जाएगी, वो प्रधानमंत्री बन जाएगा। लोगों ने पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी में यह बात देखी और वे प्रधानमंत्री बन गए। उसके पांच साल पहले तक प्रधानमंत्री मोदी फ्रेम में भी नहीं थे। नीतीश कुमार ने साफ कह दिया कि वे मूर्ख नहीं हैं कि इस दौड़ में शामिल होंगे।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस बयान की मीमांसा होगी। एक मीमांसा उनके बीजेपी में जाने को लेकर होगी, जो कई महीनों से चल रही है। अभी तक गए नहीं हैं। एक मीमांसा इस बात को लेकर होगी कि नीतीश प्रधानमंत्री मोदी से पंगा लेकर अपनी हालत अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसी नहीं करना चाहते हैं। ये दोनों ही बातें पुरानी हो चुकी हैं। राजद नेता लालू यादव के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का जब फ़ैसला आया तब रामविलास पासवान से लेकर सुशील मोदी तक बीजेपी में आने का न्यौता भी देने लगे। इन सबके बीच नीतीश राष्ट्रपति चुनावों को लेकर विपक्षी एकता बनाते भी दिखे और बीजेपी को काउंटर करने के लिए राजनीति क पहल करते हुए भी। उनके बीजेपी में जाने की अटकलों को लेकर एक असर यह हुआ है कि अब कोई उन्हें 2013 और 2015 के नीतीश कुमार के रूप में नहीं देखता जब वे प्रधानमंत्री मोदी के धुर विरोधी नेता के रूप में देखे जाते थे।
मेरे हिसाब से नीतीश ने यह बयान देकर ठीक ही किया है। नेता को अपनी संभावनाओं और सीमाओं पर बराबर नज़र रखनी चाहिए। नीतीश एक काबिल नेता है, उन्होंने राजनीतिक दांव चल कर लालू से हाथ मिलाया और प्रधानमंत्री मोदी को बिहार के मैदान में हरा दिया। प्रधानमंत्री मोदी सवा लाख करोड़ का वादा आज तक पूरा नहीं कर सके लेकिन नीतीश ने उन्हें 2015 में पारी की हार से मात देकर बता दिया कि उनके पास भले ही मीडिया नहीं था, संसाधन नहीं था मगर वे अपनी सीमित राजनीतिक संसाधनों के दम पर अमित शाह के नेतृत्व वाली जुझारू भाजपा को हरा सकते हैं। सो नीतीश और लालू ने हरा दिया। अगर विपक्ष को ज़रूरत होगी तो वो आगे आकर नीतीश से गुज़ारिश करेगा कि आप नेतृत्व कीजिए। नीतीश ख़ुद से ये काम क्यों करें?
वैसे भी राजनीति में हिसाब एक बार ही चुकाना चाहिए। बार बार किसी एक को हराने की ज़िद किसी नेता को हाशिये पर भी ला सकती है क्योंकि इस लड़ाई में ऊर्जा बहुत बर्बाद होती है। इतनी ऊर्जा न तो जदयू के नेताओं में बची होगी और न ही पार्टी के पास इतने संसाधन होंगे। भाजपा से हराने के लिए संसाधन भी चाहिए, जिसमें से एक असंभव संसाधन है मीडिया। जो अब भाजपा के अलावा किसी का नहीं है। कोई नेता इस मीडिया को लेकर अपना समय बर्बाद करना चाहता है तो उसे मुबारक। वो टीवी पर जा सकता है डिबेट में। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह फ़ैसला बिल्कुल सही है कि उनका जनादेश बिहार के लिए है। उन्हें वाकई बिहार पर ध्यान देना चाहिए और अपने काम के आधार पर 2019 में प्रदर्शन बेहतर करना चाहिए। आसान तो नहीं होगा मगर फिर भी नीतीश और लालू की टीम बिहार में ही अपना प्रदर्शन बेहतर कर ले तो काफी होगा। है। इसके लिए नीतीश कुमार को 2019 के बाद की राजनीति में बने रहने की इच्छाशक्ति का भी प्रदर्शन करना होगा। उनकी चुनौतियां प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो जाने से समाप्त नहीं हो जाती हैं। बीजेपी ने नहीं कहा है कि वह 2019 और 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार को हराने की कोशिश नहीं करेगी। भाजपा मान कर चल रही होगी कि 2020 उसका होगा। बीजेपी भी सोचेगी कि बिहार की जनता शायद चौथी बार नीतीश कुमार को पसंद न करे और वो इस बार पहले से भी ज़्यादा आक्रामक होगी। जिस तरह से उड़ीसा में बीजेपी नवीन पटनायक के ख़िलाफ़ आक्रामक हो गई है।
अब सवाल उठता है कि क्या नीतीश अपनी या अपनी पार्टी की राजनीति को 2019 से आगे ले जाने के लिए कोई तैयारी कर रहे हैं? आप प्रधानमंत्री पद की दौड़ में रहे या न रहें लेकिन आपकी पार्टी का वजूद तो दांव पर रहेगा ही। क्या नीतीश बिहार के भीतर 2019 में भाजपा का रथ रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे? उनकी ज़रा सी ढिलाई उनकी पूरी पार्टी के वजूद को संकट में डाल देगी। 2019 के बाद नेताओं का भाजपा में पलायन होने लगेगा। यह सहयोगी भाजपा का दौर नहीं है, यह आक्रामक भाजपा का दौर है। जिसे भी दोयम दर्जे की राजनैतिक हैसियत मंज़ूर है, उसका भाजपा में स्वागत है। आज भाजपा में जो भी गया है वो दोयम दर्जे की हैसियत से ही बना हुआ है। मैंने जितना नीतीश कुमार को दूर से समझा है,उससे यही लगा है कि यह नेता हर हाल में अपनी स्वायत्ता बनाए रखना चाहता है। दरअसल नेता वही होता है जो अपनी स्वायत्तता के घेरे को पहचानता हो। उसे पूरी ज़िंदगी सींचता हो। उसमें पेड़ पौधे लगाता हो। उसके लिए स्वायत्तता घर के बाहर का बागीचा है। यही कारण है कि लालू के साथ उनका गठबंधन बना हुआ है। मीडिया में हर दिन टूट जाने वाला यह गठबंधन दोनों नेताओं को ग़ज़ब का राजनीतिक प्रशिक्षण दे रहा है। दोनों उसी हद तक आगे बढ़ते हैं जिस हद तक तार न टूटे।
2019 और उसके बाद का हर दिन नीतीश कुमार के लिए बड़ी चुनौतियों का साल होगा। वे चौथी बार बिहार की जनता के सामने होंगे। 2019 की जीत के बाद भाजपा फिर से उनकी पार्टी में जीतन राम मांझी पैदा करने लगेगी। आए दिन पलायन होने लगेगा। इस बीच उन्हें बिहार में अपने काम को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। उन्हें इस बार कुछ ऐसी उपलब्धियां हासिल करनी होगी जिसकी कल्पना बिहार के मतदाता ने नहीं की होगी। क्या नीतीश कुमार में ऐसी ज़िद और ऊर्जा बची हुई है? क्या वे अपनी पार्टी को युवा नेताओं से लैस कर रहे हैं, जो वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध हों, नए हों और भाजपा की टीम से लड़ने के लिए आक्रामक हों। बीजेपी ने राजनीति का एक नियम तो बदल दिया है। ढीला ढाला होकर आप उससे नहीं लड़ सकते। जो मैदान में बिना तैयारी के आएगा, उसे मैदान से पहले मीडिया के मैदान में ही हरा दिया जाएगा।
दिल्ली में बैठकर राजनीतिक चर्चाकार विचारधारा को बहुत महत्व देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के हर विरोधी को विचारधारा की कसौटी पर कसते हैं जबकि राजनीति के भीतर झांककर देखिये तो विचारधारा को लेकर कम ही लोग प्रतिबद्ध नज़र आते हैं। उस घेरे में मौजूद नेता अपने स्वार्थों से आगे देख नहीं पाते हैं। उनके लिए आज भर किसी तरह सुरक्षित जगह पर बने रहना ही अहम होता है न कि कल की तैयारी के लिए त्याग की तत्परता। इसलिए राजनीति को एक हद के बाद व्यावहारिकता के आधार पर ही देखना चाहिए।
नीतीश कुमार ने खुद को दावेदारी से क्यों हटाया, इस सवाल पर सोचा जा सकता है। क्या वे कांग्रेस की लचर प्रवृत्तियों से दुखी हैं, 2014 से 2017 आ गया लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर न तो कांग्रेस सक्षम दिख रही है न ही उसने विपक्ष के किसी मोर्चे का खाका तैयार किया है। चुनाव से तीन महीने पहले बना हुआ कोई भी मोर्चा प्रधानमंत्री मोदी के सामने टिक नहीं सकेगा, हराने की बात तो दूर है। ममता बनर्जी से लेकर नवीन पटनायक तक सब अपने अपने गढ़ में मस्त हैं। किसी में राष्ट्रीय राजनीति में विकल्प देने की बेचैनी नहीं दिखती है जितनी नीतीश कुमार में दिखती हैं। इन दलों का आचरण भी राष्ट्रीय राजनीति के लिए अनुकूल नहीं दिखता है। सारा भार अकेले नीतीश पर डालना ठीक नहीं रहेगा।
इस वक्त भारत के विपक्ष को आराम से आलसी कहा जा सकता है। वो अपने स्वार्थों में धंसा है। अपने पूर्व के घोटालों को बचाने में लगा है। इसलिए कोई आराम से तो कोई रो गा कर भाजपा में जा रहा है। ऐसे नेताओं के दम पर भाजपा से लोहा लेना मुश्किल है। तीन साल में विपक्ष ने अपने अंतर्विरोधों को नहीं सुलझाया। अपनी कमियों को दूर नहीं किया। उसके पास सुधार कर नैतिक शक्ति हासिल करने का वक्त था, जो गंवा दिया। यह मौका राहुल गांधी भी चूक गए और प्रकाश करात भी चूक गए। विपक्ष का काम राष्ट्रपति के यहां ज्ञापन देना रह गया है। उनके यहां न तो कोई नया नेता आया है न ही कोई नया प्रवक्ता। हर दल अपने यहां रिजेक्टेड नेताओं को ढो रहा है। ऐसे विपक्ष का नेतृत्व करने से ख़ुद को अलग कर नीतीश कुमार ने ठीक काम किया है।
2014 की तरह 2019 में भी प्रधानमंत्री मोदी के सामने इस पद को लेकर कोई सीधा दावेदार नहीं होगा। मोदी और शाह की भाजपा कभी हिट विकेट आउट नहीं होगी। विपक्ष उनकी आक्रामकता से मानसिक रूप से हार गया है। वो डरा हुआ है। उसमें लड़ने की शक्ति नहीं है। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता मगर आप विपक्ष के खेमे के नेताओं से मिलिये, उनके चेहरे पर भाजपा के खा जाने का भय तैरता रहता है। 2019 को लेकर जनता सिर्फ भाजपा के बारे में नहीं सोच रही है। वो चाहती है कि देश में एक मज़बूत विपक्ष रहे। राजनीति में शक्ति संतुलन होना चाहिए। वह भाजपा का विकल्प नहीं खोज रही है लेकिन जितना लोगों से मिलता हूं उससे यही लगता है कि जनता एक मज़बूत विपक्ष को खोज रही है, अब विपक्ष राष्ट्रपति भवन के अहाते से आगे नहीं जाना चाहता है तो इसमें जनता का क्या दोष है।
अब एक सवाल और है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री की दौड़ से हटने के बाद क्या कांग्रेस राहुल गांधी को दावेदार के रूप में पेश करेगी, क्या यह काम आसान हो गया है, इस पर फिर कभी। जब मूड होगा।