दो अधिराज्यों के निर्माण के बावजूद 22 अक्टूबर 1947 को समूचे जम्मू-कश्मीर राज्य में ‘काला दिवस’ मनाया गया।
जगह-जगह सेमिनार, गोष्ठी व रैलियां हुई, ताकि दुनिया जान सके कि पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों ने बर्बरता की सारी हदें पहले ही विश्वासधात में पार कर दी हैं।
दरअसल, 22 अक्टूबर 1947 भारतीय इतिहास में वह काला दिन था, जिसमें और जिसके बाद धर्मांध हिंसा, बलात्कार और नरसंहार की दिल दहला देनेवाली साजिशें पाकिस्तान द्वारा रची गईं थी।
इसके जवाब में स्थानीय कश्मीरियों ने भारतीय फौज के कंधे-से-कंधा मिलाकर जिस जीवटता और साहसिकता की दास्तां लिखी, वह भी काबिलेतारीफ थी।
हुआ यूं था कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के साथ किए गए यथास्थिति समझौते का उल्लंधन करते हुए पाक सेना ने 22 अक्टूबर 1947 को कबाइलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर पर अचानक हमला बोल दिया।
उसकी कुदृष्टि कश्मीर पर पूर्ववत थी ही। वह महाराजा हरिसिंह की कमजोरी भांपकर उसे हड़पना चाहता था।
आजादी के महज 67 दिन बाद उसने पहला विश्वासधात किया और कपटनीति का खुल्लम-खुल्ला प्रमाण भी दे दिया।
इस प्रकार कबाइली हमले से पुंछ का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में चला गया।
दो दिन बाद 24 अक्टूबर को कबाइली और पाकिस्तानी सैनिक बारामूला तक पहुंच गए।
बारामूला में उन्होंने भयावह रक्तपात और महिलाओं के साथ दुराचार कर जम्मू की ओर रुख किया।
इससे महाराजा हरिसिंह सदमें में आ गए। कारण कि महाराजा के पास जो अदनी-सी राजशाही सेना थी, वह कबाइलियों से लड़ने के लिए नाकाफी थी।
वह निश्चय ही, छोटे-से बल से कबीलाई आतताइयों का मुकाबला करने में अपने-आप को असमर्थ पा रहे थे। फलतः वे श्रीनगर छोड़कर अगले दिन जम्मू कूच कर गए।
अब, वे मरता क्या न करता के तर्ज पर अपने प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के हाथों विलयपत्र भारत सरकार के पास दिल्ली भिजवाए।
प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन
प्रधानमंत्री-जस्टिस मेहरचंद महाजन का जन्म 23 दिसंबर 1889 को पंजाब प्रांत के कांगड़ा-अब हिमाचल प्रदेश में हुआ था। स्वतंत्रतापूर्व वे पंजाब हाईकोर्ट में न्यायाधीश नियुक्त हुए थे।
बंटवारे के दौरान वे रेडक्लिफ कमीशन के सदस्य भी थे और पंजाब के सीमांत गुरदासपुर जिले को भारत में मिलाने मेें सफलता हासिल किए थे।
15 अक्टूबर 1947 को वे जम्मू-कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री बने थे।
इसी दौरान जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए महाराजा हरी सिंह को राजी करने में महत्वूपर्ण भूमिका निभाने में सफल हुए।
1954 में वे सुप्रीमकोर्ट के तीसरे चीफ जस्टिस बने। 5 अप्रेल 1967 को उनका देहांत हो गया
विलयपत्र पर हस्ताक्षर
कहा जाता है कि विषम परिस्थितियां देखकर महाराजा हरिसिंह ने अपने प्रधानमंत्री से व्याकुलता से कहा था कि अगर दिल्ली से कोई सकारात्मक संदेश न मिला और भारत विलय के लिए न माना, तो उन्हें गोली मार दिया जाए।
लेकिन, भारत को इसी पल का बेसब्री से इंतजार था; क्योंकि कश्मीर के भारत संघ में विलय के बिना भारत अपनी फौज कश्मीर में इसलिए नहीं भेज सकता था कि कश्मीर को यह आजादी दी गई थी कि वह आजाद रहे या फिर भारत या पाक में अपना विलय कर ले।
26 अक्टूबर 1947 को भारत को महाराजा हरिसिंह का विलयपत्र इंस्ट्रूमेंट आफ एक्सेसन (आइओए) हस्ताक्षित मिला।
ब्रिटेन के अंतिम वायसराय और भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने इसे 27 अक्टूबर 1947 को स्वीकार किया।
तभी, भारतीय फौज को कश्मीर कूच करने का आदेश दिया गया। विलयपत्र पर हस्ताक्षर करने के दौरान लार्ड माउंटबेटन ने कहा कि यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही जम्मू-कश्मीर की कानून-व्यवस्था दुरुस्त होगी; वहां की जमीन से घुसपैठिये बाहर खदेड़ दिए जाएंगे; वैसे ही आवाम की भावनानुसार राज्य का विलय सुनिश्चित किया जाएगा।
परंतु, महाराजा हरिसिंह के विलयपत्र में हस्ताक्षर करने की देरी जम्मू-कश्मीर और भारत के लिए भारी पड़ गई।
भारत सरकार का सुस्पष्ट मत था कि पहले महाराजा हरिसिंह विलयपत्र पर हस्ताक्षर करें, तभी भारतीय फौज जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करेगी, उसके पहले नहीं। हुआ भी यही।
विलयपत्र में हस्ताक्षर के बाद भारतीय फौजियों को एयरलिफ्ट कर पाक अधिकृत कश्मीर में उतारा गया। थलसेना जमीनी कार्रवाई के लिए मोर्चा संभाली। तब, कश्मीर की स्थिति को पंडित नेहरू देख रहे थे।
पं. नेहरू ने तत्कालीन पाकिस्तानी समकक्ष लियाकत अली खान को नाराजगी जताते हुए पत्र लिखा कि कबाइलियों को पाकिस्तानी सेना रोके।
उन्हें कश्मीर से वापस बुला ले। लेकिन, लियाकत अली खान ने उलटे भारत पर जम्मू-कश्मीर हथियाने का आरोप मढ़ दिया। जबकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विधिवत विलय महाराजा हरिसिंह ने किया था।
इतिहासकारों का मत है कि 23 सितंबर 1947 को सरदार पटेल ने नेहरू को जम्मू कश्मीर को भारत में मिलाने के लिए उचित कदम उठाने की सलाह भी दी थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरांत 24 अक्टूबर 1945 को यूएन का गठन हुआ था।
पं. नेहरू और लार्ड मांउटबेटन इस वैश्विक व्यवस्था से बेतरह प्रभावित थे। जब पाकिस्तान की ओर से धमकीभरा पत्र मिला, तब पं. नेहरू का माथा ठनका।
लिहाजा, मामले को 1 जनवरी 1948 को यूएनएससी में ले जाया गया।
यूएनएससी ने 21 अपै्रल 1948 को प्रस्ताव पारित किया, जिसमें यथास्थिति कायम रखना, युद्धविराम व पाकिस्तानी सेना हटाना मुख्य था।
नवंबर 1948 में दोनों देश यूएन के आग्रह पर जनमत संग्रह के लिए राजी हुए।
लेकिन, भारत सरकार ने शर्त रखी कि पाकिस्तान पहले पीओके से अपनी सेना हटाए; यथास्थिति कायम करे; तभी जनमत संग्रह की जाएगी।
इसके उपरांत 1 जनवरी 1949 को संघर्षविराम घोषित हुआ।
आशय यह कि पाकिस्तान की कपटनीति और भारत की नासमझी की वजह से कश्मीर का 13,300 वर्गकिमी क्षेत्र पाक के हिस्से में रह गया।
यह कश्मीर का लगभग एक-तिहाई भूभाग है। 1949 में पाक ने इसे दो हिस्सों में बांट दिया।
एक को तथाकथित आजाद कश्मीर कहा, दूसरे को फेडरली एडमिनिस्टर्ड नार्दर्न एरियाज।
वर्तमान में इसके 8 जिले और 19 तहसीलें हैं। इसकी राजधानी मुजफ्फराबाद है।
साल 1950 में महाराजा के पुत्र युवराज कर्णसिंह को जम्मू-कश्मीर का प्रतिशासक-रीजेंट बनाया गया।
17 अक्टूबर 1952 को आनुवंशिक शासन का अंत कर उन्हें जम्मू-कश्मीर का सदर-ए-रियासत नियुक्त किया गया।
26 अप्रैल को महाराजा हरिसिंह की मृत्यु मंुबई में हो गई। कर्णसिंह को महाराजा के रूप में मान्यता दी गई, लेकिन उन्होंने इस उपाधि का उपयोग नहीं किया।
--00--
पुस्तक का सातवां अध्याय पढ़ने के लिए दिल से धन्यवाद। कृपया फालो कीजिए, समीक्षा लिखिए और लाइक, कमेंट व शेयर करने का कष्ट करिए।
अगले अध्याय में पढ़िए आपरेशन गुलमर्ग, मुस्लिम कांफ्रेस उर्फ नेशनल कांफ्रेस और रेडक्लिफ सीमा रेखा के बारे में।