आपरेशन गुलमर्ग
जम्मू-कश्मीर जिस तरह की हिंसा, अलगाववाद, आतंकवाद और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से गुजर रहा था, उसके बीज 22 अक्टूबर 1947 को ‘आपरेशन गुलमर्ग’ के माध्यम से पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने बो दिए गए थे।
उन्होंने अपने द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत को प्रखर करने के लिए ही भारत के खिलाफ साजिशें रचीं थी, जिसको महाराजा हरिसिंह की जरा-सी देरी ने भारत के लिए नासूर बना दिया, जिसका दंश भारत आज तक झेल रहा है।
जब जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने निर्णय लिया कि वे जम्मू-कश्मीर का विलय पाकिस्तान के बजाय भारत में करना चाहते हैं, तब पाकिस्तानी सेना ने ‘आपरेशन गुलमर्ग’ चला दिया था।
उन्हें पहले से अंदेशा था कि महाराजा हरिसिंह हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान की ओर जा सकते हैं।
इसलिए वे गोपनीय ढंग से आपरेशन की तैयारी में महीनों से जुटे हुए थे।
इस साजिश में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के मुख्यमंत्री, लीगी नेता और सैन्य आलाधिकारी सम्मिलित थे।
यहां तक कि कायदेआजम से इस आपरेशन की स्वीकृति मिल चुकी थी।
हमलावरों व जिहादियों की भरतियां उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में की गई थी, जिसका नेतृत्व मेजर खुर्शीद अनवर ने किया था।
इसका केंद्र रावलपिंडी था। हमलावरों को लूटखसोट और दुराचार की छूट का लालच दिया गया था।
इसके लिए परिवहन, ईंधन, हथियार व राशन की पूर्ति पाकिस्तानी सरकार ने की थी।
मशीनगन, मोर्टार, माइंस, सिग्नल के उपकरण, वायरलेस सेट, रेडियो संदेश वही थे, जिसका उपयोग संयुक्त भारत की सेना किया करती थी।
यहां तक कि आजादी के बाद पाकिस्तानी सरकार ने पीओके, पश्चिमी पंजाब व जम्मू-कश्मीर में तेल, नमक, चीनी, कपड़े, राशन आदि रोजमर्रा की चीजें लोगों को तड़पाने के लिए रोक दी थी।
पोस्टल सेवा, बैंकिंग लेनदेन, चेक भुगतान तक बाधित कर लोगांे को भूखों मरने के लिए विवश कर दिया था।
मुस्लिम कांफ्रेस उर्फ नेशनल कांफ्रेस
इसी दौरान मुस्लिम कांफ्रेंस जम्मू-कश्मीर रियासत में तेजी से उभरा। इसके प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला ने लाहौर, अलीगढ़ समेत अन्य राज्यों से संपर्कों का और जवाहर लाल नेहरू से अपने राजनीतिक रिश्तों का भरपूर इस्तेमाल किया।
भारतीय उपमहाद्वीप में बदलते घटनाक्रम के दृष्टिगत शेख अब्दुल्ला ने गैरमुस्लिमों को जोड़ने के लिए अपने संगठन का नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस कर दिया।
वे अनुच्छेद 370 की बदौलत बरसों तक इस राज्य के प्रधानमंत्री रहे।
उनके बाद उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला भी सत्तारूढ़ रहे।
रेडक्लिफ सीमा रेखा
17 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान को बांटनेवाली रेडक्लिफ रेखा वजूद में आकर अतंरराष्ट्रीय सीमा बन गई थी।
भारत-पाकिस्तान सीमा रेखा के निर्धारण में ब्रिटिश आर्किटेक्ट सर सिरिल रेडक्लिफ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, इसलिए इसका नाम रेडक्लिफ रेखा रखा गया।
यह रेखा भारत-पाकिस्तान व भारत-बांग्लादेश को अलग करती है।
इस रेखा के निर्धारण के दरमियान बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान था।
16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश स्वतंत्र देश बनने के बाद रेडक्लिफ रेखा भारत और बांग्लादेश की सीमा रेखा बन गई।
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अगले अध्याय में पढ़िए अनुच्छेद 370 व 35ए के सबंध में। यह क्या था?