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पंचवटी (भाग 2)

13 अप्रैल 2022

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सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,

अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!

अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,

पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,

वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।

अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।

किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।

कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;

पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

मझली माँ ने क्या समझा था, कि मैं राजमाता हूँगी,

निर्वासित कर आर्य राम को, अपनी जड़ें जमा लूँगी।

चित्रकूट में किन्तु उसे ही, देख स्वयं करुणा थकती,

उसे देखते थे सब, वह थी, निज को ही न देख सकती॥

अहो! राजमातृत्व यही था, हुए भरत भी सब त्यागी।

पर सौ सो सम्राटों से भी, हैं सचमुच वे बड़भागी।

एक राज्य का मूढ़ जगत ने, कितना महा मूल्य रक्खा,

हमको तो मानो वन में ही, है विश्वानुकूल रक्खा॥

होता यदि राजत्व मात्र ही, लक्ष्य हमारे जीवन का,

तो क्यों अपने पूर्वज उसको, छोड़ मार्ग लेते वन का?

परिवर्तन ही यदि उन्नति है, तो हम बढ़ते जाते हैं,

किन्तु मुझे तो सीधे-सच्चे, पूर्व-भाव ही भाते हैं॥

जो हो, जहाँ आर्य रहते हैं, वहीं राज्य वे करते हैं,

उनके शासन में वनचारी, सब स्वच्छन्द विहरते हैं।

रखते हैं सयत्न हम पुर में, जिन्हें पींजरों में कर बन्द;

वे पशु-पक्षी भाभी से हैं, हिले यहाँ स्वयमपि, सानन्द!

करते हैं हम पतित जनों में, बहुधा पशुता का आरोप;

करता है पशु वर्ग किन्तु क्या, निज निसर्ग नियमों का लोप?

मैं मनुष्यता को सुरत्व की, जननी भी कह सकता हूँ,

किन्तु पतित को पशु कहना भी, कभी नहीं सह सकता हूँ॥

आ आकर विचित्र पशु-पक्षी, यहाँ बिताते दोपहरी,

भाभी भोजन देतीं उनको, पंचवटी छाया गहरी।

चारु चपल बालक ज्यों मिलकर, माँ को घेर खिझाते हैं,

खेल-खिलाकर भी आर्य्या को, वे सब यहाँ रिझाते हैं!

गोदावरी नदी का तट यह, ताल दे रहा है अब भी,

चंचल-जल कल-कल कर मानो, तान दे रहा है अब भी!

नाच रहे हैं अब भी पत्ते, मन-से सुमन महकते हैं,

चन्द्र और नक्षत्र ललककर, लालच भरे लहकते हैं॥

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रचनाएँ
पंचवटी
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सन्दर्भ- प्रस्तुत पद 'हिन्दी काव्य' में संकलित एवं मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित खण्डकाव्य 'पंचवटी' से लिया गया है। प्रसंग- यहाँ कवि ने पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है। व्याख्या- गुप्त जी कहते हैं कि सुन्दर चन्द्रमा की किरणें जल और थल में फैली हुई हैं। पृथ्वी और आकाश में स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है।
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पंचवटी (भाग 1)

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पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को। उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?" विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥" स

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पंचवटी (भाग 2)

13 अप्रैल 2022
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सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है, अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है! अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है, पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह व

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पंचवटी (भाग 3)

13 अप्रैल 2022
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वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं, नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं। बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥

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पंचवटी (भाग 4)

13 अप्रैल 2022
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यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ, जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ। जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह, पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥ नहीं जा

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पंचवटी (भाग 5)

13 अप्रैल 2022
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पर मैं ही यदि परनारी से, पहले संभाषण करता, तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता। जो हो, पर मेरे बारे में, बात तुम्हारी सच्ची है, चण्डि, क्या कहूँ, तुमसे, मेरी, ममता कितनी कच्ची है॥ माता,

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