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पंचवटी (भाग 3)

13 अप्रैल 2022

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वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं,

नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं।

बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है

मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥

आँखों के आगे हरियाली, रहती है हर घड़ी यहाँ,

जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती, है झरनों की झड़ी यहाँ।

वन की एक एक हिमकणिका, जैसी सरस और शुचि है,

क्या सौ-सौ नागरिक जनों की, वैसी विमल रम्य रुचि है?

मुनियों का सत्संग यहाँ है, जिन्हें हुआ है तत्व-ज्ञान,

सुनने को मिलते हैं उनसे, नित्य नये अनुपम आख्यान।

जितने कष्ट-कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,

गौरव गन्ध उन्हें उतना ही, अत्र तत्र सर्वत्र मिला।

शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं, शुक-सारी भी आश्रम के,

मुनि कन्याएँ यश गाती हैं, क्या ही पुण्य-पराक्रम के।

अहा! आर्य्य के विपिन राज्य में, सुखपूर्वक सब जीते हैं,

सिंह और मृग एक घाट पर, आकर पानी पीते हैं।

गुह, निषाद, शवरों तक का मन, रखते हैं प्रभु कानन में,

क्या ही सरल वचन रहते हैं, इनके भोले आनन में!

इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी,

इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी॥

कभी विपिन में हमें व्यंजन का, पड़ता नहीं प्रयोजन है,

निर्मल जल मधु कन्द, मूल, फल-आयोजनमय भोजन हैं।

मनःप्रसाद चाहिए केवल, क्या कुटीर फिर क्या प्रासाद?

भाभी का आह्लाद अतुल है, मँझली माँ का विपुल विषाद!

अपने पौधों में जब भाभी, भर-भर पानी देती हैं,

खुरपी लेकर आप निरातीं, जब वे अपनी खेती हैं,

पाती हैं तब कितना गौरव, कितना सुख, कितना सन्तोष!

स्वावलम्ब की एक झलक पर, न्योछावर कुबेर का कोष॥

सांसारिकता में मिलती है, यहाँ निराली निस्पृहता,

अत्रि और अनुसूया की-सी होगी कहाँ पुण्य-गृहता!

मानो है यह भुवन भिन्न ही, कृतिमता का काम नहीं;

प्रकृति अधिष्ठात्री है इसकी, कहीं विकृति का नाम नहीं॥

स्वजनों की चिन्ता है हमको, होगा उन्हें हमारा सोच,

यही एक इस विपिन-वास में, दोनों ओर रहा संकोच।

सब सह सकता है, परोक्ष ही, कभी नहीं सह सकता प्रेम,

बस, प्रत्यक्ष भाव में उसका, रक्षित-सा रहता है क्षेम॥

इच्छा होती है स्वजनों को, एक बार वन ले आऊँ,

और यहाँ की अनुपम महिमा, उन्हें घुमाकर दिखलाऊँ।

विस्मित होंगे देख आर्य्य को, वे घर की ही भाँति प्रसन्न,

मानों वन-विहार में रत हैं, वे वैसे ही श्रीसम्पन्न॥

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रचनाएँ
पंचवटी
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सन्दर्भ- प्रस्तुत पद 'हिन्दी काव्य' में संकलित एवं मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित खण्डकाव्य 'पंचवटी' से लिया गया है। प्रसंग- यहाँ कवि ने पंचवटी के प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव चित्रण किया है। व्याख्या- गुप्त जी कहते हैं कि सुन्दर चन्द्रमा की किरणें जल और थल में फैली हुई हैं। पृथ्वी और आकाश में स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है।
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पंचवटी (भाग 1)

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पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को, चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को। उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?" विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥" स

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पंचवटी (भाग 2)

13 अप्रैल 2022
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सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है, अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है! अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है, पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह व

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पंचवटी (भाग 3)

13 अप्रैल 2022
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वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं, नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं। बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥

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पंचवटी (भाग 4)

13 अप्रैल 2022
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यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ, जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ। जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह, पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥ नहीं जा

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पंचवटी (भाग 5)

13 अप्रैल 2022
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पर मैं ही यदि परनारी से, पहले संभाषण करता, तो छिन जाती आज कदाचित् पुरुषों की सुधर्मपरता। जो हो, पर मेरे बारे में, बात तुम्हारी सच्ची है, चण्डि, क्या कहूँ, तुमसे, मेरी, ममता कितनी कच्ची है॥ माता,

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