शाम का समय,
खेत से लौटते पशुओं की आवाज़ और अस्ताचल को जा रहे सूर्य की लालिमा के बीच इस उदासीन और शांत परिवेश को चीरती हुई एक मोहित करने वाली बांसुरी की आवाज़.....
एक छोटे से घर, घर नहीं उसे एक कमरा कह सकते हैं, उसके ठीक बाहर एक चबूतरा बना हुआ है और उस चबूतरे पर बैठे हैं यही कुछ पैंसठ-छाछठ की उम्र के भगत जी। गोरा रंग, लम्बी कद,बर्फ से सफेद बाल, चेहरे पर जीवन के अनुभव और संघर्षों को दिखाती हुई अनेक रेखाएं और सफेद धोती, किंतु चेहरे पर गजब का तेज।
वैसे तो भगत जी का नाम प्यारेलाल था,पर लोग उन्हें भगत जी ही कहते। गांव के बच्चे-बच्चे की जुबान पर भगत जी का नाम रहता।
सुबह के समय व्यायाम सीखना हो या पढ़ाई में कठिन प्रश्नों को हल करना हो, खेल कर थकने पर भगत जी से बताशे मांग कर खाना हो या शाम को उनसे संगीत सीखना। बच्चों का दिन भर वहां आना- जाना लगा रहता था।
वैसे तो भगत जी इस गांव में कब आए थे,इसका तो कम ही लोगों को अनुमान था। कुछ बुजुर्ग बताते कि यहीं कोई पचपन-छप्पन साल पहले वो यहां आए थे।
पर वो थे कौन?
यह जानने के लिए आइए चलते हैं दूसरे अध्याय में.......