क्या सोमवार को युद्धकामी एंकर और चैनल ग़रीबी, कुपोषण, बेरोज़गारी और शिशु मृत्यु दर के आंकड़े निकाल कर प्राइम टाइम में बहस करेंगे? अगर भारत और पाकिस्तान के बीच इन बातों पर युद्ध करना होगा तो युद्धकामी एंकरों को कुपोषण और ग़रीबी पर बहस करने के लिए उन्हीं लोगों को बुलाना होगा जिन्हें वे दिन रात बददुआएं देते रहते हैं। जिन्हें एनजीओ टाइप बताकर पाकिस्तान के प्रेमी बताते हैं। मैं प्रधानमंत्री के भाषण से खुश भी हूं। यह सोचकर हँसी भी आ रही है कि पाकिस्तान से हर तरह के संबंध तोड़ लेने वाले ज्ञान ी क्या सोच रहे होंगे।जिन एंकरों ने ज़माने से ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसे बुनियादी सवालों को छेड़ दिया था,क्या वे सेवानिवृत हो चुके चंद जनरलों को हटाकर बम की जगह भारत और पाकिस्तान के बीच विकास युद्ध की बात करेंगे? प्रधानमंत्री ने सिर्फ भारत के विकास की बात नहीं की है। उस पाकिस्तान के विकास की भी बात की है जिसे मिट्टी में मिला देने के घंटों कार्यक्रम चलाकर दर्शकों को ठगा गया है।
केरल में जब प्रधानमंत्री ने आतंकवाद पर अपनी पुरानी बातों को दोहराना शुरू किया तो मंच पर उनके सहयोगियों में भी उदासीनता झलक रही थी। लग रहा था कि कब भाषण ख़त्म हो और हम चलें। प्रधानमंत्री भी सोशल मीडिया और मीडिया के बड़े हिस्से के ज़रिये पैदा किये गए कृत्रिम रूप से कथित राष्ट्रीय भावना के ख़िलाफ़ जाकर बोलते हुए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें युद्धकामी भावनाओं और शांति चाहने वालों के बीच संतुलन भी बिठाना था। भाषण देना उनके लिए बायें हाथ का खेल है लेकिन समुद्री तट के किनारे ढलते सूरज के बीच संतुलन बनाने का ऐसा संघर्ष शायद ही उन्हें कभी करना पड़ा होगा। उनके चेहरे से लग रहा था कि वे बोलना तो चाहते बीजेपी नेता की तरह लेकिन बोलना पड़ रहा है प्रधानमंत्री की तरह। वे प्राइम टाइम के युद्धकामी एंकरों और सोशल मीडिया के प्रधानमंत्री नहीं हैं। फिर भी भाषण से पहले चैनलों पर ख़ूब माहौल बनाया गया। उड़ी हमले के बाद पहली बार बोलेंगे प्रधानमंत्री, क्या कड़ा संदेश देंगे प्रधानमंत्री टाइप का सुपर उछाल कर।
प्रधानमंत्री ने जैसे ही युद्ध की चुनौती स्वीकार करने वाली बात कही,कैमरा उनके मंत्री जितेंद्र सिंह पर था। वे खुशी से उछल गए। ताली बजाने लगे। आम कार्यकर्ता भी कुर्सी छोड़ ताली बजाने लगे। उन्हें लगा कि ये हुई न मोदी वाली बात। ये हुई सबके मन की बात। लेकिन चंद सेकेंड के भीतर सब ग़लत साबित हुए। प्रधानमंत्री ने मन की बात नहीं की। मोदी वाली बात नहीं की। प्रधानमंत्री वाली बात कर दी। वे उस युद्ध की बात करने लगे जिसकी बात आजकल कोई नहीं करता है। वैसे ये बात भी पहली बार नहीं कर रहे थे। कई बार कर चुके हैं। आप गूगल कर सकते हैं।
आपको टीवी के बक्से में ग़रीबी और कुपोषण को लेकर भारत पाकिस्तान के बीच होड़ की कल्पना करने वाले कहां दिखते हैं। फिर भी ये चैनल अपनी आदत से बाज़ नहीं आएंगे। ये अब भी ग़रीबी और कुपोषण पर बहस नहीं करेंगे। प्रधानमंत्री का गुणगान करना है तो वे उनके भाषण से उन वाक्यों को चुन लायेंगे कि देखो,धमका दिया प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को। ये होती है ललकार। कड़े शब्दों में हो गई निंदा। जिसका था देश को इंतज़ार। इस टाइप के सुपर चैनलों पर फ्लैश करने लगेंगे।
पाकिस्तान की जनता से बात कर प्रधानमंत्री ने एक बार फिर से उन लोगों की बनाई उस परंपरा का सम्मान किया है जो तमाम युद्धकामी लोगों की गालियां सुनते हुए भारत पाक सीमा पर विवेक की मोबमबत्तियां जलाने जाते हैं। पिछले कई दिनों से व्हाट्स अप, ट्वीटर और टीवी पर ऐसे लोगों को गाली दी जा रही थी। उन्हें पाकिस्तान का दलाल बताया जा रहा था। ऐसे वक्त में मैं पाकिस्तान की जनता से संवाद करने की बात का कायल हो गया। जब कायल हो रहा था तब मैं प्रधानमंत्री के लिए नहीं,कुलदीप नैय्यर जैसे दीवानों के लिए ताली बजा रहा था। मैं इस बुजुर्ग पत्रकार के सम्मान में खड़ा होना चाहता हूं जो अपने लड़खड़ाते कदमों से आज भी आपनी राह चलता है।
उड़ी की घटना के बाद जब युद्ध का एलान नहीं हुआ,देश में उन्माद नहीं फैला,तब चैनलों ने एक दूसरी बहस थाम ली कि भारत आए पाकिस्तानी कलाकारों को भगा देना चाहिए। कई पढ़े लिखे मूर्ख ट्वीट करने लगे। अब ऐसे लोग क्या करेंगे। उनके श्रद्धेय नेता तो पाकिस्तान की जनता से बात करने लगे हैं। आप जब कलाकारों को भगा देंगे तो किसके ज़रिये पाकिस्तान की जनता से बात करेंगे। ये कलाकार भी पाकिस्तान की जनता के ही हिस्से हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की जनता को अपनी लड़ाई का साथी बना लिया है। उनकी इस बात से पाकिस्तानी जनता को आतंकवादी कहने वालों को भी सोचना होगा। प्रधानमंत्री ने बहुत सफाई से पाकिस्तान के हुक्मरान और सेना प्रतिष्ठा को आतंक का प्राध्यापक घोषित कर दिया। उन्हें उनकी जनता की निगाह में अलग-थलग कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान की जनता में अपना विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान की जनता आतंकवाद के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरेगी।
प्रधानमंत्री ने सेना की तारीफ की और कहा कि सेना ने 17 बार घुसपैठ के प्रयासों को विफल किया है। पड़ोसी देश एक घटना में सफल हुआ है। “अगर इन 17 घटनाएओं में वे सफल हो जाते तो देश को कितना तबाह कर देते ये आप अंदाज़ा लगा सकते हैं।” प्रधानमंत्री उड़ी की घटना को एक घटना की चूक मानते हैं। क्या जानकार उनकी इस बात से संतुष्ठ होंगे? जिस एक घटना को लेकर मीडिया क एक हिस्सा अभी नहीं तो कभी नहीं टाइप उत्तेजित था,वो क्या इसे स्वीकार कर लेगा?अगर घुसपैठ की 17 घटनाओं में देश को तबाह करने की क्षमता थी तो फिर भारत क्यों चुप रहा? फिर उड़ी में चूक कैसे हो गई? जानकारों ने उन 17 घटनाओं पर नज़र क्यों नहीं डाली। क्या एंकरों को यह सब नहीं दिखा।
फिलहाल युद्धकामी भावनाएं विश्राम कर सकती हैं। सोशल मीडिया के युद्धवीरों को एक बात समझ लेनी चाहिए। राजनीति उनका इस्तमाल करती है मगर उनके हिसाब से राजनीति नहीं चलती है। इसलिए व्हाट्स अप पर प्रधानमंत्री और मुझे और कुछ पत्रकारों को चूड़ी पहनाकर दिखाने वाले सतर्क रहें। विवेक का इस्तमाल करें। चूड़ी पहनाने का मतलब है बेटी बचाना। बेटी पढ़ाना। हिम्मत हारना नहीं। मैं आज युद्धकामी भावनाओं की हार पर खुश हूं।प्रधानमंत्री ने आज एक युद्ध जीत लिया है। केरल से उन्होंने यही बताया है कि वे शपथ ग्रहण समारोह में नवाज़ शरीफ को बुलाने, उन्हें बधाई देने लाहौर जाने से लेकर पाकिस्तान की जनता का आह्वान करने में अपनी एक राय पर अभी तक कायम हैं। यही कि एकमात्र नहीं तो कम से कम मुख्य रास्ता बातचीत का ही है। इस बार प्रधानमंत्री ने करोड़ों पाकिस्तानियों से बातचीत का एलान किया है। बातचीत की बात करने वालों को प्रधानमंत्री का साधुवाद करना चाहिए।
आज उनके उग्र समर्थक ज़रूर निराश होंगे। फेसबुक और ट्वीटर पर अपने स्टेटस को वे चुपके से डिलीट कर सकते हैं। सर्फ की ख़रीदारी में ही समझदारी है! कुछ बातें ललिता जी से भी सीखी जा सकती हैं। जो लोग एक दांत के बदले जबड़ा निकाल रहे थे वो जबड़े को बचाकर रखें। पाकिस्तान की आवाम से बात करने के लिए बहुत सारे जबड़ों की ज़रूरत होगी। बात होगी तो चाय पानी भी होगा। बिरयानी से लेकर पराठे खाने चबाने के काम आएगा। लाहौर में पनीर के पराठे भी मिलते हैं। पाकिस्तान की जनता सिर्फ बिरयानी नहीं खाती है। चलते चलते चुटकी लेने की आदत से बाज़ नहीं आना चाहता। केरल की धरती से ग़रीबी, कुपोषण और बेरोज़गारी से लड़ने की बात पर कहीं वामपंथ का तो असर तो नहीं हो गया !