जीवन, उस घट में रखे सुधा बिंदु को।
तनिक ठहरो! मैं मंथन तो कर लूं।
प्यासा भी हूं, होंठों पर तो धर लूं।
तुम ठहरो तनिक, मन की अपनी कर लूं।
तुम जीवन, मेरे द्वंद्व पर ऐसे ही मुसकाओगे।
मैं अपनी बात बताऊंगा, तुम अपनी बात बताओगे।।
सत्य है, अब तक पथ पर तीव्र ताप था।
हृदय कुंज में भी व्यर्थ चलता अलाप था।
किंचित पथ पर था नीर, बन उड़ा भाप था।
बतलाया हूं जो तुमको, वही क्रिया-कलाप था।
मैं बांध रहा मन बेड़ी में, तुम नीति के पाठ पढाओगे।
मैं थका-थका सा जो बैठूंगा, तुम चलने को उकसाओगे।।
जीवन, तुम समझो भी तो परिभाषा अपने पन की।
मैं व्याकुल हुआ हूं, समझो व्यथा उलझे मन की।
कहीं पुष्प नहीं खिले, तो क्या हालत हो उपवन की।
नाहक उत्सव करने को उत्सुक हालत हो निर्धन की।
मैं सत्य वचन को बोलूंगा, तुम वेद छंद को गाओगे।
जो तौलने बैठूं अपना कीमत, तुम नाहक हमें डराओगे।।
प्रथम रश्मि को लालायित हो, अंबर को नयनों से देखा।
अंधकार का है अब साम्राज्य, बदला नहीं विधि का लेखा।
मन उदास हो खुरचूं, नहीं बदल रही हाथ की रेखा।
हुआ उद्विग्न हूं अतिशय, पथ के ज्वाला ने सेंका।
मैं जीत-हार में उलझा हूं, तुम व्यर्थ के तीर चलाओगे।
मैं मन को शीतल करने को हूं, तुम अपने ताप बढाओगे।।
जीवन! उस घट में रखे सुधा बिंदु को मंथन तो कर लूं।
अब तक जो थी सही वेदना, मन निर्मल तो कर लूं।
उतार-चढ़ाव के ब्रह्म पाश से, तनिक तो दूरी धर लूं।
अमृत सुधा के बुंदों से, मंजिल तक जाने का वर लूं।
मैं उलझन से बचना चाहूंगा, तुम इसके लाभ जताओगे।
व्यर्थ के देकर उपमानों को, नए उन्माद बढाओगे।।