कनक प्रभा की आभाओं में लिपटा।
जीवन की आशाएँ फिर सींचित हो।
स्वप्न लोक की सजीव हुई भाव भंगिमा।
जीवन्त हुआ फिर स्वर गुंजित हो।
जो ठान लिया मन में, किया कर्म के द्वारा।
मानव वह ,पथ पर नहीं कभी है हारा।।
संशय की गुच्छ लताओं को काट दिया।
वह मानव, तूफानों का रुख वांट दिया।
किंचित नहीं विशेष, नहीं कर्म से चुका।
वेगवान अपने मन को वह डांट दिया।
तूफानी लहरों को लेकर तेज हुई थी धारा।
वह पतवार संभाले था, नहीं कभी है हारा।।
उपमानों की आभाओं से करता रहा बचाव।
पथ पर था तेज धूप, वह नहीं ढूंढता छाव।
जीवन फिर से उर्जित होकर कुसूमित होग।
वह मानव है, मानव नित नहीं छोङता दाँव।
उत्साहित था वह अपने स्वभाव से विधि के द्वारा।
वह मानव मंजिल को बढता, नहीं कभी है हारा।।
वह विशेष नहीं, बस छवि सहेजता खुद का।
लहरों पर नाविक बन है खुद पतवार संभाले।
पीछे रहा उसका काफिला, थे समय देखने बाले।
वह किंचित नहीं देखता, पङा जो हाथों में छाले।
कभी तो नाव किनारे होगा,पीङ मिटेगा सारा।
बनकर मानव ढृढ निश्चई, नहीं कभी है हारा।।
कनक प्रभा की आभाओं से आलोकित होकर।
मानव वह, जीवन पथ पर अधिक तेजवान होगा।
मंजिल तक जाने को हो तत्पर,अधिक वेगवान होगा।
समय बिंदु पर नहीं उलझेगा, नही वेध्यान होगा।
जीत मिलेगा निश्चय ही, वह सस्वर देता नारा।
वह मानव नित धर्म निभाएगा, नहीं कभी है हारा।।