परिधि जीवन के उन्मुक्त भाव का।
सागर सी लहरे भी उठते जाते।
पथिक पथ पर ही-है, होती है बातें।
उन्मत सी फिर है संशय की रातें।
अरी लुभावनी जीवन, तू संग तो आ।
मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।।
माना कि हारे का हरि नाम नियम है।
द्वंद्व का हृदय में तनिक भाव नहीं पालूं।
तू थोड़ा आगे बढ ले, मैं तो गले लगा लूं।
तू जीवन मेरा, तुमको मन मीत बना लूं।
अरी मन भावन जीवन, तू थोड़ा मुसका।
मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।।
है निशा काल अभी, होगी उषा काल की आहट।
जीवन मैं टूटे छंदों का कर लूं थोड़ा सा मंथन।
अंधियारी रात के आँचल में दूर-दूर है निर्जन।
अभिलाषा के कोमल कपोल को करने दे तू सिंचन।
अरी मन भावन जीवन, तू नहीं ऐसे बात बना।
मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।
अंतर मन का भाव यही, है खुद को जानना बाकी।
आएगा नव प्रभात, सूर्य उदित होने को।
फिर क्यों विकल बनूं, नयनों से रोने को।
पथ पर यूं तो नहीं हूं, व्यर्थ के दुविधा ढोने को।
अरी मन भावन जीवन, तू मन के चिन्ता नहीं बढा।
मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।।
जीवन का उन्मुक्त भाव, कहूं तो वृत लिए है फैला।
किंचित सुविधा की खातिर, जो है अधिक विषैला।
मंजिल तक जाना ही तो है, है अभी रात की वेला।
लालच के बांहूपाश से, क्यों करूं मैं मन को मैला?
अरी मन भावन जीवन, तू नहीं व्यर्थ की छवि दिखा।
मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।।