shabd-logo

प्रेरक

hindi articles, stories and books related to prerak


एक दिन सूर्य पुत्र कर्ण शिकार खेलने गए थे। झाड़ियों के पीछे किसी हिंसक प्राणी की आशंका होने पर बिना पड़ताल किए ही कर्ण बाण चला देते हैं। दुर्भाग्य वश वह एक गाय होती है। उस गाय का रखवाला ब्राह्मण यह दृश्

प्राचीनकाल में मिथिला में सीरध्वज जनक नाम से प्रसिद्ध धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । एक बार राजा जनक यज्ञ के लिए पृथ्वी जोत रहे थे । उस समय चौड़े मुंह वाली सीता (हल के धंसने से बनी गहरी रेखा) से एक कन

“एन्टी करप्शन सेल “ ( कहानी प्रथम क़िश्त)कृष्णासाहू नवागांव से अपने गांव देवकर लौटते वक़्त बहुत ख़ुश था ।उन्हें  अपनी लड़की के लिए जोहान साहू का लड़का योगेश भी पसंद आ गया था और जोहन साहू का परिवार भी

छाया? वह लेटी है तरु-छाया में सन्ध्या-विहार को आया मैं। मृदु बाँह मोड़, उपधान किए, ज्यों प्रेम-लालसा पान किए; उभरे उरोज, कुन्तल खोले, एकाकिनि, कोई क्या बोले? वह सुन्दर है, साँवली सही, तरुणी है

मंजरित आम्र-वन-छाया में हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार, ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित, नीचे चन्द्रातप छना स्फार! तुम मुग्धा थी, अति भाव-प्रवण, उकसे थे, अँबियों-से उरोज, चंचल, प्रगल्भ, हँसमुख, उदार, मैं स

बाँधो, छबि के नव बन्धन बाँधो! नव नव आशाकांक्षाओं में तन-मन-जीवन बाँधो! छबि के नव भाव रूप में, गीत स्वरों में, गंध कुसुम में, स्मित अधरों में, जीवन की तमिस्र-वेणी में निज प्रकाश-कण बाँधो! छबि क

सुन्दरता का आलोक-श्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में, जिससे नव जीवन का प्रभात होगा फिर जग के आँगन में! मेरा स्वर होगा जग का स्वर, मेरे विचार जग के विचार, मेरे मानस का स्वर्ग-लोक उतरेगा भू पर नई बार!

खो गई स्वर्ग की स्वर्ण-किरण छू जग-जीवन का अन्धकार, मानस के सूने-से तम को दिशि-पल के स्वप्नों में सँवार! गुँथ गए अजान तिमिर-प्रकाश दे-दे जग-जीवन को विकास, बहु रूप-रंग-रेखाओं में भर विरह-मिलन का

ऐ मिट्टी के ढेले अनजान! तू जड़ अथवा चेतना-प्राण? क्या जड़ता-चेतनता समान, निर्गुण, निसंग, निस्पृह, वितान? कितने तृण, पौधे, मुकुल, सुमन, संसृति के रूप-रंग मोहन, ढीले कर तेरे जड़ बन्धन आए औ’ गए! (

बाँसों का झुरमुट संध्या का झुटपुट हैं चहक रहीं चिड़ियाँ टी-वी-टी--टुट-टुट! वे ढाल ढाल कर उर अपने हैं बरसा रहीं मधुर सपने श्रम-जर्जर विधुर चराचर पर, गा गीत स्नेह-वेदना सने! ये नाप रहे निज घर का

गर्जन कर मानव-केशरि! मर्म-स्पृह गर्जन, जग जावे जग में फिर से सोया मानवपन! काँप उठे मानस की अन्ध गुहाओं का तम, अक्षम क्षमताशील बनें जावें दुबिधा, भ्रम! निर्भय जग-जीवन कानन में कर हे विचरण, का

बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर! सोचो वृथा न भव-भय-कातर! ज्वाला के विश्वास के चरण, जीवन मरण समुद्र संतरण, सुख-दुख की लहरों के शिर पर पग धर, पार करो भव-सागर। बढ़ो, बढ़ो विश्वास-चरण धर! क्या जीवन? क्यों

चीटियों की-सी काली-पाँति गीत मेरे चल-फिर निशि-भोर, फैलते जाते हैं बहु-भाँति बन्धु! छूने अग-जग के छोर। लोल लहरों से यति-गति-हीन उमह, बह, फैल अकूल, अपार, अतल से उठ-उठ, हो-हो लीन, खो रहे बन्धन गीत

(क) तेरा कैसा गान, विहंगम! तेरा कैसा गान? न गुरु से सीखे वेद-पुराण, न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान; तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान, काव्य, रस, छन्दों की पहचान? न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान, मनन कर, मनन,

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल! अपलक अनंत, नीरव भू-तल! सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल, लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल! तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,

नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनि, मृदु-करतल पर शशि-मुख धर, नीरव, अनिमिष, एकाकिनि! वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन छू लेती अग-जग का मन, श्यामल, कोमल, चल-चितवन जो लहराती जग-जीवन! वह फूली बेला की

नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त। पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर, ज्यों वीणा के तारों में स्वर। खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन, धूसर भुजंग-सा ज

विजन-वन के ओ विहग-कुमार! आज घर-घर रे तेरे गान; मधुर-मुखरित हो उठा अपार जीर्ण-जग का विषण्ण-उद्यान! सहज चुन-चुन लघु तृण, खर, पात, नीड़ रच-रच निशि-दिन सायास, छा दिये तूने, शिल्पि-सुजात! जगत की डाल

जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन! बरसो कुसुमों में मधु बन, प्राणों में अमर प्रणय-धन; स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में, उर-अंगों में सुख-यौ

जीवन का उल्लास, यह सिहर, सिहर, यह लहर, लहर, यह फूल-फूल करता विलास! रे फैल-फैल फेनिल हिलोल उठती हिलोल पर लोल-लोल; शतयुग के शत बुद्बुद् विलीन बनते पल-पल शत-शत नवीन; जीवन का जलनिधि डोल-डोल, कल

संबंधित टैग्स

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए