जीवन की धग-धग जलती मरुधरा।
पथ पर कभी अधिक तीव्र होता है ताप।
कभी हृदय कुंज में चुभता है संताप।
कभी तो विकल हो करता है आलाप।
पर क्यों इतना हलचल है,धैर्य का ले-लो संबल।
अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।
जाने क्यों हो बेचैन? बोलो क्या है पाना?
जो पुनीत धर्म जीवन का, मंजिल तक है जाना।
कहीं जो पथ पर कांटें है, अपने पांव बचाना।
ओ मानव, जीवन पथ पर ऐसे नहीं नीर बहाना।
आगे को जो बढना है, क्यों पीछे देखते पल-पल।
अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।
माना कि भ्रम में फंसने से तेरा काफिला छूटा।
अाहट था जो कदमों का, भ्रम तेरा वो टूटा।
अपनेपन की जो बातें, तुमसे जो अब रुठा।
भावनाएँ आश्वासन का जो बुलबुला सा फूटा।
पर निश्चय ही तेरे साथ रहेगा,तेरे धैर्य का बल।
अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।
आहट जो मधुर समय का,ध्यान लगा के सुन।
आगे-आगे कदम बढा, मंजिल तक जाने की धुन।
अरे राही पथ के, अपने सपनों को बुन।
ओ मानव, कांटें पथ के तन्मय होकर चुन।
तुम तो मानव नित धर्म निभा, होकर निश्छल।
अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।
जीवन की मरुधरा धग-धग जलती है, तो जलने दे।
तुम तो हो रथी रण के, नहीं अपना कर्तव्य निभाना।
आगे है जीवन का उत्सव, तुम तो कदम बढाना।
अभी समय है आगे बढ लो, आगे कहीं सुस्ताना।
जीवन पथ है, आगे सरिता भी बहती होगी कलकल।
अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।