प्रिय सखि,
कल कहीं मैंने ये शीर्षक पढा "कर्म या धर्म जरूरी"
और मुझे लगा कि ये शीर्षक ही अपने आप में भ्रम पैदा करनेवाला है। हम इन दोनों बातों को अलग करके नहीं देख सकते।
सच पूछा जाए तो हमारे वही सच्चे कर्म होते हैं जो धर्म की राह पर चलकर किए जाते हैं।धर्म के बिना कुछ भी संभव नहीं है।जब तक कर्म के साथ धर्म जुडेगा तब तक कर्म सुकर्म में परिणित रहेंगे और जैसे ही धर्म का साथ छूटेगा कर्म कुकर्म में बदल जाएंगे।
धर्म कोई विशिष्ट संप्रदाय या विधि विधान नहीं है जिसके आधार पर पूजा अर्चना की जाती है।
धर्म यानि कि धारण करना। और धारण क्या किया जाएगा.?
यह सोचने का विषय है 🤔जो भी हमारे जीवन को, समस्त सृष्टि को सुंदर समृद्ध बनाएं, वही धारण करना धर्म कहलाता है।मानवता,सहिष्णुता दयालुता,कोमलता,निश्छलता जैसे मानवीय गुणों को अपने अस्तित्व में बसाना और व्यवहार में परिणित कर परोपकार और भलाई में लगाना ही धर्म है।ऐसे सभी गुण या कार्य धर्म की श्रेणी में आते हैं।
मनुष्य का एक ही कर्म व धर्म है और वह है-"इंसानियत"
हमें इस दुनिया में मानव जन्म मिला सिर्फ इसलिए कि हम मानव सेवा कर सकें।
सम्पूर्ण जगत में ईश्वर ने मानव को एक जैसा ही बनाया है।खानपान, रंग रूप जीवन जीनें के तौर तरीके अलग अलग होने से कोई खांचों में नहीं बंट सकता क्योंकि इस शरीर में बहने वाला रक्त सभी का लाल ही है।
गुरुनानक देव जी ने कहा था-"
हम सभी उस परमपिता परमात्मा की संतान होने के बावजूद,हम ऊंचे नीचे कैसे हो सकते हैं ?
हम सभी एक ही मिट्टी के बनें हैं फिर भी कुछ अपने अपने सम्प्रदाय के प्रचारक बनकर जिसे वह धर्म बताते हैं, उसीको सर्वोपरि बताते हुए हिंसा फैलानें जैसे कर्मों पर उतर आएं हैं।
धर्म के नाम पर हिंसा रुपी कर्म करने वाले लोग धर्म परिवर्तन के अभियान को बंद कर प्रत्येक धर्म के लोगों को बेहतर बनाने के प्रयास करें, उनके इसी कर्म में धर्म की सार्थकता छुपी है।
और ईश्वर ने मानव जन्म दिया ही सुकर्म करने के लिये है।इस दृष्टि से देखा जाए तो कर्म और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं दोनों एक दूसरे से अनन्य जुड़े हुये हैं।
कर्म के बिना धर्म नहीं रहता और धर्म के बिना कर्म व्यर्थ है।
मैंने सही कहा ना! तुम्हारा इस बारे में क्या कहना है जरूर बताना।।
प्रीति शर्मा" पूर्णिमा"
02/07/2022