रेगिस्तान का नाम लेते ही एक दृश्य मस्तिष्क में उभरता है। जहां दूर-दूर तक दिखते हैं, रेत के कभी न खत्म होने वाले ऊंचे-नीचे पहाड़, खुले आसमान में तेज चमकता सूरज, गर्म चलती हुई तेज हवाएं जो रेगिस्तान की रेत को गोल-गोल घुमाते हुए इधर से उधर ले जाती है। आकाश की ऊंचाईयों में उड़ते हुए बाज जिन्हें मरूस्थल में उतराना बिल्कुल भी नहीं सुहाता। वो उतरते हैं मात्र तभी, जब उनकी नजर कई किलोमीटर की ऊंचाई से रेगिस्तान की रेत में छिपकर चलते हुए किसी छोटे जीव पर पड़ती है। तब वह बड़ी ही तीव्रता से किसी कुशल शिकारी की भांति बिना कोई आवाज किये, पलक झपकते ही उसे अपने नुकीले पंजों में जकड़ फिर आकाश की ऊंचाईयों में न जाने कहां गुम हो जाते हैं। उसके बाद फिर वही नजारा। गर्म हवा, उड़ती रेत और तपता सूरज......
तभी एक मुसाफिर दिखाई देता है, अकेला रेत के एक टीले से उतरता हुआ। जिसे गर्म हवाओं के गुबार ने घेरा हुआ था। उसने तेज धूप से बचने के लिए सिर पर पगड़ीनुमा कपड़ा बांधा था। कंधे पर एक थैला लिये जिसमें कुछ खाने-पीने का सामान ही होगा शायद। ऐसे गर्म-वीरान और कभी न खत्म होने वाले रेगिस्तान में कोई किसी से किस चीज की उम्मीद कर सकता है? जो रेगिस्तान की शुष्क धरा पर अकेला कंधे में कोई कुछ भी बोझ लिये चल सके!
कुछ कदम चलने के बाद वह व्यक्ति बीच रेगिस्तान में रूक गया और दूर तक देखने की कोशिश करने लगा। कोई गांव या कोई नगर, कहीं सिर छुपाने के लिए कोई साया, जिसके नीचे बैठकर वो थोड़ी गर्मी से राहत पा सके, या कोई पानी का तालाब, जिससे जल्दी से प्यास बुझाई जा सके। लेकिन अफसोस, उसे कुछ नहीं मिला। सिवाय रेगिस्तान में पैरों के नीचे तपती गर्म रेत और सिर पर बेरहम सूरज के अलावा। जो शायद इस मुसाफिर की जान लेकर ही मानेगा।
तभी वह अपना थैला खोलकर उसमें से पानी की एक बोतल निकाल थोडे़ से पानी से अपनी प्यास बुझाता है और बाकी बचे पानी को देखकर निराश हो उठता है जो अब तक आधा हो चुका था। उसके चेहरे पर कुछ हताशा और निराशा के भाव झलकने लगे थे। थोड़ा सा रूक वह फिर तेज कदमों से सीधा चलने लगता है। इस आशा में आगे कुछ तो ऐसा अवश्य मिलेगा जो उसे इस खुश्क रेगिस्तान से बाहर निकलने में मदद करेगा।
यह मुसाफिर न जाने कहां से आया होगा और कहां जाना चाहता होगा। इसका तो पता नहीं। देखने से लगता है वो इस मरूस्थल में रास्ता भटक गया होगा। किस्मत ने भी कैसा खेल खेला उसके साथ।
थोड़ी दूर चलने के बाद उसे एक पेड़ दिखाई दिया। जो इस विशाल रेगिस्तान में अकेला किसी बहादुर योद्धा की भांति सीना तानकर खड़ा था। भले ही उसकी टहनियों पर हरी पत्तियां न थी और न ही कोई फल थे लेकिन पेड़ को इन बातों की कोई चिन्ता न थी। वह तो अपने सूखे तनों और शाखाओं पर गोरवान्वित था। आखिर वह इस मरूभूमि का अन्तिम और सबसे सख्तजान वृक्ष जो था। उसने अपने सामने अनगिनत बड़े से बड़े वृक्षों को कटते देखा था, उन्हें रोते-तड़पते इस रेगिस्तान की धरती पर मरते देखा था। पेड़ों की छांव तले पलने वाले अनेकों छोटे पौधों को मुरझाते देखा था। उसको भी कईयों बार काटा गया। लेकिन यह कमबख्त हार मानने का नाम ही न लेता था और इसलिए आज भी धरती पर खड़ा अपने सूखे शरीर की बांहों को फैलाये, दूर आकाश गंगा में स्थित पृथ्वी से कई गुना बड़े उस तपते सूरज को चुनौति देता कि तू अगर जलाने को अमादा है तो मैं भी तुझसे कम नहीं।
इस सूखे वृक्ष को देख वह मुसाफिर थोड़ा प्रसन्न हुआ। चलो कुछ पल आराम के तो मिलेंगे। भले ही इससे छांव न मिली लेकिन थोड़ा हौंसला तो मिला इसे देखकर। पेड़ के तने को छूकर मुसाफिर ने उसे महसूस किया और थोड़ी देर आंख बंद कर न जाने क्या सोचा और उसे क्या हुआ। वह बड़ी तेजी से दूसरी दिशा की ओर आगे चलने लगा। जैसे पेड़ ने उसे कुछ बताया हो, या कुछ समझाया हो। लेकिन ऐसा कैसे संभव है? पेड़ कभी बात नहीं करते! यह सब मन का भ्रम ही होगा।
थोड़ी दूर चलने के बाद मुसाफिर को कुछ परिन्दे उड़ते दिखाई दिये। परिन्दों की दिशा की ओर मुसाफिर चलने लगा। शाम ढलने तक वह एक गांव पहुंच गया। उसने परिन्दों का धन्यवाद किया क्योंकि उनके ही कारण वह उस दुर्गम रेगिस्तान को पार कर पाया था। उसके उपरान्त उसने देखा परिन्दे गांव के कुछ सूखे पेड़ों पर अपने घोंसलों में चहचहा रहे थे। तभी उसे रेगिस्तान में खड़े उस पेड़ की याद आई और उसने उस पेड़ के साथ-साथ सभी पेड़ों को धन्यवाद किया क्योंकि आज वह उनके ही कारण रेगिस्तान से बचकर बाहर निकल सका था। पेड़ों पर बने घोसलें ही उन पक्षियों के दिखने का कारण थे।
ठीक इसी प्रकार है जिन्दगी का यह सफर। जहां हर व्यक्ति किसी मुसाफिर की भांति ही सफर कर रहा है जिन्दगी के इस रेगिस्तान में। जहां उतार है-चढ़ाव है। आशा है-निराशा है और है एक संघर्ष....