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चमत्कार होते हैं

17 अक्टूबर 2022

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अपने कस्बे में आषीश ने अच्छा नाम कमा लिया था। जिसका पषुओं का व्यापार इतना बढ़ चुका था, जिसे संभालने के लिए आषीश ने अनेकों लोग रखे हुए थे। एक आलीषान घर होने के साथ-साथ कई दुकानें, गाड़ियां और धन होने के बावजूद आषीश आज भी अपना वह पुराना समय न भूला था जो उसके ज़हन में ऐसे घूम जाता था, जैसे वो आज ही बात हो। उसका बेटा राहुल जो अभी 18 वर्श का हुआ था, अपने जन्मदिन में कॉलेज के दोस्तों और रिष्तेदारों के बीच बहुत ही प्रसन्न दिखाई दे रहा था। जन्मदिन के कार्यक्रम में आषीश ने अच्छे से अच्छा इंतजाम किया हुआ था। बच्चों के मनोरंजन के लिए जोकर और जादूगर बुलवाये गये थे। जिन्होंने अपने कौषल से सबका मनोरंजन किया। जादूगर के जादू को देखकर सभी हतप्रभ रह गये। वो कभी अपने खाली थैले से कबूतर निकालकर दिखाता तो कभी खाली हाथ से पैसे बरसाता। इस प्रकार के अनेकों कारनामें जादूगर ने दिखाये। जिसे देख सभी बहुत हैरान भी हुए और उसे बहुत से लोगों ने कुछ न कुछ इनाम भी दिया। कार्यक्रम से फिर धीरे-धीरे लोग निकलने लगे और आखिर में आषीश और उसका पुत्र राहुल ही बचा। राहुल अपने तोहफे देखकर अत्यन्त खुष था और बीच-बीच में जादूगर के जादू की प्रषंसा भी करता कि कैसे उसने इतने अच्छे जादू दिखाये। आषीश यह सब देखकर बहुत खुष था, बस उसे आज के दिन हमेषा की तरह राहुल की मां की याद आ गई जो राहुल के जन्म के कुछ वर्शों के बाद किन्ही कारणों से उन्हें छोड़कर कहीं चली गयी थी। जिस दुख ने आज तक आषीश का पीछा न छोड़ा था। आखिर वो क्या कारण थे जिसके कारण राहुल की मां को अपना बसा बसाया घर छोड़कर जाना पड़ा। जिसका गम आषीश को अपने बीते दिनों की ओर मुड़कर सोचने को मजबूर कर दिया। रूआंसे दिल से आषीश अपने बेटे को बोला - बेटा, तुम मेरी बात ध्यान से सुनो और उसको समझो। यह बात तुम्हारी जिंदगी में बहुत काम आयेगी। यह बात और कुछ नहीं मेरी ही जीवन की कहानी है जो मेरे साथ गुजरी और जिसके कारण आज हम इस मुकाम पर हैं। यह कहते हुए आषीश अपने जीवन के उन पुराने पन्ने खोलने लगा जिसमें न जाने कब से धूल जम चुकी थी।

बचपन से ही मेरा जीवन बहुत ही कठिनाईयो में गुजरा। पैदा होते ही माँ चल बसी जिसके बाद पिता ने ही पालन पोशण किया जो मजदूरी करते थे। सुबह जल्दी उठकर मुझे नहला-धुलाकर, कपड़े बदलकर फिर बड़े प्यार से खाना खिलाकर अपने काम पर चले जाते थे। सांझ ढलने पर जब घर लौटते, फिर प्यार दुलार से सुलाते थे। ऐसे ही समय बीता तो उस दिन मेरा सातवा जन्म दिन था और मैं सुबह-सुबह अपने पिता से पहले उठ गया और पहली बार खुद ही नहा धोकर कपड़े बदल लिए। फिर अपने पिता को उठाते हुए उनसे कहने लगा कि देखो, आज मै खुद ही नहाकर तैयार हो गया हूँ। बहुत हिलाने पर भी जब पिता नही उठे तो मैं घबरा उठा और दौ़ड़कर पड़ोसियो को कहने लगा कि मेरे पिता को क्या हो गया है? वह क्योें नही उठ रहे हैं। पता चला कि पिता भी मुझे छोड़कर चले गये। नन्हे से बच्चे की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गयी। पिता की मृत्यु के बाद मुझे सहारा देना तो दूर गांव वाले मेरे बारे में ही उल्टी-सीधी बाते करने लगे कि यह बच्चा तो मनहूस है। पैदा होते ही माँ चली गयी। जिस बाप ने पाला वो भी अधिक समय तक जीवित न रह सका। इसे अपने घर में लाना तो मुसीबत को बुलाना है। वो कहते है ना, जिसका कोई नही होता उसका खुदा होता है। मेरी नानी जो दूसरे गांव मंे रहती थी, मुझे अपने साथ गांव लेकर चली गयी और मेरा पालन पोशण करने लगी। नानी वृद्ध होने के साथ-साथ बीमार भी रहती थी और उन्हे देखने वाला भी कोई नही था। अब अपना और बूढ़ी नानी का बोझ इन नन्हे कन्धों पर आ गया। अब मैं गांव में चने बेच कर गुजारा करने लगा। ऐसे ही समय बीतता गया और बीस वर्श गुजर गये। एक दिन गांव में एक फकीर आया हुआ था। सारा दिन घूमने के बाद भी थोड़े से भी चने बिक सके थे। थका-हारा जब मैं षाम को घर जा रहा था। तब उस फकीर को देखा तो फकीर मुझे देखकर मुस्कुराया और अपने पास बुलाने लगा। मैं उसके पास चला गया। तो फकीर ने चने खाने के लिए मांगे। मैंने सोचा कि चलो षाम को थोड़ा ही सही, कुछ तो बिका और उसने झटपट फकीर को चने दे दिये। फकीर ने चने खाकर और चने मांगे। ऐसे देखते ही देखते फकीर सारे चने चट कर गया। फिर वह चने खिलाने के लिए धन्यवाद देने लगा। यह सुनकर मुझे गुस्सा आ गया लेकिन गुस्से पर नियंत्रण करते हुए मैंने फकीर से चने का मूल्य देने के लिए कहा। फकीर ने जवाब दिया धन क्या होता है, मै नही जानता। धन के बदले और कुछ मांग लो, षायद वो तुम्हे मिल जाये लेकिन अब मुझे कुछ समझ नही आ रहा था। वह ऐसी स्थिति में क्या करें। मैं फकीर से बोला आपके पास जो कुछ भी हो, वो मुझे दे दो। फकीर ने अपना झोला खोलकर उसमें से एक पत्थर निकाल कर दे दिया और कहा यह रखलो यह बहुत काम की वस्तु है। पत्थर को पकड़ते हुए मैंने फकीर से पूछा यह किस काम में आता है? तो फकीर ने जवाब दिया। इसका प्रयोग कैसे करना है। यह तुम्हे खुद ही ढूंढना होगा लेकिन एक बात ध्यान रखना, यह वाकई ही बहुत काम का है। यह कहकर फकीर वहां से चला गया। पत्थर को घर ले जाकर मैं उसे अच्छी तरह उसे उलट-पलट कर देखने लगा कि इसमें ऐसी क्या खास बात हैं। जो फकीर बार-बार उसे अपने पास रखने के लिए बोल रहा था। देखने में तो वह पत्थर साधारण ही लगता था। बहुत सर खपाने के बाद जब कुछ समझ नही आया तो उस पत्थर को वही चूल्हे के पास रख दिया। रात को सोने के लिए लेटा तो दिमाग मंे पत्थर ही घूम रहा था। जिसके कारण पूरी रात सो न सका। अगली सुबह सोचा इसे किसी सुनार के पास दिखा देना चाहिए क्या पता यह कोई बेषकीमती रत्न ही हो। मैं पत्थर लेकर सुनार के पास पहुंचा और सुनार को सारी बात बताई। सुनार ने पत्थर का जब भली-भांति निरीक्षण किया तो गुस्से में वो पत्थर मेरे सिर पर दे मारा और चिल्लाते हुए बोला पूरे गांव में मै ही तुझे मूर्ख बनाने के लिए मिला। पत्थर के लगते ही सिर से खून टपकने लगा। फिर भी मैं उस पत्थर को उठाकर घर वापस लौट आया। मुझे उस फकीर पर पूरा विष्वास था क्योंकि उसके चेहरे की आभा ही कुछ ऐसी थी और उसकी आवाज और व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तो था जिसके कारण मैं घर आकर सोचने लगा कि जरूर ईष्वर मेरी कोई परीक्षा ले रहे हैं और यही वो समय है जब मेरी किस्मत बदल सकती है। मुझे फकीर की दी हुई वस्तु पर जिसका प्रयोग और मूल्य अभी तक अज्ञात ही था, उस पर एक उम्मीद थी। जो निष्चित रूप से अद्भुद थी। बस, मात्र यह पता करना था कि वास्तव में वह है क्या और उसका कैसे प्रयोग करना है। उस समय तक मुझे सुनार की कही बात पर बिल्कुल भी भरोसा न था, वह अवष्य ही मूर्ख बना रहा है ताकि वह कीमती पत्थर यूं ही ले सके। इसलिए मैंने निष्चय किया कि अन्य स्थानों से रत्नों के विशय में पता करूंगा कि उनके क्या गुण-धर्म और लक्षण होते हैं किन्तु इन सबमें बहुत समय लगना था। इतना समय मेरे पास न था। तब मैंने सोचा क्यों न इस पत्थर को किसी षिल्पकार को दिखाया जाये। हो सकता है, इस पत्थर को वह किसी सुन्दर मूर्ति में परिवर्तित कर, उसका अच्छा मूल्य दिलवा सके। अगले दिन पत्थर को लेकर षिल्पकार के पास पहुंचा जो गांव से कुछ दूर किसी अन्य गांव में रहता है। पत्थर देखने के उपरान्त षिल्पकार ने बताया कि यह पत्थर किसी भी काम का नहीं है, इसमें इतनी कठोरता नहीं है कि इससे कोई मूर्ति बनाई जा सके। यह सुनकर निराषा ही हाथ लगी और मैं पत्थर को लेकर वापिस घर आ गया। दो दिन उस पत्थर के कारण यूं ही बीत गये थे। फिर मैंने पुनः चने बेचने का कार्य प्रारंभ कर दिया लेकिन इस बार मैं गांव से बाहर दूर-दूर के गांवों में भी जाने लगा क्योंकि चने बेचने के साथ-साथ उस पत्थर के बारे में भी पूछता जाता कि षायद कहीं मेरे भी किस्मत का तारा चमक उठे और षीघ्र उस पत्थर के कारण धनी व्यक्ति बन जाऊँ।

उसके बाद क्या हुआ? राहुल बोला। 

आशीष - होना क्या था, उस पत्थर की कीमत उस समय तक मुझे कुछ भी न पता चल सकी थी। तभी एक रात एक व्यक्ति जिसने कम्बल ओढ़ी हुई थी, भागता हुआ मेरे घर में आ घुसा और अंदर से दरवाजे की चिटकनी लगा दी। जिसे देखकर मैं घबरा गया। उस व्यक्ति को बाहर कुछ लोग ढूंढ रहे थे। तभी दरवाजे में खटखटाहट हुई। उसने उन लोगों को कुछ भी न बताने का इशारा किया। जैसे ही मैंने दरवाजा खोला। चार-पांच लोग बाहर बन्दूकें लिये खड़े थे और उक्त व्यक्ति के बारे में पूछने लगे। तभी मैंने उनसे यहां कोई भी न होने के बारे में बताया। उनमें से दो लोग आपस में बात करते हुए - जल्दी ढूंढो उसे, आज हम उसको नहीं छोड़ेंगे, उसने हमारे साथ गद्दारी की है, हमारा सारा लूट का सामान अकेला ही ले गया। कहते हुए, वो सभी वहां से निकल गये। तभी दरवाजे को बंद करते हुए मैंने उसे सांत्वना दी और उसे घर में रूकने को बोला। वह व्यक्ति गांव का जाना-माना डाकू गब्बर सिंह था। उसने अपनी कंबल हटाई, उसके हाथ में एक बैग था। उस बैग को कोने में रखकर उसको कंबल से ढंककर छूपा दिया और फिर मुझे घूरने लगा। मैं भी अनजान बनकर इधर-उधर देखने लगा। तभी मैं गब्बर से बोला - क्या तुम कुछ खाओगे? घर में बाजरे की रोटी बनी है और साथ में साग है। इस पर गब्बर ने हां में सिर हिला दिया। तभी मैंने उसे दो रोटी और साग दिया। जिसे गब्बर ने खा लिया जिसके बाद वो बोला क्या शराब मिल सकती है? मैंने कहा, इस गरीब के घर में शराब तो नहीं है, लेकिन लस्सी जरूर मिल सकती है और कहें तो मैं बाहर से लेकर आ जाता हूं। मेरी बात सुनकर गब्बर ने बाहर जाने की इजाजत दे दी। बाहर जाते ही थोड़ी दूर एक मेडिकल की दुकान से मैंने कुछ नींद की दवा को खरीद कर छुपा लिया और चुपचाप लस्सी लेकर झोपड़ी में आ गया। गब्बर को लस्सी पिलाई। जिसके थोड़ी ही देर बाद लस्सी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया और गब्बर बेहोश हो गया। उसके बेहोश हो जाने के बाद मैंने उसका बैग खोलकर देखा। जिसमें बहुत सारे हीरे-मोती, सोने के जेवर और बहुत सारी कैश रखी थी। जिन्हें देखकर मेरी आंखे चमक उठी। तभी वहीं किनारे रखे फकीर द्वारा दिये गये पत्थर पर मेरी नजर पड़ी। जिसे फकीर के बेशकीमती और बड़े काम की चीज बताया था। इसके साथ ही फकीर ने यह भी कहा था कि यह तेरे बहुत काम आयेगा। तभी मैंने वो पत्थर उठाकर गब्बर के सिर पर मारने लगा। उस समय मुझे उस पत्थर के इस गुण का पता चला कि वह तो वाकई कोई चमत्कारी पत्थर है। उस पत्थर के कारण ही आज हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं। बेटा, वो पत्थर उस फकीर द्वारा दिया गया आर्शीवाद है जिसे मैंने आज भी अपनी तिजोरी में संभाल कर रखा है। जो वाकई में एक चमत्कारी पत्थर है जिसने हमारा भाग्य बदल दिया। 

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रचनाएँ
कही-अनकही कहानियाँ
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विज्ञान और धर्म (बुद्धि और हदय) में मात्र इतना ही अंतर है कि विज्ञान मानता है काला रंग वास्तव में कोई रंग न होकर समस्त रंगों की अनुपस्थिति मात्र है। जहां कोई रंग नहीं वहां काला अर्थात् अंधकार ही होगा । इसी प्रकार सफेद रंग वास्तव में सभी रंगों के मिश्रण से प्राप्त होता है। यही भौतिकी के सिद्वान्त कहते हैं। इसके विपरित इसी विषय में हदय का प्रयोग करने वाले कला प्रेमी लोगों का इसके विपरित ही तर्क है। उनके अनुसार वास्तव में काला रंग समस्त रंगों के मिश्रण का नाम है। आप किसी चित्रकार से पूछिए कि उसे काला रंग बनाने के लिए क्या करना होगा, उत्तर में यही मिलेगा कि समस्त रंगों को मिला दीजिए, जो रंग प्राप्त होगा वह काला और समस्त रंगों की अनुपस्थिति से सफेद रंग प्राप्त होता है। यहां दोनों ही अपने-अपने स्थानों पर बिल्कुल सही हैं। दोनों वर्ग अनेकों प्रकार के प्रयोग करने के पष्चात ही इस निर्णय तक पहुंचे हैं जिसका गलत होने की कोई संभावना नहीं। मात्र दृष्टि का अंतर है। सही दोनों हैं। यह दोनों को मानना भी होगा कि वैज्ञानिक और चित्रकार दोनों ही सही हैं। विरोध को कोई प्रष्न नहीं और कभी इस विषय को लेकर किसी ने इनके मध्य कोई लड़ाई भी न सुनी होगी। मानव चेतना भी इन्ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जिसमे अक्सर मनुष्य का अंतर्मन सदा आपस में काले-सफेद को लेकर लड़ता रहता है, सदा दोनों और चलने वाली इस खींच तान के बीच कभी भी यह सुनिष्चित नहीं हो पाता कि वैज्ञानिक सही या चित्रकार? मानव मस्तिष्क के भीतर चलने वाले द्वन्द को इस पुस्तक में क्रमबद्ध पिरोया गया है, जिसमे उसके अंतर जगत को प्रतिबिंबित करता है....
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राहुल निम्न मध्यवर्गीय परिवार से तीन भाई-बहनों में मझला बेटा था। उसके पिता जूते बनाने वाली एक फैक्ट्री में सेल्समैन का काम करते थे। जिससे बड़ी मुष्किल से उनके परिवार का गुजारा चल पाता था। दसवीं की परीक

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