जीवन लाल जी ने अपने घर का लोहे का गेट खोला और निकल पड़े सुबह सुबह की सैर को, रास्ते में आते जाते लोगों से राम- राम और दुआ-सलाम करते उन्हें सारा गाँव प्यार से बड़े भइया कहता फिर वो चाहे बड़ा हो या छोटा या रिश्ते मे कुछ भी लगता हो, ये नाम उनको उन लोगों ने दिया था जिनकी उन्होंने बुरे वक्त़ में मदद की और देखा देखी सभी उन्हें बड़े भइया कहने लगे, सैर करने के बाद वो घर पहुँचते, तब तक बंसी बगीचे में चाय और पेपर के साथ हाजिर हो जाता, बगीचे की कुर्सी में बैठकर जीवन लाल जी चाय पीते और पेपर पढ़ते।।
फिर थोड़ी बहुत खेंतों का चक्कर लगाकर स्नान-ध्यान करके गाँव के कुछ बच्चों को पढ़ाते, बस यूँ ही उनका जीवन चल रहा है, पत्नी का स्वर्गवास तो रिटायरमेंट के पहले ही हो गया था, वो दिल की मरीज थीं, दोनों बेटे अपने अपने परिवार के साथ शहरों में रह रहें हैं, एक बेटा बैंगलोर में डाक्टर है और दूसरा बेटा दिल्ली में जज है, बेटे भी आते हैं कभी कभार गाँव तीज त्यौहार में, तब उनके घर में चहल -पहल हो जाती है।।
रिटायरमेंट के बाद जीवनलाल जी ने अपने पुश्तैनी गाँव में ही बसने का सोचा, उनके बाप-दादा की जमीन पड़ी थी, एक बहुत पुराना घर था, घर क्या एक कच्ची मिट्टी की छप्पर वाली कोठरी थी, जिसके आगे चबूतरा था, जो बिल्कुल जर्जर हो चुकी थी, जीवन लाल जी ने इसे अपने पुरखों का घर समझकर वैसे ही रहने दिया, उस घर से उन्हें बहुत लगाव था, उस घर में उनका बचपन जो बीता था, बस तीज त्यौहार में वहाँ दिया जरूर जलाने जाते।।
उन्होंने अपने लिए खेतों में ही घर बनवा लिया, सुन्दर सी फूल- फुलवारी लगा ली, वो खुद ही एक एक पौधा चुनकर लाते नर्सरी से, सामने पहाड़ और उसे निकलता हुआ सूरज, बगल में बहती हुई नहर, बहुत ही सुन्दर नजारा होता उनके खेतों का, उन्होंने खेतों में एक कुआँ भी खुदवा लिया था और उसमें एक ट्यूबवेल भी लगवा लिया था, दो भैंसे, एक गाय भी थी, एक दो पेड़ आम के, कुछ नीबूं, एक पेड़ जामुन का, एक नीम का और उनकी माँ को महुआ बहुत पसंद था इसलिए खासतौर पर महुए का पेड़ लगाया था, खेतों में फसलें तो होती ही थीं लेकिन मौसमी सब्जियों की भरमार होती थी, जो मुनाफा होता, कुछ बहुओं में बाँट देते बाकी गाँव की भलाई में खर्च कर देते।।
बस ऐसे ही सुकून के साथ जीना चाहते थे जीवनलाल जी, अपनों के बीच, अपनी जन्मभूमि में, बेटे जितने बार आते, अपने साथ चलने को कहते लेकिन जीवन लाल जी तैयार ना होते, बोलते यहीं प्राण निकले तो अच्छा है, अपनी जननी को छोड़कर परदेश में कैसे बस जाऊँ, वो कहते इस माटी का मोह तो अब मृत्यु के बाद ही छूटेगा।।
उनकी सेवा के लिए बंसी और उसकी मेहरारु फुलमत हमेशा हाजिर रहते, उसने वहीं एक मिट्टी की झोंपड़ी डाल ली थी, फुलमत जानवरों का गोबर उठाती, कंडे पाथती और जीवनलाल जी की रसोई भी वहीं बनाती, जीवनलाल जी ने रसोई भी कच्ची बनवा रखी थी, जहाँ मिट्टी का चूल्हा, मिट्टी के बरतन थे, लेकिन खाने के बरतन पीतल और काँसे के थे, जीवनलाल जी का मानना था कि मिट्टी के चूल्हे पर खाना तो मिट्टी के बरतन में ही पकना चाहिए, इससे भोजन की गुणवत्ता बनी रहती है, दोनों पति पत्नी का खाना भी उसी खाने में बन जाता और फिर जीवनलाल जी का व्यवहार भी अच्छा था , बंसी और फुलमत को वहाँ रहने में कोई परेशानी नहीं थी।।
जीवन लाल जी को हारमोनियम बजाने का भी बहुत शौक था, वो रात का खाना खाकर थोड़ी देर हारमोनियम जरूर बजाते थे, किताबों का तो उनके पास ढेर था, जब कभी शहर जाते तो एक दो किताबें तो जरूर लाते, कभी कभी कोई ना कोई कहानी बंसी को भी पढ़कर सुनाते।।
एक दिन जीवनलाल जी दोपहर का भोजन करके लेटे ही थे कि साइकिल की घंटी सुनाई दी, तभी साइकिल से कोई उतरा और उसने जीवनलाल जी को पुकारा___
अरे! बड़े भइया, आपकी चिट्ठी आई है।।
जीवन लाल जी बाहर आकर बोले___
ओह..पोस्टमैन जवाहर! तो तुम हो भाई।।
जी, आपकी चिट्ठी आई हैं, जवाहर बोला।।
लाओ! भाई देखे तो क्या है, किसकी खबर आई हैं और बंसी को आवाज देते हुए बोले___
बंसी! जरा, फुलमत बहु से कहो कि डाकिया बाबू के लिए जलपान के लिए कुछ ले आए।।
बंसी बोला__
अच्छा! बड़े भइया।।
बंसी ने जैसे ही फुलमत को आवाज़ दी, फुलमत पीतल की तश्तरी में दो चार लड्डू और पानी लेकर हाजिर हो गई।।
लो भाई जवाहर, ये लड्डू खाओ, शुद्ध देशी के बनें हैं, बहुत ही स्वादिष्ट हैं, जीवन लाल जी बोले।।
इसकी क्या जरूरत है, जवाहर डाकिया बोला।।
अरे, भाई दिन भर डाक बांटते बांटते थक जाते होगे, तुम्हें भी तो ताकत की जरूरत है, जीवनलाल जी बोले।
जी बड़े भइया और इतना कहकर जवाहर पोस्टमैन लड्डू खाने लगा।।
तभी जीवनलाल जी ने अपनी चिट्ठी खोली और उसे पढ़कर उनके माथे पर पसीने की बूंदें झलक आईं।।
उनकी हालत देखकर, बंसी को कुछ शंका हुई और उसने पूछा___
क्या हुआ ?बड़े भइया! सब कुशल मंगल तो हैं ना, आप कुछ परेशान से दिख रहे हैं।।
नहीं! सब ठीक है, बस थोड़ा ऐसे ही।।
तभी जवाहर बोला, अच्छा मैं चलता हूँ, वाकई लड्डू खाकर आनन्द ही आ गया और इतना कहकर जवाहर अपनी साइकिल पर सवार होकर चला गया।।
तभी जीवनलाल जी दुःखी होकर उस चिट्ठी को अपने कमरे ले जाते हुए बोले___
बंसी एक गिलास ठंडा पानी तो पिला दे, मन बहुत घबरा रहा है रे!
ऐसा क्या हुआ है, आपकी तबीयत तो ठीक है ना, बड़े भइया! आप बिस्तर पर लेटिए मैं पानी लेकर आता हूँ और अगर आप कहें तो डाक्टर को बुलवा लूँ, बंसी बोला।।
नहीं रे! तू बस एक गिलास ठंडा पानी ले आ, जीवन लाल जी बोले।।
और कुछ देर में बंसी पानी लेकर पहुँचा और बड़े भइया के उदास होने का कारण पूछा।।
तब जीवनलाल जी ने बोलना शुरु किया__
बंसी! कोई है जिसकी बहुत तबीयत खराब है, शायद मैं जब तक उसके पास पहुँचूँ, तब तक शायद वो इस दुनिया से चली जाए, चिट्ठी में लिखा है कि बस आखिरी साँसें गिन रही है।।
आखिर कौन है वो, जरा खुलकर बताएंगे, बंसी बोला।।
तब जीवनलाल जी बंसी से बोले___
थी कोई, जो शायद मेरी जिन्दगी और आत्मा का हिस्सा थी, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया, उसकी यादों की हवा जब चलती है तो अब भी मुझे उसकी परछाई उड़ती हुई धूल में दिखाई देती है, वो एक खुशबू है जिसे देख नहीं सकते, बस आत्मा से महसूस कर सकते हैं, शायद उसने ही सच्चा प्रेम किया था मुझसे इसलिए तो मुझे, खुद को छोड़ने के लिए कहा।।
वो कहतीं थी कि कहाँ छुपाओगे मुझे, मेरी बदनामी मुझे हर जगह ढूंढ ही लेगी और मेरी वजह से तुम भी बदनाम हो जाओगे, उसी ने मुझे जिन्दगी में आगे बढ़ना सिखाया, उसी ने बताया कि प्यार से बढ़कर हमारी अपनों के प्रति जिम्मेदारियां होतीं हैं।।
क्या सच में कोई किसी से इतना प्रेम कर सकता है कि खुद को छोड़ने के लिए कह दें, बंसी ने पूछा।।
हाँ, बंसी! वो ऐसी ही थी, जीवन लाल जी बोले।।
तो पूरी कहानी सुनाइए ना बड़े भइया, बंसी बोला।।
तो सुन पूरी कहानी, वो एक नाचने गाने वाली थीं, अपना कहने के लिए कोई भी नहीं था उसका, था एक आदमी जिसे वो मुँहबोला बाप कहती थीं क्योंकि उसे ही उसने सड़क से उठाकर पाल पोस कर बड़ा किया था, कहने के लिए एक और इंसान उसका अपना था और वो था चाय पहुँचाने वाला मन्नू, जो उसे अपनी माँ जैसा ही मानता था, उनके बीच भाई बहन का रिश्ता था।।
मेरी उससे पहली मुलाकात एक जुएँ के अड्डे पर हुई थीं, जहाँ वो नाच गाकर कुछ पैसे कमाने आईं थी और मैं मुजरिमों को पकड़ने____
जीवनलाल जी ने अपनी कहानी बंसी को सुनाना शुरु किया____
बात उस समय की है, जब मैं नया नया हवलदार हुआ था, उन दिनों कोई जरा सा भी पढ़ा लिखा हो तो नौकरी आसानी से मिल जाती थी, सारे नियम-कानून अभी भी अंग्रेजी शासन वाले ही थे, मैं नया नया भरती हुआ था , ज्यादा उमर भी नहीं थी मेरी इसलिए थानेदार साहब बोले___
जीवन! जल्दी तरक्की पाना चाहते हो।।
मैंने कहा__ हाँ, हुजूर!
उन्होंने पूछा__ जासूसी करोगे तो जल्दी सबकी नजरों में आओगे और तरक्की भी आसानी से मिल जाएगी।।
मैं राजी हो गया, मैंने उनसे पूछा कि क्या करना होगा?
वो बोले___ थोड़ा जोखिम हैं, कभी कभार चोट भी लग सकती है।।
मैंने कहा__मंजूर है।।
वो बोले__ तेरा बाप भी इसी तरह बहादुर और ईमानदार था, काश उसे तपेदिक ना होता तो वो आज हमारे साथ होता।।
मैंने कहा__हाँ, हूजूर! वही कोशिश है कि अपने पिता का नाम रोशन कर सकूँ।।
हाँ, मैं भी यही चाहता हूँ, जीवन! कि तुम अपनी बूढ़ी का सहारा बनकर उन्हें खुशी दे सको, तुम्हारे बाप के जाने के बाद कैसे उसने दूसरों के घरों पर झाड़ू बरतन करके तुझे बड़ा किया है लेकिन फिर गाँव लौटकर नहीं गई, कहती थी अगर गाँव चली गई तो जीवन की पढ़ाई छूट जाएगी, वो भी अपने पिता की तरह हवलदार बनेगा, बहुत मेहनत की है बेचारी ने, अब तुम ये कोशिश करो कि तुम्हारी माँ की तपस्या विफल ना जाए, थानेदार साहब बोले।।
मैंने कहा__जी हुजूर!
थानेदार साहब बोले__तो फिर देर किस बात की, एक गैरकानूनी जुएँ का अड्डा है, हमने कई बार कोशिश की लेकिन वो हर बार चकमा देकर भाग जाते हैं, तुम भी एक कोशिश करके देख लो, एक दो दिन उन सब की जासूसी करो फिर देखते है उस अड्डे पर छापा कैसे मारना है?
मैंने कहा_ जी हुजूर !एक दो दिन में ही सारी खबर आप तक पहुँचाता हूँ।।
मुझे तुम से यही आशा थी और थानेदार साहब चले गए।
एक दो दिन में ही मैंने जुएँ के अड्डे के विषय में सब पता कर लिया और जाकर थानेदार साहब को खबर दी।।
थानेदार साहब बोले___ ये तुम्हारे लिए अच्छा मौका है, कुछ हवलदारों को सादे कपड़ों में ले जाकर उस अड्डे पर छापा मारो।।
फिर क्या था? मैं उस जुएँ के अड्डे पर कुछ और हवलदारों के साथ छापा मारने पहुँच गया, मैं और दो तीन लोग और भी अपनी वर्दी में थे, उस समय हवलदारों की वर्दी में हाँफ पैंट होता था, जूते नहीं मिलते थे, कोल्हापुरी चप्पल मिला करती थी, बिल्ले पर नाम नहीं लिखा होता बस एक नम्बर लिखा होता था, मेरा नम्बर था दो सौ बाईस, चूँकि हम हवलदारों की ड्यूटी ज्यादातर रात को लगती थी इसलिए हमें एक लम्बा सा ओवरकोट भी मिलता था।।
उस रात हम सब छुपकर सारी गतिविधियाँ देखते रहे, फिर हमें लगा कि यही मौका है, बस फिर क्या था, हम सब अपनी योजना को सफल बनाने में लग गए।।
पहले सादी वर्दी वालों ने दरवाजा खटखटाया, उन लोगों को लगा कि कोई खतरे वाली बात नहीं हैं तो वो निश्चिंत हो गए, कुछ देर बाद हम वर्दी वाले पहुंचे और सादी वर्दी वालों ने हमारे लिए दरवाजा खोल दिया और हम लोगों ने भीतर घुसते ही डंडों और घूसों से उन सबकी पिटाई करनी शुरू कर दी, तभी किसी ने बत्ती बंद कर दी, बत्ती जली तो कोने में एक लड़की डरी हुई सी खड़ी थी।।
मैंने उसके ऊपर अपना ओवरकोट डाल दिया, बत्ती फिर बंद हो गई, बत्ती जलते ही उन सब लोगों को पकड़ लिया गया, इसी बीच मैंने उसे इशारा किया कि वो खिड़की से कूदकर भाग जाए और उसने ऐसा ही किया, वो भाग गई।।
मैं उन सबको पकड़कर अड्डे से बाहर आया तो तब तक थानेदार साहब भी पहुंच गए थे, उन्होंने मुझे शाबासी दी और बोले कि बहुत अच्छे जीवन!अगर ऐसे ही ईमानदारी से काम करते रहोगे तो जल्द ही थानेदार बन जाओगे और ये उँगली में क्या हुआ, जाओ जल्दी से पट्टी बाँधो, आगे से जरा सावधानी बरतना कि चोट वगैरह ना लगे।।
मैंने कहा, जी हुजूर!
मैंने उन्हें सेल्यूट किया और वो सारे मुजरिमों को लेकर चले गए।।
अँधेरी और सुनसान सड़क थीं, मैं भी अपने घर की ओर बढ़ने लगा, तभी वो कहीं से निकलकर आई और अपनी साड़ी के पल्लू से किनारी फाड़कर मेरी उँगली में पट्टी बाँधते हुए बोली___
हाँ...हाँ..तुम क्यों नहीं बनोगे थानेदार? पहले हवलदार, फिर थानेदार, फिर सुप्रीटेंडेंट और ऐसे ही गरीबों की बद्दुआ लेते रहोगे तो एक दिन राजा भी बन जाओंगे।।
उसकी बात सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मेरे मुंह से भी निकल गया___
कौन गरीब? तुम जैसी वैश्या! भोले भाले लोगों की जेबें काटने वाली और गरीब।।
वो बोली___
यही तो मैं कह रही हूँ कि हम भोले भाले लोगों की जेबें काटते हैं और तुम गले।।
मुझे और भी गुस्सा आया और मैं बोला___
ए! तू मुझे क्या समझती है।।
वो बोली__
पुलिस और क्या?
मैंने कहा__
बदमाश! उपकार का ये बदला।।
उसने कहा___
उपकार! कैसा उपकार...?पैसे के लालच में सब उपकार करते हैं, चलो ना मेरे घर क्या सोचते हो? हवलदार साहब! आप मुझे छोडे़गे थोड़ी, आज नहीं तो कल कुछ ना कुछ वसूल जरूर करेंगे।
मुझे उसकी बातें सुनकर और भी गुस्सा आ गया फिर मैं बोला___
भूला मैं, बहुत बड़ी भूल की मैंने जो तुझे बचाया।।
वो भी कहाँ चुप रहने वाली थी? वो बोली___
भूले! तो भूल सुधारो, अब ना भूलना।।
मैंने कहा__
अच्छा! चल चौकी पर, अभी सुधारता हूँ भूल।।
वो बोली___
हाँ! चलो, डरती हूँ क्या? तुम्हारी चौकी से।।
मैंने कहा__
हाँ! जब टाट की वर्दी पहनकर पत्थर फोड़ेगी, तब पता चलेगा।।
उसने कहा___
अरे, छोड़ो साहब! टाट की वर्दी से ना डराओ, इससे पहले रास्तों में मैंने फटे कपड़ों में दिन काटें हैं।।
मैंने पूछा___
क्यों?
वो बोली__
मज़े के लिए ज़री की साड़ी से जी जो भर गया था।।
मैं बोला___
पर अब तो मज़े हैं ना!
वो बोली___
बहुत...कोई शराब की कुल्ली हमारे मुंह पर डालता है, कोई अपनी खुशी के लिए बाल खींचता है और हम ही -ही करके हँसते हैं, क्यों हैं ना मज़े? मरने के बाद इससे भी ज्यादा।।
मैं बोला__
तो मर।।
वो बोली___
देखती हूँ, अगर मौत से ना मरी तो तुम हो ना।।
मैंने कहा__
चल! अभी दिखाता हूँ, अँधेरी कोठरी, चौकी की।।
तभी सड़क पर मुझे कुछ हवलदार आते हुए दिखे और मैंने उसे दूसरी गली में जाने का इशारा कर दिया और वो चली गई लेकिन उसकी बातों में मुझे उसका गुस्सा और समाज की कड़वीं सच्चाई दिखी, मैं उस दिन खुश था और ये खुशखबरी जल्द से जल्द माँ को सुनाना चाहता था इसलिए उसकी बातों को मैंने ज्यादा मन में नहीं रखा लेकिन उसने जो कहा था वो सच भी तो था, समाज का तिरस्कार झेलते झेलते शायद इंसान की सोच ऐसी ही हो जाती होगी।।
चौकी के पास ही हम हवलदारों की छोटी सी सरकारी कालोनी थी, हम सब आपस में रिश्तेदारों की तरह रहते थे, मेरे ही बगल में हवलदार रामखिलावन भइया और उनकी पत्नी मालती रहते थे, उनकी बेटी मुझे चाचा कहती थी, बहुत ही अच्छा परिवार था, बुरे समय में उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी, वे हमारे गाँव के ही थे, मुझसे पहले ही ये खबर उन्होंने माँ को दे दी थी कि आज जीवन ने बहुत ही बहादुरी का काम किया है, उस दिन माँ बहुत खुश हुई और बोली आज तूने अपने बाप का मान बढ़ा दिया, वो भी आज बहुत खुश होंगे ।।
तभी रामखिलावन भइया की दस साल की बेटी कुसुम आकर बोली___
चाचा! ये चोट कैसे लगी?
मैंने कहा, बेटा! बस मार धाड़ में लग गई।।
तभी मालती भाभी बोली___
ये पट्टी कहाँ से बँधवाई, ये तो किसी की साड़ी का टुकड़ा लगता है, वहाँ तुम्हें कौन मिल गई?
मैंने कहा___
भाभी! तुम भी ना जाने कैसी बातें करती हो? बहुत रात हो गई हैं अब आप लोग आराम करो और मुझे भी करने दो।।
लेकिन जैसे ही मैं बिस्तर पर लेटा आँखों में नींद कहाँ, रह रहकर वहीं लड़की मेरी आँखों के सामने घूम रही थी कितनी हाजिर जवाब थी, लगता है वक्त की बहुत मार पड़ी है तभी उसका व्यवहार इतना रूखा सा हो गया है और यही सोचते सोचते मुझे नींद आ गई।।
ऐसे ही कई दिन बीत गए लेकिन वो लड़की मुझे कहीं ना दिखी, ऐसा नहीं है कि मैंने उसे ढूँढ़ने की कोशिश नहीं की, बहुत ढूँढ़ा लेकिन वो कहीं नहीं मिली, मैं उस दिन के अपने व्यवहार के लिए उससे माफी माँगना चाहता था, सच बात तो ये है कि कोई भी बिना मजबूरी के ऐसा गलत काम नहीं करता, हो सकता है उसकी मजबूरी रही हो तभी वो उस राह पर चल पड़ी।।
सोमवार का दिन था, उस दिन मेरी छुट्टी थी, वैसे भी हफ्ते में एक दिन छुट्टी होती थी मेरी वो भी सोमवार को, माँ बोली बेटा कुछ सब्जी-भाजी खरीद ला।।
मैंने माँ से पूछा कि क्या क्या लाना है?
माँ बोली तुझे जो पसंद हो तो ले आना,
मैंने कहा ठीक हैं माँ !और इतना कहकर मैं हाट की ओर चल पड़ा, हाट पहुँच कर देखा तो वो फूल की दुकान से माला खरीद रही थी, जैसे ही उसकी नज़र मुझ पर पड़ी वो फौरन ही चिल्ला उठी___
अरे, हवलदार साहब!
मैं उसे देखकर बहुत खुश हुआ।।
वो बोली, सब्जी खरीद रहे हो।।
मैंने कहा, हाँ!
उसने भी कुछ और समान खरीदा और मैंने भी, फिर मैं बाजार से आने लगा तो वो बोली___
चलो ना घर!!
मैंने पूछा , किसके?
वो बोली, मेरे घर।।
मैंने कहा, मैं जाऊँ और तुझ जैसी के घर।।
वो बोली, तुम अपने आप को क्या समझते हो।।
मैं बोला, समझता तो हूँ ही, तभी तो तेरे घर नहीं जाना चाहता।।
वो बोली, क्या हम इंसान नहीं हैं, हम जैसे लोगों से इतनी नफरत, खा नहीं लूँगी तुम्हें, इतना डरते हो, नन्हे- मुन्ने बच्चे कहीं के और अगर घर जाते वक्त रास्ता भूल गए तो तुम्हें घर भी पहुँचा आऊँगी।।
उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई और मैं उसके घर जाने को राजी हो गया।।
मैं उसके घर पहुंचा, एक छोटा सा कमरा था, लेकिन उसने बहुत ही करीने से उसे सजा रखा रखा था, इसलिए कमरा देखने में सुन्दर लग रहा था, छोटा सा मंदिर भी बना रखा था एक अलमारी में।।
उसने मुझे एक छोटी सी लकड़ी की बनी चौकी पर बैठने को कहा, मैं बैठ गया और वो फौरन मेरे लिए एक काँच के गिलास में मटके का ठंडा पानी ले आई फिर बगल में कोने में रखें स्टोव को जलाकर कर चाय चढ़ा दी, झोले से फूलों की माला निकाली और मंदिर में रख दी।
जब चाय बन गई तो एक कप में छानकर और कुछ दालमोंठ के साथ मेरे सामने रखकर बोली___
लो हवलदार साहब! चाय पियो।।
मैंने कहा__
इसकी क्या जरूरत थी?
मेरे हाथ की चाय पीने से तुम्हारा धर्म भ्रष्ट नहीं हो जाएगा, वो बोली।।
मैंने ऐसा तो नहीं कहा था, मैं बोला।।
मुझे लगा शायद तुम्हारे कहने का यही मतलब हो, वो बोली।।
फिर मैंने पूछा__
तुम चाय नहीं पीओगी।।
वो बोली__
आज सोमवार का व्रत है मेरा।।
तुम जैसे लोग भी व्रत रखते हैं, विश्वास नहीं होता हैं, मैंने कहा।।
वो बोली__
बस, नजर नजर का फर्क है हवलदार साहब!
मैंने चाय खतम की ही थी कि वो मुझे कुछ रुपए देते हुए बोली__
लो रख लो हवलदार साहब!
मैंने पूछा__
किसलिए?
उसने कहा__
उस दिन के लिए, मुझे बचाया था ना!
मुझे बहुत गुस्सा आया और वो रुपए मैंने उसके मुंह पर फेंक कर मारे।।
वो बोली__
कम है क्या?
अब तो मेरे गुस्से का पार ना था, मैंने कहा___
बस, इतना ही समझीं मुझे।।
वो बोली__
माफ़ करना हवलदार साहब, मुझे लगा आप भी और पुलिस वालों की तरह होंगे।।
फिर मैंने पूछा___
तू उस रात वहाँ क्या करने गई थी?
वो बोली__
जी बहलाने।।
मैंने कहा__
जी बहलाने, ये क्या बात हुई भला?
वो बोली__
हमारे कौन सा परिवार और बाल-बच्चे बैठे है यहाँ, जी बहलाने को।।
फिर मैंने पूछा__
तुम लोगों का भी जी करता है परिवार के साथ रहने को।।
वो बोली__
चलो, छोड़ो हवलदार साहब! आप नहीं समझोगे और उसकी आंखें छलक आईं।।
मैने पूछा__
तेरा नाम क्या है?
वो बोली__
केशर।।
फिर मैंने कहा__
अच्छा! मैं चलता हूँ।।
वो बोली__
जरा, ठहरो साहब!
और भगवान की अलमारी में रखी माला , मेरे पैरों में डालकर मेरे चरण स्पर्श करते हुए बोली__
आज मेरा व्रत था और साक्षात् भगवान के दर्शन हो गए।।
और मैं उसके घर से वापस चला आया।।
बाहर आया तो राम खिलावन भइया मिल गए उन्होंने पूछा भी इधर कहाँ आए थे।।
मैंने कहा, ऐसे ही ।।
भाई, ऐसी गलत जगह मत आया करो, जादू करके लूट लेंती हैं, फिर कभी मैं तुझे यहाँ ना देखूँ।।
मैंने कहा, ठीक है भइया।
घर आकर देखा तो माँ कुछ पढ़ रही थी।।
मैंने माँ से पूछा कि क्या पढ़ रही हो__
वो बोली सूरदास जी को पढ़ रही थी, उसमें जो चिन्तामणि है वो वैश्या होकर भी कितनी भली है।।
तुम्हें भी ऐसा लगता हैं माँ, मैंने पूछा।।
क्या वो इंसान नहीं होते, क्या उनके पास दिल नहीं होता, माँ ने जवाब दिया।।
बहुत दिन हो गए थे केशर से मिले हुए, एक दिन मैं अपने कपड़े धो रहा था, तभी मुझे जेब में से वो साड़ी का टुकड़ा मिला जो केशर ने मेरी उँगली पर बाँधा था, मन में सोचा कि आज मैं उससे मिलने जाऊँगा।।
रात मैं निकल पड़ा ड्यूटी करने, सड़क पर गश्त लगा रहा था, तभी किसी ने पीछे से आवाज़ दी___
अजी, दो सौ बाईस, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो केशर थी वो मेरे पास आकर बोली___
ये लो तुम्हारी छतरी॥
अरे, शायद उस दिन तेरे यहाँ रह गई थी, तू तो ईमानदार दिखती हैं, मैं बोला।।
तो क्या सब चोर हैं, कोई कोई भला भी होता हैं, वो बोली।।
मगर, इतनी भली होगी, ये मैं नहीं समझता था, मैं बोला।।
मैं क्या समझतीं हूँ, वो कहूँ, वो बोली।।
क्या? मैंने पूछा।।
तुम बहुत ही भोले हो, वो बोली।।
भोला और मैं, भोला होता तो तुझे बराबर पहचानता ही नहीं, मैंने कहा।।
सच कहा तुमने, तुम्हें बहुत अच्छे से औरतों की पहचान करनी आती हैं, घरवाली तो चुनकर लाए होगे, वो बोली।।
नहीं, मैंने कहा।।
नहीं, मतलब, उसने पूछा।।
नहीं, मेरी तो घरवाली ही नहीं, मैं बोला।।
तो फिर क्यों औरतों की बातें करते हो, औरतों से कभी बातचीत भी की हैं क्या? वो बोली।
बातचीत! मैं बहुत जानता हूँ औरतों के बारे में, मैंने कहा।।
तो फिर बताओ, आज तक किस किस से बातें की, उसने पूछा।।
मैंने कहा, माँ से।।
वो बोली, हाँ वो भी एक औरत हैं और बताओ।।
और... और... और..माँ ही से और हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।।
इस तरह वो मुझसे एक दो दिन मे मिल ही जाती, एक रात वो मुझे बग्घी से उतरते हुए दिखी__
मैंने उससे पूछा__
कहाँ गई थी ?
वो बोली__
नाटक देखने गई थी।।
मैंने कहा, तू तो बहुत पैसे वाली है।।
हाँ मिल जाते हैं कुछ नाच गाकर, वो बोली।।
नाटक ही देखने गई होगी, तू दूसरी औरतों की तरह थोड़े ही हैं, क्यूँ मैंने तुझे पहचान लिया ना कि तू भली है, मुझे भोला समझती थीं, मैं उस पर विश्वास करके चला आया, उसने उस रात झूठ बोला था और वो मुझे सच बताकर दुखी नहीं करना चाहती थीं।।
मैं सड़क पर गश्त ही लगा रहा था कि कहीं से कोई आवाज़ आई , मैंने वहाँ जाकर देखा तो एक सेठ अपने नौकर को मार रहा था, मैंने उसे बचाया और सेठ से सारा माजरा पूछा।।
सेठ बोला, आज इसने पाँच गिलास तोड़ दिए तो क्या इसके बाप से वसूल करूँ।।
लड़का बोला, ए सेठ! बाप तक मत जाना।।
तो इसकी तनख्वाह से काट लो, मैने सेठ से कहा।।
तनख्वाह कहाँ से देगा, ये तो खुद भिखमंगा हैं, वो लड़का बोला।।
सेठ उस लड़के को गालियाँ देने लगा और बोला तो निकाल मेरी अठन्नी, पांच गिलास के इतने ही होते हैं,
लड़का बोला, ए गाली ना निकाल ... गाली ना निकाल, अभी तेरे आठ आने तेरे मुंह पर मारता हूँ।।
मैंने उस लड़के से पूछा__
क्यों रे! कहाँ से लाएगा, आठ आने।।
वो बोला, यहाँ पास में मेरी मुंह बोली बहन केशरबाई रहती हैं, वो मुझे अपना भाई मानती हैं, वो जरूर मुझे पैसे देंगी।।
मैंने उससे पूछा, तेरी आँखों में एक भी आँसू नहीं हैं, इतनी मार खाके।।
वो बोला, हवलदार साहब! दुनिया रोने वालों की नहीं है।।
और हम केशर के यहाँ पहुँचे, देखा तो कमरे का दरवाजा खुला हुआ था और मैं दरवाज़े की आड़ में खड़ा हो गया, वो अपने ग्राहकों के साथ हँस बोल रहीं थीं, उस लड़के ने उससें पैसे माँगे, वो पैसे देने बाहर आई , पैसे देते हुए बोली ले मन्नू और मुझे देखकर चौंक पड़ी।।
उसने मुझसे पूछा कि पानी पीओगे और मैंने कहा क्यों नहीं, वो पानी लेकर आई और सारा गिलास भर पानी मैं उसके मुंह पर उड़ेल कर चला आया।।
वो भागते हुए मेरे पास आई और बोली, ठहरो! किसलिए इतने गुस्से में जा रहें हो।।
मैंने कहा कि मेरे पास आई तो हड्डी पसली तोड़ दूँगा।।
तुम मेरी हड्डी पसली तोड़ेगे, तुम मुझे क्या समझते हो, मैं तुम्हारी गुलाम या पत्नी नहीं हूँ, वो बोली।।
पत्नी होती तो जान ले लेता, बहुत भली बनती है और लोगों को गले लगाकर पैसे कमाती हैं, मैं बोला।।
हाँ! कमाती हूँ, तुम पूछने वाले कौन? वो बोली।।
मैं कौन? उस दिन बेड़ियाँ पहनाता तो पता चलता कि मैं कौन? मैं बोला।।
तो ये उस उपकार का बदला हैं जो रौब जमाते हो, तो ले लेते उस दिन पैसे, दिए तो थे, वो बोली।।
पैसे के लिए नीच से नीच धन्धा करने वाला मैं नहीं, मै बोला।।
तो हवा से पेट भरते हो तुम! वो बोली।।
पेट के लिए तुम ऐसे धन्धे नहीं करती हो, मज़े चाहिए ना! मैं बोला।।
मज़े! लाज नहीं आती तुम्हें, ऐसी बातें करते हुए, सब बड़ी बड़ी बातें करते हैं, कोई मदद नहीं करता, वो बोली।।
बहुत हैं मदद करने वाले, पर तुम कब चाहती हो, यहाँ की चटक हैं ना, मैं बोला।।
चुप रहो! चटक, मज़ा, हमारे दिल का हाल तुम क्या जानो, अच्छा! चलो मैं चलती हूँ तुम्हारे साथ करो मदद, वो बोली।।
जा! यहाँ से , मैंने कहा।।
नहीं जाऊँगी, वो बोली।।
जाती हैं या, मैं बोला।।
नहीं जाऊँगीं.....वो बोली।।
मैंने उसके पैंर में जोर से डन्डा मारकर कहा...जा।।
और उसने गुस्से से मेरा डन्डा खींचकर मुझे मारना चाहा लेकिन बिना मारे ही डन्डा जमीन पर फेंककर चली गई, मुझे भी बहुत गुस्सा आया और मैंने डन्डा उठाया और खुद को उसी जगह जोर से मारा जहाँ उसे मारा था।।
थोड़ी देर में अपने सन्दूक और बिस्तर बंद को मन्नू के ऊपर लदाए हुए वो मेरे पास आ पहुँची और बोली___
ए रूको, मैं भी चलूँगी।।
कहाँ, मैंने पूछा।।
तुम्हारे साथ, हाँ तुम्हारे साथ, वो बोली।।
क्या? मैं बोला।।
क्या मतलब क्या? आप ही कह गए थे ना, इसलिए मैं आ गई, वो बोली।।
तो क्या अभी मेरे साथ चलेगी, मैंने पूछा।।
क्यों ना चलूँ, उलझन में क्यों हो, वो बोली।।
उलझन नहीं, मगर दुनिया क्या कहेंगी, मैं बोला।।
क्यों और क्या? अभी कुछ देर पहले तो बहुत बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे, उस वक्त मर गई थी क्या तुम्हारी दुनिया, सब ऐसे ही हैं, जो आता है वहीं सज्जन बनता है, मज़े और मतलब के लिए सज्जनपना दिखाते हैं और बनाना चाहते हैं हमें सती सावित्री, दिल की आशा थी कि तुम साथ दोगे, एक ने भली को बुरी बनाया और क्या तुम बुरी को भली नहीं बना सकते, फिर दुखी होकर बोली, मन्नू चल वापस, भरम टूट गया रे! हम जैसो का इस दुनिया में कोई नहीं होता, वो बोली।।
ठहरो... मैंने कहा।।
क्रमशः....
सरोज वर्मा...