सूने उदधि की लहर
धीर बधिर
सूने क्षितिज का आत्मलीन आलोक
अधूरा, धूसर, अन्धा
टकराहट चट्टानों पर
थोथे थप्पड़ की
जल के
उड़े झाग की चिनियाहट
गालों पर,
आँखों में किरकिरी रेत
अर्थहीन मँडराते कई क्रौंच
हकलाते-से जब-तब कराहते हलके ।
यह क्षण यह चित्र
दरिद्र ?
अ-मूल ? अमोल ?
विलीयमान ? चिर ?