जब-जब कहता हूँ
ओः, तुम कितने बदल गये हो!
जब-तब पहचान एक मुझ में जगती है।
जब-जब दुहराता हूँ
अब फिर तो ऐसी भूल नहीं हो सकती
तब-तब यह आस्था ही मुझ को ठगती है।
क्या कहीं प्यार से इतर
ठौर है कोई जो इतना दर्द सँभालेगा?
पर मैं कहता हूँ
अरे आज पा गया प्यार मैं, वैसा
दर्द नहीं अब मुझ को सालेगा!