न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर
शून्य में जा विलय होगा
किंतु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है
उस में एक रूपातीत ठण्डी ज्योति है ।
तब फिर शून्य कैसे हैं-कहाँ हैं ?
मुझे फिर आतंक किस का है ?
शून्य को भजता हुआ भी मैं
पराजय को बरजता हूँ ।
चेतना मेरी बिना जाने
प्रभा में निमजती है
मैं स्वयं
उस ज्योति से अभिषिक्त
सजता हूँ ।