मैंने कहा
कि 'चिड़िया'
मैं देखता रहा
चिड़िया चिड़िया ही रही ।
फिर-फिर देखा
फिर-फिर बोला,
'चिड़िया' ।
चिड़िया चिड़िया ही रही ।
फिर-जाने कब-
मैंने देखा नहीं
भूल गया था मैं क्षण-भर को तकना !
मैं कुछ बोला नहीं
खो गई थी क्षण-भर को स्तब्ध चकित-सी वाणी,
शब्द गए थे बिखर, फटी छीमी से जैसे
फट कर खो जाते हैं बीज
अनयना रवहीना धरती में
होने को अंकुरित अजाने
तब-जाने कब
चिड़िया ने ही कहा
कि 'चिड़िया' ।
चिड़िया ने ही देखा
वह चिड़िया थी ।
चिड़िया
चिड़िया नहीं रही है तब से
मैं भी नहीं रहा मैं ।
कवि हूँ !
कहना सब सुनना है,स्वर केवल सन्नाटा ।
कहीं बड़े गहरे में
सभी स्वैर हैं नियम,
सभी सर्जन केवल
आँचल पसार कर लेना ।