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अपलक रूप निहारूँ

24 जून 2022

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   अपलक रूप निहारूँ

   तन-मन कहाँ रह गये?

  चेतन तुझ पर वारूँ,

 अपलक रूप निहारूँ!


  अनझिप नैन, अवाक् गिरा

  हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना

  पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से

  मैं आरती उतारूँ।

 अपलक रूप निहारूँ।

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रचनाएँ
अरी ओ करुणा प्रभामय
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अज्ञेय जी का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 में उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ। इस कविता का संदेश है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए व्यक्ति का गुण उसका कौशल उसकी रचनात्मकता समाज के काम आनी चाहिए। जिस तरह एक दीपक के लिए अकेले जलने से बेहतर है, दीपकों की कतार में जलना। उसी तरह व्यक्ति के लिए समाज से जुड़े रहकर अपने जीवन को सार्थक बनना चाहिए। अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है। उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।” जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। एक लंबी साधना प्रक्रिया से गुजरता है। वह अपने आत्म को उस परम सत्ता में विलीन कर देता है। इसलिए आत्म विसर्जन के जरिये वह स्वयं को परम सत्ता से जोड़ देता है। यही पूरी कविता की मूल संवेदना है
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हे अमिताभ

24 जून 2022
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हे अमिताभ ! नभ पूरित आलोक, सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक  हे अवलोकित हे हिरण्यनाभ !

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धरा-व्योम

24 जून 2022
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हे अमिताभ ! नभ पूरित आलोक, सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक : हे अवलोकित हे हिरण्यनाभ !

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सोन-मछली

24 जून 2022
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हम निहारते रूप काँच के पीछे हाँप रही है, मछली । रूप तृषा भी (और काँच के पीछे) हे जिजीविषा ।

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दीप पत्थर का

24 जून 2022
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दीप पत्थर का लजीली किरण की पद चाप नीरव : अरी ओ करुणा प्रभामय ! कब ? कब ?

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हम कृती नहीं हैं

24 जून 2022
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हम कृति नहीं हैं कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्। क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब इस विलास का योग मिला ?—जो हों, इतने भर को ही भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ? हम हुए, यही बस, नामहीन ह

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सुख-क्षण

24 जून 2022
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यह दु:सह सुख-क्षण मिला अचानक हमें अतर्कित। तभी गया तो छोड़ गया यह दर्द अकथ्य, अकल्पित। रंग-बिरंगी मेघ-पताकाओं से घिर आया नभ सारा : नीरव टूट गिर गया जलता एक अकेला तारा।

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चाँदनी चुप-चाप

24 जून 2022
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चाँदनी चुप-चाप सारी रात सूने आँगन में जाल रचती रही। मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम आँच पर तँचती रही। व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही। मैं दम साधे रहा,

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सपने का सच

24 जून 2022
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सपने के प्यार को तुम्हें दिखाऊँ यों सच को सुन्दर होने दूँ। सपने के सुन्दर को प्यार करूँ, सब को दिखलाऊँ सच होने दूँ। पर सपने के सच को किसे दिखाऊँ जिस से वह सुन्दर हो और उसे कर सकूँ प्यार?

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प्याला : सतहें

24 जून 2022
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वह जगमग एक काँच का प्याला था जिस में मद-भरमाये हम ने भर रक्खा तीखा भभके-खिंचा उजाला था। कौंध उसी की से वह फूट गया। उस में जो रस था (मद?) मिट्टी में रिस वह धीरे-धीरे सूख गया पर रस की प्यास

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ब्राह्म मुर्हूत : स्वस्तिवाचन

24 जून 2022
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जियो उस प्यार में जो मैं ने तुम्हें दिया है, उस दु:ख में नहीं, जिसे बेझिझक मैं ने पिया है। उस गान में जियो जो मैं ने तुम्हें सुनाया है, उस आह में नहीं, जिसे मैं ने तुम से छिपाया है। उस द्व

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एक प्रश्न / अरी ओ करुणा प्रभामय

24 जून 2022
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क्या घृणा की एक झौंसी साँस भी छू लेगी तुम्हारा गात प्यार की हवाएँ सोंधी यों ही बह जाएँगी? एक सूखे पत्ते की ही खड़-खड़ बाँधेगी तुम्हारा ध्यान लाख-लाख कोंपलों की मृदुल गुजारें अनसुनी रह जाएँगी?

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मोह-बंध

24 जून 2022
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मोह-बन्ध हम दोनों एक बार जो मिले रहे फिर मिले, इसे क्या कहूँ  कि दुनिया इतनी छोटी है या इतनी बड़ी? हम में जो कौंध गयी थी एक बार पहचान, उसी में आज जुड़ी जो नयी कड़ी क्या कहूँ इसे  इतिहास दुब

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चेहरे असंख्य

24 जून 2022
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चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं, दर्द सभी में था जीवन का दंश सभी ने जाना था। पर दो केवल दो मेरे मन में कौंध गयीं। क्यों? क्या उन में अतिरिक्त दर्द था जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा, या मुझ में

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हरा-भरा है देश

24 जून 2022
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हरे-भरे हैं खेत मगर खलिहान नहीं  बहुत महतो का मान मगर दो मुट्ठी धान नहीं। भरा है दिल पर नीयत नहीं  हरी है कोख-तबीयत नहीं। भरी हैं आँखें पेट नहीं  भरे हैं बनिये के कागज टेंट नहीं। हरा-भरा

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शब्द और सत्य

24 जून 2022
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यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है  दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है  दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं मैं कब, कैसे,

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पगली आलोक-किरण

24 जून 2022
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ओ तू पगली आलोक-किरण, सूअर की खोली के कर्दम पर बार-बार चमकी, पर साधक की कुटिया को वज्र-अछूता अन्धकार में छोड़ गयी?

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जागरण-क्षण

24 जून 2022
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बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उस को वापस माँगे? मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ वह क्षण जिस में मैं जागा हूँ।

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तू-मैं

24 जून 2022
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तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे जिस को तिस को देता जा मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ। तू जहाँ कहीं जी करे घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ। तू स

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रात कटी

24 जून 2022
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  किसी तरह रात कटी   पौ फटी मायाविनी छायाओं की   काली नीरन्ध्र यवनिका हटी।   भोर की स्निग्ध बयार जगी,      तृण-बालाओं की मंगल रजत-कलसियों से      कुछ ओस बूँद झरे,      चिड़ियों ने किया रोर,  

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पहेली

24 जून 2022
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गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल, शिष्य से बोले  'कहाँ चला ले जाल अभी ? पहले मछलियाँ पकड़ तो ला ?' तकता रह गया बिचारा भौंचक । बीत गए युग । चले गए गुरु । बूढ़ा, धवल केश, कुंचित मुख चेला सोच रहा

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अपलक रूप निहारूँ

24 जून 2022
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   अपलक रूप निहारूँ    तन-मन कहाँ रह गये?   चेतन तुझ पर वारूँ,  अपलक रूप निहारूँ!   अनझिप नैन, अवाक् गिरा   हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना   पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से   मैं आरती उतारूँ।  अपलक

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रात भर आते रहे सपने

6 जुलाई 2022
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      रात-भर आते रहे सपने      रात-भर आते रहे सपने       एक भी अच्छा नहीं था।      किन्तु वास्तव जगत में मुझ को अनेकों बार      सुख मिलता रहा है।      रात भी जब जगा      शय्या सुखद ही थी।  

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कवि कर्म

6 जुलाई 2022
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     ब्राह्म वेला में उठ कर      साध कर साँस      बाँध कर आसन      बैठ गया कृतिकार रोध कर चित्त     ‘रचूँगा।’      एक ने पूछा : कवि ओ, क्या रचते हो?      कवि ने सहज बताया।      दूसरा आया।-अरे

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रूप-केकी

6 जुलाई 2022
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     रूप-केकी नाचते हैं,      सार-घन! बरसो।      बहुत विस्मृत, बहुत सूना      है गगन जिस को नहीं      उन की पुकारें भर सकेंगी,      बहुत है गरिमा धरा की      नहीं उस के कर्ष-बल से आत्म-विभोर भ

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रात और दिन

6 जुलाई 2022
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     रात बीतती है      घर के शान्त झुटपुटे कोने में      सब माँगें पंछी-सी डैनों में सिर खोंस      जहाँ पर अपने ही में खो जाती हैं,      तनी साँस भी स्वस्ति-भाव से      आ जाती है सहज विलम्बित ल

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औद्योगिक बस्ती

6 जुलाई 2022
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पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर धुआँ उगलती जाती हैं। भीतर जलते लाल धातु के साथ कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी तप्त उबलती जाती हैं। बंधी लीक पर रेलें लादें म

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लौटे यात्री का वक्तव्य

6 जुलाई 2022
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     सभी जगह जो उपजाता है अन्न, पालता सब को,      उस की झुकी कमर है।      सभी जगह जो शास्ता है,      जो बागडोर थामे है, उस की दीठ मन्द है-      आँखों पर है चढ़ा हुआ मोटा चश्मा जो      प्रायः धू

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सागर पर भोर

6 जुलाई 2022
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बहुत बड़ा है यह सागर का सूना बहुत बड़ा यह ऊपर छाया औंधा खोखल । असमंजस के एक और दिन पर, ओ सूरज, क्यों, क्यों, क्यों यह तुम उग आए ?

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सांध्य तारा

6 जुलाई 2022
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     साँझ। बुझता क्षितिज।      मन की टूट-टूट पछाड़ खाती लहर।      काली उमड़ती परछाइयाँ।      तब एक तारा भर गया आकाश की गहराइयाँ।

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मैं ने कहा, पेड़

6 जुलाई 2022
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     मैं ने कहा, ‘‘पेड़, तुम इतने बड़े हो,      इतने कड़े हो, न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में      सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।      सूरज उगता-डूबता है, चाँद भरता-छीजता है      ऋतुएँ ब

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सागर पर साँझ

6 जुलाई 2022
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     बहुत देर तक हम चुपचाप      देखा किये सागर को।      फिर कुछ धीरे से बोला     ‘‘हाँ, लिख लो मन में इस जाती हुई धूप को,      चीड़ों में सरसराती हुई इस हवा को,      लहरों की भोली खिलखिलाहट को 

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मानव अकेला

6 जुलाई 2022
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    भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं      वह सहसा दिख जाता है      मानव अंगारे-सा-भगवान्-सा      अकेला।      और हमारे सारे लोकाचार      राख की युगों-युगों की परते हैं।

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सागर-तट : सांध्य तारा

6 जुलाई 2022
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     मिटता-मिटता भी मिटा नहीं आलोक,      झलक-सी छोड़ गया सागर पर।      वाणी सूनी कह चुकी विदा  आँखों में      दुलराता आलिंगन आया मौत उतर।      एक दीर्घ निःश्वास       व्योम में सन्ध्या-तारा   

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हवाई अड्डे पर विदा

6 जुलाई 2022
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उड़ गया गरजता यन्त्र-गरुड़ बन बिन्दु, शून्य में पिघल गया। पर साँप? लोटता डसता छोड़ गया वह उसे यहीं पर आँखों के आगे धीर-धीरे सब धुँधला होता आता है मैदान, पेड़, पानी, गिरि, घर, जन-संकुल।

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मैंने देखा एक बूँद

6 जुलाई 2022
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मैंने देखा एक बूँद सहसा उछली सागर के झाग से रँगी गई क्षण भर ढलते सूरज की आग से। मुझको दीख गया  सूने विराट् के सम्मुख हर आलोक-छुआ अपनापन है उन्मोचन नश्वरता के दाग से!

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प्राप्ति

6 जुलाई 2022
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स्वयं पथ-भटका हुआ खोया हुआ शिशु जुगनुओं को पकड़ने को दौड़ता है किलकता है  पा गया! मैं पा गया!’

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धूप

6 जुलाई 2022
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सूप-सूप भर धूप-कनक यह सूने नभ में गयी बिखर चौंधाया बीन रहा है उसे अकेला एक कुरर।

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न दो प्यार

6 जुलाई 2022
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न दो प्यार खोलो न द्वार तुम कोई इस अन्धी दिवार में  पा लूँगा दरार मैं कोई। हो न सकूँगा पार न हो : मैं बीज उसी में डालूँगा : वह फूटेगा : डार-डार   से उस की झूमेगा फल-भार। नहीं तो और कौन है द्वार

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पगडंडी

6 जुलाई 2022
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 यह पगडंडी चली लजीली  इधर-उधर, अटपटी चाल से नीचे को, पर वहाँ पहुँच कर घाटी में-खिलखिला उठी। कुसुमित उपत्यका।

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यह मुकुर

6 जुलाई 2022
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यह मुकुर दिया था तू ने  आज यह मुझ से टूट गया। यों मोह कि तेरे प्रिय की छवि को बार-बार मैं देखूँ-छूट गया। उस दिन यह मुकुर रचा तेरा, तेरे हाथों में टूटेगा, मोह दूसरा पात्र प्यार का रचने का उस द

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सागर-चित्र

6 जुलाई 2022
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  सूने उदधि की लहर धीर बधिर  सूने क्षितिज का आत्मलीन आलोक अधूरा, धूसर, अन्धा  टकराहट चट्टानों पर थोथे थप्पड़ की जल के  उड़े झाग की चिनियाहट गालों पर, आँखों में किरकिरी रेत  अर्थहीन मँड

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नया कवि : आत्म स्वीकार

6 जुलाई 2022
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किसी का सत्य था मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया। कोई मधु-कोष काट लाया था मैं ने निचोड़ लिया। किसी की उक्ति में गरिमा थी मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया, किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैं ने

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नए कवि से

6 जुलाई 2022
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  आ, तू आ, हाँ, आ,      मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,      मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता      आ, तू आ।      तेरा कहना है ठीक : जिधर मैं चला      नहीं वह पथ था :      मेरा आग्रह भी

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यह कली

6 जुलाई 2022
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     यह कली      झुटपुट अँधेरे में पली थी देहात की गली में;      भोली-भली नगर के राज-पथ, दिपते      प्रकाश में गयी छली।      झरी नहीं, बही कहीं      तो निकली नहीं,      लहर कहाँ? भँवर फँसी।  

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रोपयित्री

6 जुलाई 2022
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     गलियारे से जाते-जाते      उन दिन लख भंगिमा तुम्हारी      और हाथ की मुद्रा,      यही लगा था मुझे      खेत में छिटक रही हो बीज।      किन्तु जब लौटा, देखा      भटके डाँगर रौंद गये हैं सभी क्

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बड़ी लम्बी राह

6 जुलाई 2022
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न देखो लौट कर पीछे वहाँ कुछ नहीं दीखेगा न कुछ है देखने को उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं अनुभूति के तेज़ाब से राह चलते बड़ी लम्बी राह। गा रही थी एक दिन उस छोर

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इशारे जिंदगी के

6 जुलाई 2022
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 ज़िन्दगी हर मोड़ पर करती रही हम को इशारे      जिन्हें हम ने नहीं देखा।      क्यों कि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की      और, हम ने बाँधने से पूर्व देखा था      हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं।  

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नए कवि

6 जुलाई 2022
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     शक्ति का मत गर्व कर      तू उपशमन का कर,      हीं रूपाकार को, उस में      छिपा है सार जो, वह वर!      अनुभूति से मत डर-मगर पाखंड उस के दर्द का मत कर       नहीं अपने-आप जो स्पन्दन डँसे    

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बाँगर और खादर

6 जुलाई 2022
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बाँगर में राजाजी का बाग है, चारों ओर दीवार है जिस में एक ओर द्वार है, बीच-बाग़ कुआँ है बहुत-बहुत गहरा। और उस का जल मीठा, निर्मल, शीतल। कुएँ तो राजाजी के और भी हैं -एक चौगान में, एक बाज़ार में

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वहाँ पर बच जाय जो

6 जुलाई 2022
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     जहाँ पर धन      नहीं है राशि वह जिस को समुद      तेरे चरण पर वार दूँ      जहाँ पर तन      नहीं है थाती-मिली वह धूल पावन      जिस में चोले समान उतार दूँ      जहाँ पर मन नहीं है यज्ञ का दुर

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जीवन-छाया

6 जुलाई 2022
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पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ, अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल पर तल-पर, भीतर, नीचे पथरीले-रेतीले थल पर  अरे, उसे ये पल-पल भेद-भेद जाती है कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियाँ।

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मछलियाँ

6 जुलाई 2022
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न जाने मछलियाँ हैं भी या नहीं      आँखें तुम्हारी      किन्तु मेरी दीप्त जीवन-चेतना निश्चय नदी है      हर लहर की ओट जिस की उन्हीं की गति      काँपती-सी जी रही है      पिरोती-सी रश्मियाँ हर बूँद

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उन्मत्त

6 जुलाई 2022
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     सूँघ ली है साँस भर-भर      गन्ध मैं ने इस निरन्तर      खुले जाते क्षितिज के उल्लास की,      खा गया हूँ नदी-तट की      लहराती बिछलन जिसे सौ बार      धो-धो कर गयी है अंजली वातास की,      पी

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जब-जब

6 जुलाई 2022
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      जब-जब कहता हूँ      ओः, तुम कितने बदल गये हो!      जब-तब पहचान एक मुझ में जगती है।      जब-जब दुहराता हूँ       अब फिर तो ऐसी भूल नहीं हो सकती      तब-तब यह आस्था ही मुझ को ठगती है।     

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हिरोशिमा

6 जुलाई 2022
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एक दिन सहसा सूरज निकला अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक  धूप बरसी पर अंतरिक्ष से नहीं, फटी मिट्टी से। छायाएँ मानव-जन की दिशाहिन सब ओर पड़ीं-वह सूरज नहीं उगा था वह पूरब में, वह बरसा सहसा ब

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रश्मि-बाण

6 जुलाई 2022
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 ‘‘ओ अधीर पथ-यात्री क्यों तुम      यहाँ सेतु पर आ कर      ठिठक गये?      ‘‘नयी नहीं है नदी, इसी के साथ-साथ      तुम चलते आये      जाने मेरे अनजाने कितने दिन से!      नया नहीं है सेतु, पार तुम

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टेर रहा सागर

6 जुलाई 2022
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जब-जब सागर में मछली तड़पी      तब-तब हम ने उस की गहराई को जाना।      जब-जब उल्का गिरा टूट कर-गिरा कहाँ?      हम ने सूने को अन्तहीन पहचाना। जो है, वह है      रहस्य अज्ञेय यही ‘है’ ही है अपने-आप 

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चिड़िया ने ही कहा

6 जुलाई 2022
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मैंने कहा कि 'चिड़िया'  मैं देखता रहा चिड़िया चिड़िया ही रही । फिर-फिर देखा फिर-फिर बोला, 'चिड़िया' । चिड़िया चिड़िया ही रही । फिर-जाने कब- मैंने देखा नहीं  भूल गया था मैं क्षण-भर को तकना

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सरस्वती-पुत्र

6 जुलाई 2022
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 मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,      खुले गले से मुखर स्वरों में      अति प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम।      भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, अल्पक,      निर्बाध, अयाने, नाटे, पर बा

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पास और दूर

6 जुलाई 2022
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    जो पास रहे वे ही तो सबसे दूर रहे  प्यार से बार-बार जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे, वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो सब से क्रूर रहे। जो चले गये ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये पर जो

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झील का किनारा

6 जुलाई 2022
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झील का निर्जन किनारा और वह सहसा छाए सन्नाटे का एक क्षण हमारा । वैसा सूर्यास्त फिर नहीं दिखा वैसी क्षितिज पर सहमी-सी बिजली वैसी कोई उत्ताल लहर और नहीं आई न वैसी मदिर बयार कभी चली । वैसी कोई शक

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अंतरंग चेहरा

6 जुलाई 2022
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अरे ये उपस्थित घेरते,घूरते, टेरते लोग-लोग-लोग-लोग जिन्हें पर विधाता ने मेरे लिए दिया नहीं निजी एक अंतरंग चेहरा । अनुपस्थित केवल वे हेरते, अगोरते लोचन दो निहित निजीपन जिन में सब चेहरों का,

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अच्छा खंडित सत्य

6 जुलाई 2022
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अच्छा खंडित सत्य सुघर नीरन्ध्र मृषा से, अच्छा पीड़ित प्यार सहिष्णु अकम्पित निर्ममता से। अच्छी कुण्ठा रहित इकाई साँचे-ढले समाज से, अच्छा अपना ठाठ फ़क़ीरी मँगनी के सुख-साज से। अच्छा सार्

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यह महाशून्य का शिविर

6 जुलाई 2022
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यह महाशून्य का शिविर, असीम, छा रहा ऊपर  नीचे यह महामौन की सरिता                  दिग्विहीन बहती है । यह बीच-अधर, मन रहा टटोल प्रतीकों की परिभाषा आत्मा में जो अपने ही से                  खुलती

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वन में एक झरना बहता है

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वन में एक झरना बहता है एक नर कोकिल गाता है वृक्षों में एक मर्मर कोंपलों को सिहराता है, एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे झरे पत्तों को पचाता है अंकुर उगाता है । मैं सोते के साथ बहता हूँ, पक्षी के

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सुनता हूँ गान के स्वर

6 जुलाई 2022
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सुनता हूँ गान के स्वर । बहुत से द्रुत, बाल-चपल, तार, एक भव्य, मन्द्र गंभीर, बलवती तान के स्वर । मैं वन में हूँ सब ओर घना सन्नाटा छाया है तब क्वचित‍ कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है

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किरण अब मुझ पर झरी

6 जुलाई 2022
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किरण अब मुझ पर झरी मैंने कहा  मैं वज्र कठोर हूँ पत्थर सनातन । किरण बोली  भला ? ऐसा ! तुम्हीं को तो खोजती थी मैं  तुम्हीं से मंदिर गढूँगी तुम्हारे अन्तःकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूँगी । स्

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एक चिकना मौन

6 जुलाई 2022
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एक चिकना मौन जिस में मुखर-तपती वासनाएँ दाह खोती लीन होती हैं ।      उसी में रवहीन      तेरा      गूँजता है छंद       ऋत विज्ञप्त होता है । एक काले घोल की-सी रात जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्त्

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रात में जागा

6 जुलाई 2022
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रात में जागा अंधकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली, परम गीतिमय । और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार अरे, तुम अभी तक नहीं जागे और यह मुक्त

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हवा कहीं से उठी, बही

6 जुलाई 2022
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हवा कहीं से उठी, बही ऊपर ही ऊपर चली गई । पथ सोया ही रहा  किनारे के क्षुप चौंके नहीं न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी । वन-खण्डी में सधे खड़े पर अपनी ऊँचाई में खो

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जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है

6 जुलाई 2022
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जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है उतना ही मैं प्रेत हूँ । जितना रूपाकार-सारमय दिख रहा हूँ रेत हूँ । फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिभा मेरे अनजाने, अनपहचाने अपने ही मनमाने अंकुर उपजाती है ब

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जो बहुत तरसा-तरसा कर

6 जुलाई 2022
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जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा हमें हरसाता हुआ,         माटी में रीत गया । आह! जो हमें सरसाता है वह छिपा हुआ पानी है हमारा इस जानी-पहचानी माटी के नीचे का ।          रीतता नहीं           ब

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धुँध से ढँकी हुई

6 जुलाई 2022
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धुँध से ढँकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजली हमारी । कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई छाया जब-तब दिख जाती है, उत्कण्ठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है बिजली की जलती रेखा-सी

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तू नहीं कहेगा ?

6 जुलाई 2022
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तू नहीं कहेगा ? मैं फिर भी सुन ही लूँगा । किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी, झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा, घोंघा गीली पीली रेती पर धीरे-धीरे आँकेगा, पत्तों का मर्मर कनबतियों में जहाँ-तहाँ

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अरी ओ आत्मा री

6 जुलाई 2022
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 अरी ओ आत्मा री,         कन्या भोली क्वाँरी महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गईं । अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा सम्भ्रम-अवगुण्ठित अंगों को उस का ही मृदुतर कौतूहल प्रकाश की किरण छुआएगा । तुझ

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अकेली और अकेली

6 जुलाई 2022
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अकेली और अकेली । प्रियतम धीर, समुद सब सहने वाला; मनचली सहेली । अकेला  वह तेजोमय है जहाँ, दीठ बेबस झुक जाती है; वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूँज वहाँ चुक जाती है । शीतलता उस की एक छुअन-भर से

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वह धीरे-धीरे आया

6 जुलाई 2022
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वह धीरे-धीरे आया सधे पैरों से चला गया । किसी ने उसको छुआ नहीं । उस असंग को अटकाने को कोई कर न उठा । उस की आँखें रहीं देखती सब-कुछ सब-कुछ को वात्सल्य-भाव से सहलाती, असीसती, पर ऐसे, कि अयाना

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जो कुछ सुन्दर था, प्रेम, काम्य

6 जुलाई 2022
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जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य, जो अच्छा, मँजा नया था, सत्य-सार, मैं बीन-बीन कर लाया नैवेद्य चढ़ाया ।         पर यह क्या हुआ ? सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया मुरझाया : कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा क

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मैं कवि हूँ

6 जुलाई 2022
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मैं कवि हूँ दृष्टा, उन्मेष्टा, संधाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय । मैं सच लिखता हूँ  लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ ।         तू काव्य         सदा-वेष्टित यथार्थ         चिर-तनित,        भ

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न कुछ में से वृत्त यह निकला

6 जुलाई 2022
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न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर शून्य में जा विलय होगा  किंतु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है उस में एक रूपातीत ठण्डी ज्योति है । तब फिर शून्य कैसे हैं-कहाँ हैं ? मुझे फिर आतंक किस का है ?

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अंधकार में चली गई है

6 जुलाई 2022
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अँधकार में चली गई है काली रेखा दूर-दूर पार तक । इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ बार-बार द्वार तक । ठिठक गया हूँ वहाँ  खोज यह दे सकती है मार तक । चलने की है यही प्रतिज्ञा पहुँच सकूँगा

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उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त

6 जुलाई 2022
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उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर, जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन-बिछुड़न, गति-निगति-विलय के अन्तहीन च

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ढूह की ओट बैठे

6 जुलाई 2022
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ढूह की ओट बैठे बूढ़े से मैंने कहा  मुझे मोती चाहिए । उसने इशारा किया  पानी में कूदो ! मैंने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या ? उस ने एक मूँठ बालू उठा मेरी ओर कर दी । मैंने कहा : इस में

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यही, हाँ, यही

6 जुलाई 2022
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यही, हाँ, यही कि और कोई बची नहीं रही उस मेरी मधु-मद-भरी रात की निशानी  एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है जिसे चाहो तो मान लो कहानी । और दे भी क्या सकता हूँ हवाला उस रात का  या प्रमाण अपनी बात

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ओ मूर्त्ति !

6 जुलाई 2022
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ओ मूर्त्ति ! वासनाओं के विलय, अदम आकांक्षा के विश्राम ! वस्तु-तत्त्व के बंधन से छुटकारे के ओ शिलाभूत संकेत, ओ आत्म-साक्षय के मुकुर, प्रतीकों के निहितार्थ ! सत्ता-करुणा, युगनद्ध ! ओ मंत्रों के

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व्यथा सब की

6 जुलाई 2022
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व्यथा सब की, निविड़तम एकांत मेरा । कलुष सब का स्वेच्छया आहूत; सद्यःधौत अन्तःपूत बलि मेरी । ध्वांत इस अनसुलझ संसृति के सकल दौर्बल्य का, शक्ति तेरे तीक्ष्णतम, निर्मम, अमोघ प्रकाश-सायक की !

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उसी एकांत में घर दो

6 जुलाई 2022
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उसी एकांत में घर दो जहाँ पर सभी आवें  वही एकांत सच्चा है जिसे सब छू सकें मुझ को यही वर दो उसी एकांत में घर दो कि जिस में सभी आवें -मैं न आऊँ । नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को मुझे ही जो छुए, घेर

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सागर और धरा मिलते थे जहाँ

6 जुलाई 2022
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सागर और धरा मिलते थे जहाँ सन्धि-रेख पर मैं बैठा था । नहीं जानता क्यों सागर था मौन क्यों धरा मुखर थी । सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना देखता था सागर को किंतु धरा को सुनता था । सागर की लहरों मे

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आँगन के पार

6 जुलाई 2022
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आँगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आँगन । भवन के ओर-छोर सभी मिले उन्हीं में कहीं खो गया भवन । कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन

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सरस्वती पुत्र

6 जुलाई 2022
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मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त, खुले गले से मुखर स्वरों में अति-प्रगल्भ गाते जाते थे राम-नाम। भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक, निर्बोध, अयाने, नाटे, पर बाहर जितने बच्चे उतने

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बना दे, चितेरे

6 जुलाई 2022
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बना दे चितेरे, मेरे लिए एक चित्र बना दे। पहले सागर आँक  विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला, ऊपर हलचल से भरा, पवन के थपेड़ों से आहत, शत-शत तरंगों से उद्वेलित, फेनोर्मियों से टूटा हुआ, किन्तु प्रत्येक टूट

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भीतर जागा दाता

6 जुलाई 2022
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मतियाया सागर लहराया । तरंग की पंखयुक्त वीणा पर पवन से भर उमंग से गाया । फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती किरण-अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं   जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती । दूर धुँधला क

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अन्धकार में दीप

6 जुलाई 2022
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अन्धकार था  सब-कुछ जाना पहचाना था हुआ कभी न गया हो, फिर भी सब-कुछ की संयति थी, संहति थी, स्वीकृति थी। दिया जलाया  अर्थहीन आकारों की यह अर्थहीनतर भीड़ निरर्थकता का संकुल निर्जल पारावार न-क

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पहचान

6 जुलाई 2022
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तुम वही थीं  किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था ढलती उमर के दाग़ उसने धो दिये थे। भूल थी पर बन गयी पहचान मैं भी स्मरण से नहा आया।

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पराई राहें

6 जुलाई 2022
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दूर सागर पार पराए देश की अनजानी राहें। पर शीलवान तरुओं की गुरु, उदार पहचानी हुई छाँहें। छनी हुई धूप की सुनहली कनी को बीन, तिनके की लघु अनी मनके-सी बींध, गूँथ, फेरती सुमिरनी, पूछ बैठी  कहाँ, प

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पलकों का कँपना

6 जुलाई 2022
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तुम्हारी पलकों का कँपना । तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के खिलने का सपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । सपने की एक किरण मुझ को दो ना,

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एक उदास साँझ

6 जुलाई 2022
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सूने गलियारों की उदासी । गोखों में पीली मन्द उजास स्वयं मूर्च्छा-सी । थकी हारी साँसे, बासी । चिमटी से जकड़ी-सी नभ की थिगली में तारों की बिसरी सुइयाँ-सी यादें : अपने को टटोलतीं सहमीं, ठिठकी, प

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एक उदास साँझ

6 जुलाई 2022
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सूने गलियारों की उदासी । गोखों में पीली मन्द उजास स्वयं मूर्च्छा-सी । थकी हारी साँसे, बासी । चिमटी से जकड़ी-सी नभ की थिगली में तारों की बिसरी सुइयाँ-सी यादें : अपने को टटोलतीं सहमीं, ठिठकी, प

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अनुभव-परिपक्व

6 जुलाई 2022
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माँ हम नहीं मानते अगली दीवाली पर मेले से हम वह गाने वाला टीन का लट्टू लेंगे हॊ लेंगे नहीं, हम नहीं जानते हम कुछ नहीं सुनेंगे। कल गुड़ियों का मेला है, माँ। मुझे एक दो पैसे वाली काग़ज़ की फिरक

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सूनी-सी साँझ एक

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सूनी-सी साँझ एक दबे-पाँव मेरे कमरे में आई थी । मुझ को भी वहाँ देख थोड़ा सकुचायी थी । तभी मेरे मन में यह बात आई थी कि ठीक है, यह अच्छी है, उदास है, पर सच्ची है  इसी की साँवली छाँह में कुछ देर रह

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एक प्रश्न

6 जुलाई 2022
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जिन आँखों को तुम ने गहरा बतलाया था उन से भर-भर मैंने रूप तुम्हारा पिया । जिस काया को तुम रहस्यार्थ से भरी बताते थे उस के रोम-रोम से मैंने गान तुम्हारा किया । जो प्यार- कहा था तुम ने ही- है सार

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अँधेरे अकेले घर में

6 जुलाई 2022
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अँधेरे अकेले घर में अँधेरी अकेली रात । तुम्हीं से लुक-छिप कर आज न जाने कितने दिन बाद तुम से मेरी मुलाक़ात । और इस अकेले सन्नाटे में उठती है रह-रह कर एक टीस-सी अकस्मात‍ कि कहने को तुम्हें इस

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अन्तःसलिला

6 जुलाई 2022
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रेत का विस्तार नदी जिस में खो गई कृश-धार । झरा मेरे आँसुओं का भार मेरा दुःख-घन, मेरे समीप अगाध पारावार उस ने सोख सहसा लिया जैसे लूट ले बटमार । और फिर आक्षितिज लहरीला मगर बेटूट सूखी रेत का वि

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साँस का पुतला

6 जुलाई 2022
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वासना को बाँधने को तूमड़ी जो स्वर-तार बिछाती है आह! उसी में कैसी एकांत निविड़ वासना थरथराती है !         तभी तो साँप की कुण्डली हिलती नहीं          फन डोलता है । कभी रात मुझे घेरती है, कभी मै

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उधार

6 जुलाई 2022
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सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी

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सन्ध्या-संकल्प

6 जुलाई 2022
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यह सूरज का जपा-फूल नैवेद्य चढ़ चला सागर-हाथों अम्बा तिरमिरायी को रुको साँस-भर, फिर मैं यह पूजा-क्षण तुम को दे दूँगा। क्षण अमोघ है, इतना मैंने पहले भी पहचाना है इस लिए साँझ को नश्वरता से नही

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प्रातः संकल्प

6 जुलाई 2022
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ओ आस्था के अरुण! हाँक ला उस ज्वलन्त के घोड़े। खूँद डालने दे तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को नभ का कच्चा आंगन! बढ़ आ, जयी! सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना। मैं कहीं दूर: मैं बंधा नहीं हूँ

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पंचमुख गुड़हल

6 जुलाई 2022
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शान्त मेरे सँझाये कमरे, शान्त मेर थके-हारे दिल। मेरी अगरबत्ती के धुएँ के बलखाते डोरे, लाल अंगारे से डह-डह इस पंचमुख गुड़हल के फूल को बांधते रहो नीरव जब तक बांधते रहो। साँझ के सन्नाटे में मै

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उत्तर-वासन्ती दिन

6 जुलाई 2022
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यह अप्रत्याशित उजला दिपती धूप-भरा उत्तर-वासन्ती दिन जिस में फूलों के रंग चौंक कर खिले, पंछियों की बोली है ठिठकी-सी, हम साझा भोग सके होते—तू-मैं तो भी मैं इसे समूचा तुझ को भेंट चुका होता: अब भ

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कितनी नावों में कितनी बार

6 जुलाई 2022
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कितनी दूरियों से कितनी बार कितनी डगमग नावों में बैठ कर मैं तुम्हारी ओर आया हूँ ओ मेरी छोटी-सी ज्योति! कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में पहचानता हुआ तुम्हा

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यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया

6 जुलाई 2022
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यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है कि होती जाती है, यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है कि हो कर नहीं देता; यह मैं हूँ कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती उमड़ती आती हैं, यह भीड़ है कि उस में मैं बराबर मिटता

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निरस्त्र

6 जुलाई 2022
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कुहरा था, सागर पर सन्नाटा था पंछी चुप थे। महाराशि से कटा हुआ थोड़ा-सा जल बन्दी हो चट्टानों के बीच एक गढ़िया में निश्चल था पारदर्श। प्रस्तर-चुम्बी बहुरंगी उद्भिज-समूह के बीच मुझे सहसा दीख

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जीवन

6 जुलाई 2022
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चाबुक खाए भागा जाता सागर-तीरे मुँह लटकाए मानो धरे लकीर जमे खारे झागों की रिरियाता कुत्ता यह पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए। कटा हुआ जाने-पहचाने सब कुछ से इस सूखी तपती रेती के विस्तार से

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कि हम नहीं रहेंगे

6 जुलाई 2022
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हमने शिखरों पर जो प्यार किया घाटियों में उसे याद करते रहे! फिर तलहटियों में पछताया किए कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे! पर जिस दिन सहसा आ निकले सागर के किनारे ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के

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उलाहना

6 जुलाई 2022
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नहीं, नहीं, नहीं! मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया पर क्या भुलाने को? मैंने अपने दर्द को सहलाया पर क्या उसे सुलाने को? मेरा हर मर्माहत उलाहना साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा! ओ मे

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