आंजनेय को अधिक कृती उन कार्त्तिकेय से भी लेखो,
माताएँ ही माताएँ हैं जिसके लिए जहाँ देखो।
पर विलम्ब से हानि, सुनो मैं हनूमान, मारुति, प्रभुदास,
संजीवनी-हेतु जाता हूँ योग-सिद्धि से उड़ कैलास।"
"प्रस्तुत है वह यहीं, उसी से प्रियवर, हुआ तुम्हारा त्राण।"
"आहा! मेरे साथ बचाये तुमने लक्ष्मण के भी प्राण।
थोड़े में वृतान्त सुनो अब खर-दूषण-संहारी का,
तुम्हें विदित ही है वह विक्रम उन दण्डक वन-चारी का।
हरी हरी वनधरा रुधिर से लाल हुई हलकी होकर,
शूर्पणखा लंका में पहुँची, रावण से बोली रोकर--
’देखो, दो तापस मनुजों ने कैसी गति की है मेरी,
उनके साथ एक रमणी है, रति भी हो जिसकी चेरी।
भरतखण्ड के दण्डक वन में वे दो धन्वी रहते हैं,
स्वयं पुनीत--नहीं, पावन बन, हमें पतित जन कहते हैं।’
शूर्पणखा की बातें सुन कर क्षुब्ध हुआ रावण मानी,
वैर-शुद्धि के मिष उस खल ने सीता हरने की ठानी।
तब मारीच निशाचर से वह पहले कपट मंत्र करके,
उसे साथ ले दण्डक वन में आया साधु-वेश धरके।
हेम-हरिण बन गया वहाँ पर आकर मायावी मारीच,
श्रीसीता के सम्मुख जाकर लगा लुभाने उनको नीच।
मर्म समझ हँस कर प्रभु बोले--’सब सुचर्म पर मरते हैं!
इसे मार हम प्रिये, तुम्हारी इच्छा पूरी करते हैं।
भाई, सावधान!’ यह कह कर और धनुष पर रख कर बाण,
उस कुरंग के पीछे प्रभु ने क्रीड़ा पूर्वक किया प्रयाण।
अरुण-रूप उस तरुण हरिण की देख किरण-गति, ग्रीवाभंग,
सकरुण नरहरि राम रंग से गये दूर तक उसके संग।
समझ अन्त में उसका छल जो छोड़ा इधर उन्होंने बाण,
’हा लक्ष्मण! हा सीते,’ कह कर छोड़े उधर छली ने प्राण।
सुन कर उसकी कातरोक्ति वह चंचल हुईं चौंक सीता,
क्या जाने प्रभु पर क्या बीती, वे हो उठीं महा भीता।
लक्ष्मण से बोलीं--’शुभ लक्षण! यह पुकार कैसी है हाय!
जाओ, झट पट जाकर देखो, आर्यपुत्र जैसी है हाय!’
लक्ष्मण ने समझाया उनको--’भाभी भय न करो मन में,
कर सकता है कौन आर्य का अहित तनिक भी त्रिभुवन में।
तुम कहती हो--पर यह मेरा दक्षिण नेत्र फड़कता है,
आशंका-आतंक-भाव से आतुर हृदय धड़कता है।
तदपि मुझे उनके प्रभाव का है इतना विस्तृत विश्वास,
हिलता नहीं केश तक मेरा, क्या प्रकम्प है, क्या निश्वास।’
'किन्तु तुम्हारे ऐसे निर्मम प्राण कहाँ से मैं लाऊँ?
और कहाँ तुम-सा जड़ निर्दय यह पाषाण हृदय पाऊँ?’
कहा क्रुद्ध होकर देवी ने--’घर बैठो तुम, मैं जाऊँ;
जो यों मुझे पुकार रहा है, किसी काम उसके आऊँ।
क्या क्षत्रिया नहीं मैं बोलो, पर तुम कैसे क्षत्रिय हो?
इतने निष्क्रिय होकर भी जो बनते यों स्वजनप्रिय हो।’
’हा! आर्ये, प्रिय की अप्रियता करने को कहती हो तुम,
यदि न करूँ मैं तो गृहिणी की भाँति नहीं रहती हो तुम।
मैं कैसा क्षत्रिय हूँ, इसको तुम क्या समझोगी देवी,
रहा दास ही और रहूँगा सदा तुम्हारा पद-सेवी।
उठा पिता के भी विरुद्ध मैं, किन्तु आर्य-भार्या हो तुम,
इससे तुम्हें क्षमा करता हूँ, अबला हो, आर्या हो तुम!
नहीं अन्ध ही, किन्तु बधिर ही, अबला बधुओं का अनुराग;
जो हो, जाता हूँ मैं, पर तुम करना नहीं कुटी का त्याग।
रहना इस रेखा के भीतर, क्या जानें अब क्या होगा,
मेरा कुछ वश नहीं, कर्म-फल कहाँ न कब किसने भोगा?’
कसे निषंग पीठ पर प्रस्तुत और हाथ में धनुष लिये,
गये शीघ्र रामानुज वन में आर्त्त-नाद को लक्ष किये।
शून्याश्रम से इधर दशानन, मानों श्येन कपोती को,
हर ले चला विदेहसुता को--भय से अबला रोती को!
कह सशोक ’हा!’ दोनों भाई लगे सकोप पटकने हाथ,
रोने लगी माण्डवी--"जीजी, तुम से तो उर्मिला सनाथ!"
आगे सुनने को आतुर हो सबने यह आघात सहा,
हनूमान ने धीरज देकर शीघ्र शेष वृत्तान्त कहा--
"चिल्ला तक न सकीं घबरा कर वे अचेत हो जाने से,
भाँय भाँय कर उठा किन्तु वन निज लक्ष्मी खो जाने से।
वृद्ध जटायु वीर ने खल के सिर पर उड़ आघात किया,
उसका पक्ष किन्तु पापी ने काट केतु-सा गिरा दिया।
गया जटायु इधर सुरपुर को उधर दशानन लंका को,
क्या विलम्ब लगता है आते आपद को, आशंका को?
जाकर खुला शून्य पिंजर-सा दोनों ने आश्रम देखा,
देवी के बदले बस उनका विभ्रम देखा, भ्रम देखा।
’प्रिये, प्रिये, उत्तर दो, मैं ही करता नहीं पुकार अभंग,
शून्य कुंज-गिरि-गुहा-गर्त्त भी तुम्हें पुकार रहे हैं संग!’
लक्ष्मण ने, मैंने भी देखा, सोती थी जब सारी सृष्टि,
एक मेघ उठ--’सीते! सीते!’ गरज गरज करता था वृष्टि।
उनके कुसुमाभरण मार्ग में थे जिस ओर पड़े उच्छिन्न,
उन्हें बीनते हुए विलपते चले खोज करते वे खिन्न।
’जिनके अलंकार पाये हैं, आर्य उन्हें भी पावेंगे,
सोचो, साधु भरत के भी क्या साधन निष्फल जावेंगे?
पच सकती है रश्मिराशि क्या महाग्रास के तम से भी?
आर्य, उगलवा लूँगा अपनी आर्या को मैं यम से भी!
मेट सकेगा कौन विश्व के पातिव्रत की लीक, कहो?
यह अंबर उस अग्नि-शिखा को ढँक न सकेगा, दुखी न हो।’
’काल-फणी की मणि पर जिसने फैलाया है अपना हाथ,
उसी अभागे का दुख मुझको’--बोले लक्ष्मण से रघुनाथ।
कर जटायु-संस्कार बीच में दोनों ने निज पथ पकड़ा,
आगे किसी कबन्धासुर ने अजगर ज्यों उनको जकड़ा।
मारा बाहु काट वैरी को, बन्धु-सदृश फिर दाह किया,
सदा भाव के भूखे प्रभु ने शवरी का आतिथ्य लिया।
यों ही चल कर पम्पासर का पत्र-पुष्प-अर्पण देखा,
निज कृश-करुण-मूर्त्ति का मानों प्रभु ने वह दर्पण देखा।
आगे ऋष्यमूक पर्वत पर, वानर ही कहिए, हम थे,
विषम प्रकृति वाले होकर भी आकृति में नर के सम थे।
था सुग्रीव हमारा स्वामी, मन के दुःखों का मारा,
कामी अग्रज बली बालि ने हर ली जिसकी धन-दारा।
इस किंकर ने उतर अद्रि से दया-दृष्टि प्रभु की पाई,
सहज सहानुभूति-वश उस पर प्रीति उन्होंने दिखलाई।
लिये जा रहा था रावण-वक जब शफरी-सी सीता को
देखा हमने स्वयं तड़पते उन पद्मिनी पुनीता को।