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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 4)

13 अप्रैल 2022

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वन में वे वे चमत्कार हैं सृष्टि के,

पलक खुले ही रहें देख कर दृष्टि के!"

"सुविधा करके स्वयं भ्रमण-विश्राम की,

सब कृतज्ञता तुम्हीं न ले लो राम की।

औरों को भी सखे, भाग दो भाव से;

कर दो केवल पार हमें कल नाव से।"

ध्रुवतारक था व्योम विलोक समाज को,

प्रभु ने गौरव-मान दिया गुहराज को।

प्रकृत वृत्त जब सुना परन्तु विषाद का,

मुरझ गया मन सुमन-समान निषाद का।

देवमूर्ति वे राजमंदिरों के पले,

कुश-शय्या पर आज पड़े थे तरु-तले।

हाय! फूलते हुए भाग्य कैसे फले,

उस भावुक के अश्रु उमड़ कर बह चले।

"घुरक रही है साँय साँय कर रात भी,

मानों लय में लीन तरंगाघात भी।

तब भी लक्ष्मण घूम रहे हैं जाग कर,

निद्रा का निज तुच्छ भाग तक त्याग कर।

यह किसका अभिशाप न जाने हे अरे,

चलती है दुर्नीति राज्य से ही अरे!

खोकर ऐसे लाल, लिया क्या केकयी?

क्या करना था तुझे, किया क्या केकयी?

इस भव पर है असित वितान तना सदा,

जिसके खम्भे दुःख, शोक, भय, आपदा।

उस अचिन्त्यगति गगन तले जब तक पड़े,

हम हैं कितने विवश सभी छोटे-बड़े!

जो प्रभु निज साकेत छोड़, वन को चला;

उसके सम्मुख श्रृंगवेरपुर क्या भला?

पर उसको दूँ और कौन उपहार मैं?

हूँगा कल कृत्कृत्य आपको वार मैं।"

बद्धमुष्टि रह गया वीर, ज्यों भ्रान्त हो,

बोले तब सौमित्रि--"बन्धु, तुम शान्त हो।

तुमको जिनके लिए दुःख या रोष है,

स्वयं उन्हें निज हेतु सौख्य-सन्तोष है।

श्रृंगवेरपुर-राज्य करो तुम नीति से,

आर्य तृप्त हैं मात्र तुम्हारी प्रीति से।

मिला धर्म का आज उन्हें वह धन नया,

जिस पर कोसलराज्य स्वयं वारा गया।

समय जा रहा और काल है आ रहा,

सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा।

कीट-पूर्ण हैं कुसुम, कण्टकित है मही,

जो सब से बच निकल चले, विजयी वही।

कर्म-हेतु ही कर्म कहीं हम कर सकें,

तो उनके फल हमें कहाँ से धर सकें।

कर्त्ता मानों जिसे तात, भोक्ता वही;

बन्ध-मुक्ति की एक युक्ति जानों यही।

मेरे लिए विषाद व्यर्थ है, धन्य मैं;

सुप्त नहीं हूँ, सतत सजग, चैतन्य मैं।

मैं तो निज भवसिन्धु कभी का तर चुका,

राम-चरण में आत्मसमर्पण कर चुका।

जीव और प्रभु-मध्य अड़ी माया खड़ी,

वह दुरत्यया और शक्तिशीला बड़ी।

साधो उसको और मनाओ युक्ति से,

सखे, समन्वय करो भुक्ति का मुक्ति से।"

निकल गई चुपचाप निशा अभिसारिका,

पढ़ी द्विजों ने बोधमयी कल-कारिका।

सबने मज्जन किया, निरख प्रातश्छटा;

स्वर्णघटित थी रजत जाह्नवी की घटा।

लेकर वट का दूध जटा प्रभु ने रची,

अब सुमन्त्र के लिए न कुछ आशा बची।

"स्वयं क्षात्र ले लिया आज वैराग्य क्या?

शान्त सर्वथा हुआ हमारा भाग्य क्या?"

प्रभु ने उन्हें प्रबोध दिया तब प्रीति से--

"व्रत ले तो फिर उसे निभादे रीति से।

जटा-जूट पर छत्र करे छाया भले,

किन्तु मुकुट की हँसी मात्र है तरु-तले।

सौम्य, यहाँ क्या काम भला विधि वाम का?

यह तो है सौभाग्य तुम्हारे राम का।

जाकर मेरा कुशल कहो तुम तात से,

दो सबको सन्तोष, मिले जिस बात से।

मूल-तुल्य तुम रहो, फूल-से हम खिलें;

कब बीते यह अवधि और आकर मिलें।

फिर भी ये दिन अधिक नहीं हैं, अल्प हैं;

काल-सिन्धु में बिन्दु-तुल्य युग-कल्प हैं।"

समयोचित सन्देश उन्हें प्रभु ने दिये;

सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किये।

कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,

उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।

देख सुमन्त्र-विषाद हुए सब अनमनें;

आये सुरसरि-तीर त्वरित तीनों जनें।

बैठीं नाव-निहार लक्षणा व्यंजना,

’गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।

बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,

मोद-भरी मदमत्त झूमती थी तरी।

धो ली गुह ने धूलि अहल्या तारिणी,

कवि की मानस-कोष-विभूति-विहारिणी।

प्रभु-पद धोकर भक्त आप भी धो गया,

कर चरणामृत-पान अमर-सा हो गया!

हींस रहे थे उधर अश्व उदग्रीव हो,

मानों उनका उड़ा जा रहा जीव हो।

प्रभु ने दिया प्रबोध हाथ से, हेर कर;

पोंछा गुह ने नेत्र-नीर, मुँह फेर कर।

कोमल है बस प्रेम, कठिन कर्तव्य है;

कौन दिव्य है, कौन न जानें भव्य है?

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रचनाएँ
साकेत
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'साकेत महाकवि' मैथिलीशरण गुप्त का लिखा महाकाव्य है जो 12 सर्गों में लिखा गया है। शुरुआती सर्गों में श्रीराम को वनवास का आदेश, अयोध्यावासियों का करुण-रुदन और वनगमन की झांकियां हैं। अंत के सर्गों में लक्ष्मण की पत्नी व राजवधू उर्मिला के वियोग का वर्णन है। साकेत मुख्यत: उर्मिला को केन्द्र में रख कर ही लिखी गयी है।
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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 1)

13 अप्रैल 2022
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अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे, इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे। दास की यह देह-तंत्री तार दे, रोम-तारों में नई झंकार दे। बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो, भार-वाही कंठ-केकी साथ हो। चल अयोध्या के लिए सज साज

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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 2)

13 अप्रैल 2022
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स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ किंतु सुरसरिता कहाँ, सरयू कहाँ? वह मरों को मात्र पार उतारती; यह यहीं से जीवितों को तारती! अंगराग पुरांगनाओं के धुले, रंग देकर नीर में जो हैं घुले, दीखते उनसे विचि

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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 3)

13 अप्रैल 2022
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पद्मरागों से अधर मानों बने; मोतियों से दाँत निर्मित हैं घने। और इसका हृदय किससे है बना? वह हृदय ही है कि जिससे है बना। प्रेम-पूरित सरल कोमल चित्त से, तुल्यता की जा सके किस वित्त से? शाण पर सब अं

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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 4)

13 अप्रैल 2022
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"प्रेम की यह रुचि विचित्र सराहिए, योग्यता क्या कुछ न होनी चाहिए?" "धन्य है प्यारी, तुम्हारी योग्यता, मोहिनी-सी मूर्त्ति, मंजु-मनोज्ञता। धन्य जो इस योग्यता के पास हूँ; किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दा

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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 5)

13 अप्रैल 2022
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देख भाव-प्रवणता, वर-वर्णता, वाक्य सुनने को हुई उत्कर्णता! तूलिका सर्वत्र मानों थी तुली; वर्ण-निधि-सी व्योम-पट पर थी खुली। चित्र के मिष, नेत्र-विहगों के लिए, आप मोहन-जाल माया थी लिये। सुध न अपनी

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साकेत / प्रथम सर्ग / (भाग 6)

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अवयवों की गठन दिखला कर नई, अमल जल पर कमल-से फूले कई। साथ ही सात्विक-सुमन खिलने लगे, लेखिका के हाथ कुछ हिलने लगे! झलक आया स्वेद भी मकरन्द-सा, पूर्ण भी पाटव हुआ कुछ मन्द-सा। चिबुक-रचना में उमंग नह

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साकेत / द्वितीय सर्ग (भाग 1)

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लेखनी, अब किस लिए विलम्ब? बोल,--जय भारति, जय जगदम्ब। प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात, देख अब तू उस दिन की रात। धरा पर धर्मादर्श-निकेत, धन्य है स्वर्ग-सदृश साकेत। बढ़े क्यों आज न हर्षोद्रेक? राम का

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साकेत / द्वितीय सर्ग (भाग 2)

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’भरत-से सुत पर भी सन्देह, बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’ पवन भी मानों उसी प्रकार शून्य में करने लगा पुकार ’भरत-से सुत पर भी सन्देह, बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’ गूँजते थे रानी के कान, तीर-सी लगती थ

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साकेत / द्वितीय सर्ग (भाग 3)

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चूर कर डाले सुन्दर चित्र, हो गये वे भी आज अमित्र! बताते थे आ आ कर श्वास हृदय का ईर्ष्या-वह्नि-विकास। पतन का पाते हुए प्रहार पात्र करते थे हाहाकार-- "दोष किसका है, किस पर रोष, किन्तु यदि अब भी ह

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साकेत / द्वितीय सर्ग (भाग 4)

13 अप्रैल 2022
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कि ’तुमको भी निज पुत्र-वियोग बनेगा प्राण-विनाशक रोग।’ अस्तु यह भरत-विरह अक्लिष्ट दुःखमय होकर भी था इष्ट। इसी मिष पाजाऊँ चिरशान्ति सहज ही समझूँ तो निष्क्रान्ति!" दिया नृप को वसिष्ठ ने धैर्य, कहा

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साकेत / द्वितीय सर्ग (भाग 5)

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तुम्हीं ने माँगा कब क्या आप? प्रिये, फिर भी क्यों यह अभिशाप? भला, माँगो तो कुछ इस बार, कि क्या दूँ दान नहीं, उपहार?" मानिनी बोली निज अनुरूप "न दोगे वे दो वर भी भूप!" कहा नृप ने लेकर निःश्वास "द

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साकेत / तृतीय सर्ग / (भाग 1)

13 अप्रैल 2022
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जहाँ अभिषेक-अम्बुद छा रहे थे, मयूरों-से सभी मुद पा रहे थे, वहाँ परिणाम में पत्थर पड़े यों, खड़े ही रह गये सब थे खड़े ज्यों। करें कब क्या, इसे बस राम जानें, वही अपने अलौकिक काम जानें। कहाँ है कल्

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साकेत / तृतीय सर्ग / (भाग 2)

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करो तुम धैर्य-रक्षा, वेश रक्षा, करूँगा क्या न मैं आदेश-रक्षा? मुझे यह इष्ट है, चिन्तित न हो तुम, पडूँ मैं आग में भी जो कहो तुम! तुम्हीं हो तात! परमाराध्य मेरे, हुए सब धर्म अब सुखसाध्य मेरे। अभी

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साकेत / तृतीय सर्ग / (भाग 3)

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बड़ों की बात है अविचारणीया, मुकुट-मणि-तुल्य शिरसा धारणीया। वचन रक्खे बिना जो रह न सकते, तदपि वात्सल्य-वश कुछ कह न सकते, उन्हीं पितृदेव का अपमान लक्ष्मण? किया है आज क्या कुछ पान लक्ष्मण! उऋण होना

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साकेत / तृतीय सर्ग / (भाग 4)

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कहाँ है हा! तुम्हारा धैर्य वह सब, कि कौशिक-संग भेजा था मुझे जब। लड़कपन भूल लक्ष्मण का सदय हो, हमारा वंश नूतन कीर्तिमय हो। क्षमा तुम भी करो सौमित्र को माँ! न रक्खो चित्त में उस चित्र को माँ! विरत

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साकेत / तृतीय सर्ग / (भाग 5)

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कहा सौमित्रि ने--"हे तात सुनिये, उचित-अनुचित हृदय में आप गुनिए। कि मँझली माँ हमें वन भेजती हैं। भरत के अर्थ राज्य सहेजती हैं।" निरख कर सामने ज्यों साँप भारी, सहम जावे अचानक मार्गचारी। सचिववर रह

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / ( भाग 1)

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करुणा-कंजारण्य रवे! गुण-रत्नाकर, आदि-कवे! कविता-पितः! कृपा वर दो, भाव राशि मुझ में भर दो। चढ़ कर मंजु मनोरथ में, आकर रम्य राज-पथ में, दर्शन करूँ तपोवन का, इष्ट यही है इस जन का। सुख से सद्यः स्

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / (भाग 2)

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प्रभु बोले--"माँ! भय न करो, एक अवधि तक धैर्य धरो। मैं फिर घर आ जाऊँगा, वन में भी सुख पाऊँगा।" "हा! तब क्या निष्कासन है? यह कैसा वन-शासन है? तू सब का जीवन-धन है, किसका यह निर्दयपन है? क्या तुझस

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / (भाग 3)

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माँ ने पुत्र-वृद्धि चाही, नृप ने सत्य-सिद्धि चाही। मँझली माँ पर कोप करूँ? पुत्र-धर्म का लोप करूँ? तो किससे डर सकता हूँ? तुम पर भी कर सकता हूँ। भैया भरत अयोग्य नहीं, राज्य राम का भोग्य नहीं। फि

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / (भाग 4)

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धैर्य सहित सब कुछ सहना, दोनों सिंह-सदृश रहना। लक्ष्मण! तू बड़भागी है, जो अग्रज-अनुरागी है। मन ये हों, तन तू वन में, धन ये हों, जन तू वन में।" लक्ष्मण का तन पुलक उठा, मन मानों कुछ कुलक उठा। म

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / (भाग 5)

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"हाथ हटा, ये वल्कल हैं, मृदुतम तेरे करतल हैं। यदि ये छू भी जावेंगे तो छाले पड़ आवेंगे! कोसल बधू! विदेह लली! मुझे छोड़ कर कहाँ चली? वन की काँटों-भरी गली, तू है मानस-कुसुम-कली। दैव! हुआ तू वाम क

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साकेत / चतुर्थ सर्ग / (भाग 6)

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अथवा कुछ भी न हो वहाँ, तुम तो हो जो नहीं यहाँ। मेरी यही महामति है पति ही पत्नी की गति है। नाथ! न भय दो तुम हमको, जीत चुकी हैं हम यम को। सतियों को पति-संग कहीं-- वन क्या, अनल अगम्य नहीं!" सीत

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 1)

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वनदेवीगण, आज कौन सा पर्व है, जिस पर इतना हर्ष और यह गर्व है? जाना, जाना, आज राम वन आ रहे; इसी लिए सुख-साज सजाये जा रहे। तपस्वियों के योग्य वस्तुओं से सजा, फहराये निज भानु-मूर्तिवाली ध्वजा, मुख

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 2)

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पर मेरा यह विरह विशेष विलोक कर, करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोक कर। होते मेरे ठौर तुम्हीं हे आग्रही, तो क्या तुम भी आज नहीं करते यही? पालन सहज, सुयोग कठिन है धर्म का, हुआ अचानक लाभ मुझे सत्कर्म का।

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 3)

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तेरा पानी शस्त्र हमारे हैं धरे, जिसमें अरि आकण्ठमग्न होकर तरे। तब भी तेरा शान्ति भरा सद्भाव है, सब क्षेत्रों में हरा हृदय का हाव है। मेरा प्रिय हिण्डोल निकुंजागार तू, जीवन-सागर, भाव-रत्न-भाण्डार

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 4)

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वन में वे वे चमत्कार हैं सृष्टि के, पलक खुले ही रहें देख कर दृष्टि के!" "सुविधा करके स्वयं भ्रमण-विश्राम की, सब कृतज्ञता तुम्हीं न ले लो राम की। औरों को भी सखे, भाग दो भाव से; कर दो केवल पार हमें

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 5)

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"जय गंगे, आनंद-तरंगे, कलरवे, अमल अंचले, पुण्यजले, दिवसम्भवे! सरस रहे यह भरत-भूमि तुमसे सदा; हम सबकी तुम एक चलाचल सम्पदा। दरस-परस की सुकृत-सिद्धि ही जब मिली, माँगे तुमसे आज और क्या मैथिली? बस, यह

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 6)

13 अप्रैल 2022
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जाओगे तुम जहाँ, तीर्थ होगा वहीं; मेरी इच्छा है कि रहो गृह-सम यहीं।" प्रभु बोले--"कृत्कृत्य देव, यह दास है; पर जनपद के पास उचित क्या वास है? ऐसा वन निर्देश कीजिए अब हमें, जहाँ सुमन-सा जनकसुता का म

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साकेत / पंचम सर्ग / (भाग 7)

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नीरस तरु का प्राण शान्ति पाता नहीं, जा जाकर भी, अवधि बिना जाता नहीं!" "पास पास ये उभय वृक्ष देखो, अहा! फूल रहा है एक, दूसरा झड़ रहा।" "है ऐसी ही दशा प्रिये, नर लोक की, कहीं हर्ष की बात, कहीं पर श

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साकेत / षष्ठ सर्ग / (भाग 1)

14 अप्रैल 2022
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तुलसी, यह दास कृतार्थ तभी मुँह में हो चाहे स्वर्ण न भी, पर एक तुम्हारा पत्र रहे, जो निज मानस-कवि-कथा कहे। उपमे, यह है साकेत यहाँ, पर सौख्य, शान्ति, सौभाग्य कहाँ? इसके वे तीनों चले गये, अनुगाम

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साकेत / षष्ठ सर्ग / (भाग 2)

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माँ ने न तनिक समझा-बूझा, यह उन्हें अचानक क्या सूझा? अभिषेक कहाँ, वनवास कहाँ? है नहीं क्षणिक विश्वास यहाँ। भावी समीप भी दृष्ट नहीं, क्या है जो सहसा सृष्ट नहीं! दुरदृष्ट, बता दे स्पष्ट मुझे क्यों

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साकेत / षष्ठ सर्ग / (भाग 3)

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रथ मानों एक रिक्त घन था, जल भी न था, न वह गर्जन था। वह बिजली भी थी हाय! नहीं, विधि-विधि पर कहीं उपाय नहीं। जो थे समीर के जोड़ों के, उठते न पैर थे घोड़ों के! थे राम बिना वे भी रोते, पशु भी प्रेम

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साकेत / षष्ठ सर्ग / (भाग 4)

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नभ में भी नया नाम होगा, पर चिन्ता से न काम होगा। अवसर ही उन्हें मिलावेगा, यह शोक न हमें जिलावेगा। राघव ने हाथ जोड़ करके, तुमसे यह कहा धैर्य धरके ’आता है जी में तात यही, पीछे पिछेल व्यवधान-मही

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साकेत / षष्ठ सर्ग / (भाग 5)

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वह डील अपूर्व मनोहारी, हेमाद्रि-शृंग-समताकारी, रहता जो मानों सदा खड़ा, था आज निरा निश्चेष्ट पड़ा। मुख पर थे शोक-चिह्न अब भी, नृप गये, न भाव गये तब भी! या इसी लिये वे थे सोये, सुत मिलें स्वप्न म

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 1)

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’स्वप्न’ किसका देखकर सविलास कर रही है कवि-कला कल-हास? और ’प्रतिमा’ भेट किसकी भास, भर रही है वह करुण-निःश्वास? छिन्न भी है, भिन्न भी है, हाय! क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय? क्यों न भर आँसू बहावे न

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 2)

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"रुग्ण ही हों तात हे भगवान?" भरत सिहरे शफर-वारि-समान। ली उन्होंने एक लम्बी साँस, हृदय में मानों गड़ी हो गाँस। "सूत तुम खींचे रहो कुछ रास, कर चुके हैं अश्व अति आयास। या कि ढीली छोड़ दो, हा हन्त

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 3)

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केकयी बढ़ मन्थरा के साथ, फेरने उन पर लगी झट हाथ। रह गये शत्रुघ्न मानों मूक; कण्ठरोधक थी हृदय की हूक। देर में निकली गिरा--"हा अम्ब! आज हम सब के कहाँ अवलम्ब? देखने को तात-शून्य निकेत, क्या बुलाये

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 4)

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नील से मुहँ पोत मेरा सर्व, कर रही वात्सल्य का तू गर्व! खर मँगा, वाहन वही अनुरूप, देख लें सब--है यही वह भूप! राज्य, क्यों माँ, राज्य, केवल राज्य? न्याय-धर्म-स्नेह, तीनों त्याज्य! सब करें अब से भर

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 5)

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उठ भरत ने धर लिया झट हाथ, और वे बोले व्यथा के साथ "मारते हो तुम किसे हे तात! मृत्यु निष्कृत हो जिसे हे तात? छोड़ दो इसको इसी पर वीर, आर्य-जननी-ओर आओ धीर!" युगल कण्ठों से निकल अविलम्ब अजिर में

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 6)

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आ गये तब तक तपोव्रतनिष्ठ, राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ। प्राप्त कर उनके पदों की ओट, रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट "क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?" "वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य। त्याग का संचय, प्र

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साकेत / सप्तम सर्ग / (भाग 7)

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है महायात्रा यही, इस हेतु, फहरने दो आज सौ सौ केतु! घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर, सूचना हो जाए चारों ओर सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति, और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति! अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 1)

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चल, चपल कलम, निज चित्रकूट चल देखें, प्रभु-चरण-चिन्ह पर सफल भाल-लिपि लेखें। सम्प्रति साकेत-समाज वहीं है सारा, सर्वत्र हमारे संग स्वदेश हमारा। तरु-तले विराजे हुए,--शिला के ऊपर, कुछ टिके,--घनुष की

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 2)

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आओ कलापि, निज चन्द्रकला दिखलाओ, कुछ मुझसे सीखो और मुझे सिखलाओ। गाओ पिक,मैं अनुकरण करूँ, तुम गाओ, स्वर खींच तनिक यों उसे घुमाते जाओ। शुक, पढ़ो,-मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया, मेरी कुटिया में राज-भ

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 3)

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"मैं तो नद का परमार्थ इसे मानूँगा हित उसका उससे अधिक कौन जानूँगा? जितने प्रवाह हैं, बहें--अवश्य बहें वे, निज मर्यादा में किन्तु सदैव रहें वे। केवल उनके ही लिये नहीं यह धरणी, है औरों की भी भार-धार

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 4)

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देखो, यह मेरा नकुल देहली पर से बाहर की गति-विधि देख रहा है डर से। लो, ये देवर आ रहे बाढ़ के जल-से, पल पल में उथले-भरे, अचल-चंचल से! होगी ऐसी क्या बात, न जानें स्वामी, भय न हो उन्हें, जो सदय पुण्य

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 5)

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उस सरसी-सी, आभरणरहित, सितवसना, सिहरे प्रभु माँ को देख, हुई जड़ रसना। "हा तात!" कहा चीत्कार समान उन्होंने, सीता सह लक्ष्मण लगे उसी क्षण रोने। उमड़ा माँओं का हृदय हाय ज्यों फट कर, "चिर मौन हुए वे त

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 6)

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तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे, नीले वितान के तले दीप बहु जागे। टकटकी लगाये नयन सुरों के थे वे, परिणामोत्सुक उन भयातुरों के थे वे। उत्फुल्ल करौंदी-कुंज वायु रह रह कर, करती थी सबको पुलक-पूर्ण मह मह कर

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 7)

14 अप्रैल 2022
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मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा, उसने फिर तुमको आज भुजा भर भेटा। देवों की ही चिरकाल नहीं चलती है, दैत्यों की भी दुर्वृत्ति यहाँ फलती है।" हँस पड़े देव केकयी-कथन यह सुन कर, रो दिये क्षुब्ध दुर्दैव दै

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 8)

14 अप्रैल 2022
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हे वत्स, तुम्हें वनवास दिया मैंने ही, अब उसका प्रत्याहार किया मैंने ही।" "पर रघुकुल में जो वचन दिया जाता है, लौटा कर वह कब कहाँ लिया जाता है? क्यों व्यर्थ तुम्हारे प्राण खिन्न होते हैं, वे प्रेम

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साकेत / अष्ठम सर्ग / (भाग 9)

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"भाभी, तुम पर है मुझे भरोसा दूना, तुम पूर्ण करो निज भरत-मातृ-पद ऊना। जो कोसलेश्वरी हाय! वेश ये उनके? मण्डन हैं अथवा चिन्ह शेष ये उनके?" "देवर, न रुलाओ आह, मुझे रोकर यों, कातर होते हो तात, पुरुष ह

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 1)

14 अप्रैल 2022
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दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला, सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला; त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही, राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही। विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा, स

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 2)

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आई थी सखि, मैं यहाँ लेकर हर्षोच्छवास, जाऊँगी कैसे भला देकर यह निःश्वास? कहाँ जायँगे प्राण ये लेकर इतना ताप? प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप। साल रही सखि, माँ की झाँकी वह चित्रकूट की मु

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 3)

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आगे जीवन की सन्ध्या है, देखें क्या हो आली? तू कहती है--’चन्द्रोदय ही, काली में उजियाली’? सिर-आँखों पर क्यों न कुमुदिनी लेगी वह पदलाली? किन्तु करेंगे कोक-शोक की तारे जो रखवाली? ’फिर प्रभात होगा’ क्

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 4)

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यथार्थ था सो सपना हुआ है, अलीक था जो, अपना हुआ है। रही यहाँ केवल है कहानी, सुना वही एक नई-पुरानी। आओ, हो, आओ तुम्हीं, प्रिय के स्वप्न विराट, अर्ध्य लिये आँखें खड़ीं हेर रही हैं बाट। आ जा, मेरी न

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 5)

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तप, तुझसे परिपक्वता पाकर भले प्रकार, बनें हमारे फल सकल, प्रिय के ही उपहार। पड़ी है लम्बी-सी अवधि पथ में, व्यग्र मन है, गला रूखा मेरा, निकट तुझसे आज घन है। मुझे भी दे दे तू स्वर तनिक सारंग, अपना,

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 6)

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तम में तू भी कम नहीं, जी, जुगनू, बड़भाग, भवन भवन में दीप हैं, जा, वन वन में जाग। हा! वह सुहृदयता भी क्रीड़ा में है कठोरता जड़िता, तड़प तड़प उठती है स्वजनि, घनालिंगिता तड़िता! गाढ़ तिमिर की बाढ

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 7)

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सखि, मेरी धरती के करुणांकुर ही वियोग सेता है, यह औषधीश उनको स्वकरों से अस्थिसार देता है! जन प्राचीजननी ने शशिशिशु को जो दिया डिठौना है, उसको कलंक कहना, यह भी मानों कठोर टौना है! सजनी, मेरा मत

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 8)

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हम राज्य लिए मरते हैं! सच्चा राज्य परन्तु हमारे कर्षक ही करते हैं। जिनके खेतों में हैं अन्न, कौन अधिक उनसे सम्पन्न? पत्नी-सहित विचरते हैं वे, भव-वैभव भरते हैं, हम राज्य लिए मरते हैं! वे गो-धन के

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 9)

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श्लाघनीय हैं एक-से दोनों ही द्युतिमन्त, जो वसन्त का आदि है, वही शिशिर का अन्त। ज्वलित जीवन धूम कि धूप है, भुवन तो मन के अनुरूप है। हसित कुन्द रहे कवि का कहा, सखि, मुझे वह दाँत दिखा रहा! हाय!

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 10)

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बिखर कली झड़ती है, कब सीखी किन्तु संकुचित होना? संकोच किया मैं ने, भीतर कुछ रह गया, यही रोना! अरी, गूँजती मधुमक्खी; किसके लिए बता तू ने वह रस की मटकी रक्खी? किसका संचय दैव सहेगा? काल घात में लग

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 11)

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अर्थ, तुझे भी हो रही पदप्राप्ति की चाह? क्या इस जलते हृदय में और नहीं निर्वाह? स्वजनि, रोता है मेरा गान, प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान। झिलता नहीं समीर पर इस जी का जंजाल, झड़ पड़ते

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 12)

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यही टेक मैं तन्मयी छोर से, लगी छेड़ने कान्त की ओर से। अकस्मात निःशब्द आये जयी, मनोवृत्ति थी नाथ की मन्मयी। सखी, आप ही आपको वे हँसे ’बड़े वीर थे, आज अच्छे फँसे!’ हँसी मैं, अजी, मानिनी तो गई, बधा

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 13)

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हहह! उर्मिला भ्रान्त है, रहे, यह असत्य तो सत्य भी बहे। ज्वलित प्राण भी प्राण पागये, सुभग आगये, कान्त आगये! निकल हंस-से केकि-कुंज से, निरख वे खड़े प्रेम-पुंज-से! रुचिर चन्द्र की चन्द्रिका खिली,

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साकेत / नवम सर्ग / (भाग 14)

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तुम सुखी रहो हे विरागिनी, बस विदा मुझे पुण्यभागिनी! हट सुलक्षणे, रोक तू न यों, पतित मैं, मुझे टोक तू न यों। विवश लक-’ ’नहीं, उर्मिला हहा!’ किधर उर्मिला? आलि, क्या कहा? फिर हुई अहा! मत्त उर्मिल

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 1)

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चिरकाल रसाल ही रहा जिस भावज्ञ कवीन्द्र का कहा, जय हो उस कालिदास की कविता-केलि-कला-विलास की! रजनी! उस पार कोक है; हत कोकी इस पार, शोक है! शत सारव वीचियाँ वहाँ मिलते हा-रव बीच में जहाँ! लहरें

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 2)

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किसने निज पुत्र भी तजा? किसने यों कृत्कृत्य की प्रजा? किसने शत यज्ञ हैं किये पदवी वासन की बिना लिये? सुन, हैं कहते कृती कवि मिलती सागर को न जान्हवी, स्व-भगीरथ-यत्न जो कहीं, करते वे सरयू-सखा नही

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 3)

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विहगावलि नित्य कूजती, जननी पावन मूर्त्ति पूजती। मिलता सबको प्रसाद था, वह था जो सुख और स्वाद था। यह यौवन आप भोग है, सुख का शैशव-संग योग है। वह शैशव हा! गया-गया, अब तो यौवन-भोग है नया! तितली उड़

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 4)

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वह श्यामल-गौर गात्र थे, उनके-से कह, कौन पात्र थे? वह पुण्यकृती अपाप थे, पहले ही अवतीर्ण आप थे। दुगुने वह धीर-वीर थे, सुकृती ये कल-नीर-तीर थे। प्रभु दायक जो उदार थे, जननी तीन, सुपुत्र चार थे। क

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 5)

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सुख-शान्ति रहे स्वदेश की, यह सच्ची छवि क्षात्र वेश की। कृषि-गो-द्विज-धर्म-वृद्धि हो, रिपु से रक्षित राज्य-ऋद्धि हो। प्रभु ने भय-मूर्त्ति बिद्ध की, मुनि ने भी मख-पूर्त्ति सिद्ध की। बहु राक्षस विघ

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 6)

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’अपनी जगती अधीन-सी चरणों में चुपचाप लीन-सी!’ निकली उनकी उसाँस-सी, उसने दी यह एक आँस-सी ’उनकी पद-धूलि जो धरूँ, न अहल्या-अपकीर्ति से ड़रूँ!’ मुझको कुछ आत्म-गर्व था; क्षण में ही अब सर्व खर्व था।

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 7)

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मुझको प्रिय स्वप्न में मिले; पर बोले वह--’हाय उर्मिले! वर हूँ, पर वीर हूँ, वरो, धर लो धीरज तो मुझे धरो।’ मुखरा मति मौन ही रही, पर थी सम्मति-सी हुई वही। ’अबला तुम!’--हाय रे छली! वरती हूँ तब तो म

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 8)

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अरुणोदय देख आग-सा न उठा कौन मनुष्य जाग-सा? ’अब भी रवि का विकास है, अब भी सागर रत्न-वास है। अब भी रवि-वंश शेष है, वसुधा है, वृहदंस शेष है। अब भी जल-पूर्ण जन्हुजा, अब भी राघव की महा भुजा। शत कार

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साकेत / दशम सर्ग / (भाग 9)

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सुन, मैं यह एक दीन माँ, तुमको हैं अब प्राप्त तीन माँ। पति का सुख मुख्य मानियो।’ ’सुख को भी सहनीय जानियो।’ पिछला उपदेश तात का, बिसरा-सा वह वेश तात का, अब भी यह याद आ रहा; बिसरा-सा सब भान जा रहा।

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 1)

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जयति कपिध्वज के कृपालु कवि, वेद-पुराण-विधाता व्यास; जिनके अमरगिराश्रित हैं सब धर्म, नीति, दर्शन, इतिहास! बरसें बीत गईं, पर अब भी है साकेत पुरी में रात, तदपि रात चाहै जितनी हो, उसके पीछे एक प्रभात

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 2)

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"प्रिये, सभी सह सकता हूँ मैं, पर असह्य तुम सबका ताप।" "किन्तु नाथ, हम सबने इसको लिया नहीं क्या अपने आप? भूरि-भाग्य ने एक भूल की, सबने उसे सँभाला है, हमें जलाती, पर प्रकाश भी फैलाती यह ज्वाला है। क

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 3)

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"अनुज, सुनाते रहो सदा तुम मुझको ऐसे ही संवाद, सुनों, मिला है हमें और भी हिमगिरि का कुछ नया प्रसाद। मानसरोवर से आये थे सन्ध्या समय एक योगी, मृत्युंजय की ही यह निश्चय मुझ पर कृपा हुई होगी। वे दे गये

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 4)

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आंजनेय को अधिक कृती उन कार्त्तिकेय से भी लेखो, माताएँ ही माताएँ हैं जिसके लिए जहाँ देखो। पर विलम्ब से हानि, सुनो मैं हनूमान, मारुति, प्रभुदास, संजीवनी-हेतु जाता हूँ योग-सिद्धि से उड़ कैलास।" "प्रस

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 5)

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हिम-सम अश्रु और मोती का हार उन्होंने, हमें निहार, उझल दिया मानों झोंके से,--देकर निज परिचय दो बार। अश्रु-बिन्दु तो पिरो ले गईं किरणें स्वर्णाभरण विचार, उनका स्मारक छिन्न हार ही हुआ वहाँ प्रभु का उप

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साकेत / एकादश सर्ग / (भाग 6)

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प्रभु ने दूत भेज रावण को दिया और भी अवसर एक, हित में अहित, अहित ही में हित, किन्तु मानता है अविवेक। सर्वनाशिनी बर्बरता भी पाती है विग्रह में नाम, पड़ा योग्य ही रक्षों को हम ऋक्ष-वानरों से अब काम।

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 1)

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ढाल लेखनी, सफल अन्त में मसि भी तेरी, तनिक और हो जाय असित यह निशा अँधेरी। ठहर तमी, कृष्णाभिसारिके, कण्टक, कढ़ जा, बढ़ संजीवनि, आज मृत्यु के गढ़ पर चढ़ जा! झलको, झलमल भाल-रत्न, हम सबके झलको, हे नक्

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 2)

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अन्तःपुर में वृत्त प्रथम ही घूम फिरा था, सबके सम्मुख विषम वज्र-सा टूट गिरा था। माताओं की दशा--हाय! सूखे पर पाला, जला रही थी उन्हें कँपा कर ठंढ़ी ज्वाला! "अम्ब, रहे यह रुदन, वीरसू तुम, व्रत पालो,

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 3)

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देखा चारों ओर वीर ने दृष्टि डाल कर, और चला तत्काल आपको वह सँभाल कर। मूर्च्छित होकर गिरी इधर कोसल्या रानी, उधर अट्ट पर दीख पड़ा गृह-दीपक मानी। चढ़ दो दो सोपान राज-तोरण पर आया, ऋषभ लाँघ कर माल्यक

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अपने मद की नहीं आप ही ऊष्मा सह कर, झलते थे श्रुति-तालवृन्त दन्ती रह रह कर! योद्धाओं का धन सुवर्ण से सार सलोना, जहाँ हाथ में लोह वहाँ पैरों में सोना! मानों चले सगेह रथीजन बैठ रथों में, आगे थे टंका

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 5)

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अबला का अपमान सभी बलवानों का है, सती-धर्म का मान मुकुट सब मानों का है। वीरो, जीवन-मरण यहाँ जाते आते हैं, उनका अवसर किन्तु कहाँ कितने पाते हैं? मारो, मारो, जहाँ वैरियों को तुम पाओ, मर मर कर भी उन्

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 6)

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“शान्त! शान्त!” गम्भीर नाद सुन पड़ा अचानक, गूँज उठा हो यथा अवनि पर अम्बर-आनक! कुलपति वृद्ध वसिष्ठ आगये तप के निधि-से, हंस-वंश-गुरु, हंसनिष्ठ, एकानन विधि-से। सेना की जो प्रलयकारिणी घटा उठी थी, अ

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 7)

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चौड़े चौड़े चार वक्ष-से लंका गढ़ के, तोड़े द्वार-कपाट कटक ने बढ़ के, चढ़ के। प्रथम वेग से बचे शत्रु, जो सजग खड़े थे, कर के अब हुंकार प्रेत-से टूट पड़े थे। दल-बादल भिड़ गये, धरा धँस चली धमक से, भड

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 8)

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शब्द शब्द से, शस्त्र शस्त्र से, घाव घाव से, स्पर्द्धा करने लगे परस्पर एक भाव से। होकर मानों एक प्राण दोनों भट-भूषण, दो देहों को मान रहे थे निज निज दूषण! प्राणों का पण लगा लगा कर दोनों लक्षी, उड़ा

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 9)

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वर विमान से कूद, गरुड़ से ज्यों पुरुषोत्तम, मिले भरत से राम क्षितिज में सिन्धु-गगन-सम! “उठ, भाई, तुल न सका तुझसे, राम खड़ा है, तेरा पलड़ा बड़ा, भूमि पर आज पड़ा है! गये चतुर्दश वर्ष, थका मैं नहीं भ

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साकेत / द्वादश सर्ग / (भाग 10)

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“किन्तु देख यह वेश दुखी होंगे वे कितने?” “तो, ला भूषण-वसन, इष्ट हों तुझको जितने। पर यौवन-उन्माद कहाँ से लाऊँगी मैं? वह खोया धन आज कहाँ सखि, पाऊँगी मैं?” “अपराधी-सा आज वही तो आने को है, बरसों का य

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