भारतीय समाज अपनी विभिन्न्ता और सांस्कृतिक विरासत के लिए विश्वभर के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में भी हमें विभिन्न मूल्यों की शिक्षा का वर्णन मिलता है। लेकिन देश के विशाल आकार और विविधता, विकसनशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है। भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी निहित है। संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है। लेकिन अगर भारतीय समाज के सही सवरुप का चिंतन किया जाये तो इसमें मूल्यों की शिक्षा और मानवाधिकार सम्बन्धी विचारों में हमें कथनी और करनी में बहुत अंतर देखने को मिलता है। मूल्यों से अभिप्राय उन गुणों से है जो मानव के सम्पूर्ण विकास में सहायक हों। दूसरी तरफ मानवाधिकार से अभिप्राय उन जीवनोपयोगी विशेषताओं से है जो कि एक मानव के लिए आवश्यक हों और वह उस समाज का जिसका वह अंग है, में समानता और स्व्तंत्रता का जीवन जी सके। बेसक हम प्राचीन भारतीय समाज कई डींगें हाँकते रहे लेकिन वास्तविकता ये है कि प्राचीन शिक्षा पद्द्ति द्वारा वर्णन किये गये मूल्य आज तक समाज में स्थापित नहीं किये जा सके। अगर ऐसा होता तो आज भारतीय समाज में भ्रष्टाचार , लिंगभेद , बलात्कार, जातिप्रथा और मानवाधिकारों का उल्लंघन न होता.