कबीर का काव्य भारतीय संस्कृति की परम्परा में एक अनमोल कड़ी है। आज का जागरूक लेखक कबीर की निर्भीकता, सामाजिक अन्याय के प्रति उनकी तीव्र विरोध की भावना और उनके स्वर की सहज सच्चाई और निर्मलता को अपना अमूल्य उतराधिकार समझता है।कबीर न तो मात्र सामाजिक सुधारवादी थे और न ही धर्म के नाम पर विभेदवादी। वह आध्यात्मिकता की सार्वभौम आधारभूमि पर सामाजिक क्रांति के मसीहा थे। कबीर की वाणी में अस्वीकार का स्वर उन्हें प्रासंगिक बनाता है और आज से जोड़ता है। इस वर्ष 23 जून, 2013 को संत कबीर दास जयंती मनायी जा रही है, आप सभी को इस महती पर्व की हार्दिक बधाई ।
कबीर मानववादी विचारधारा के प्रति गहन आस्थावान थे। वह युग अमानवीयता का था , इसलिए कबीर ने मानवता से परिपूर्ण भावनाओं, सम्वेदनाओं व् चेतना को जागृत करने का प्रयास किया।हकीकत तो यह है की कबीर वर्गसंघर्ष के विरोधी थे। वे समाज में व्याप्त शोषक-शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। जातिप्रथा का विरोध करके वे मानवजाति को एक दूसरे के समीप लाना चाहते थे।
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
मनुष्य की इस स्पष्ट दिखने वाली समानता को नकारकर उनमें धर्म और जाति-वर्ण के नाम पर भेदभाव स्थापित करने के लिए जो जो जिम्मेदार नजर आते हैं कबीर उन सबका डटकर विरोध करते हैं। चाहे वह वेद हो या कुरान , मन्दिर हो या मस्जिद , पंडित हो या मौलवी।
सामाजिक न्याय की मांग है की समाज में जन्म परम्परा अथवा विरासत के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए, वर्ण सभी को उनकी योग्यता और श्रम के आधार पर प्रगति करने के अवसर मिलना चाहिए। सभी को समान समझना चाहिए और किसी को अधिकार से वंचित नही किया जाए। किसी भी प्रकार की वेशभूषा अथवा विशेष ग्रहण करने, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का कोई लाभ नहीं। सन्त कबीर कहते हैं -
वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
कबीर का समाज-दर्शन अथवा आदर्श समाज विषयक उनकी मान्यताएँ ठोस यथार्थ का आधार लेकर खडी हैं। अपने समय के सामन्ती समाज में जिस प्रकार का शोषण दमन और उत्पीडन उन्होंने देखा-सुना था, उनके मूल में उन्हें सामन्ती स्वार्थ एवम धार्मिक पाखण्डवाद दिखाई दिया जिसकी पुष्टि दार्शनिक सिद्धान्तों की भ्रामक व्यवस्था से की जाती थी और जिसका व्यक्त रूप बाह्याचार एवम कर्मकाण्ड थे। कबीर ने समाज व्यवस्था सत्यता, सहजता, समता और सदाचार पर आश्रित करना चाहा जिसके परिणाम स्वरूप कथनी और करनी के अन्तर को उन्होंने सामाजिक विकृतियों का मूलाधार माना और सत्याग्रह पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नीवं रखी।
डॉ एम फिरोज खान का निष्कर्ष है कि, "यह सच्चाई निर्विवाद है कि कबीर आवाम की वाणी के उद्घोषक हैं। उनकी वाणी का स्फुरण धर्म, वर्ग, रंग, नस्ल, समाज, आचरण, नैतिकता और व्यवहार आदि सभी क्षेत्र में हुआ है। यह स्फुरण किसी विशेष वर्ग, भू -भाग या देश के लिए नही अपितु मानव मात्र के लिए है। उन्होंने आवाम को गिराकर एकत्व स्थापित करने का प्रयास किया है। इसके लिए जितने शक्तिशाली प्रहार की आवश्यकता थी उसे करने में चुके नहीं। बेखौफ होकर , जहाँ तक जाना सम्भव था वहां तक जाकर असत्य का प्रतिछेदन करते हुए सत्य के शोधन के माध्यम से समाजों को प्रेम के सूत्र में बांधने का प्रयास किया। वस्तुत: प्रेम पर आधरित वैचारिक क्रांति उनका प्रमुख हथियार था। दरअसल कबीर साहब का मुख्य लक्ष्य मानव कल्याण की प्रतिष्ठा थी और इसके लिए वह युगानुकुल जैसे भी प्रयत्न सम्भव थे उनको प्रयोग करने में हिचकिचाये नहीं। उनके निडर व्यक्तित्व से जन्मे विश्वास की यही शक्ति उनको हर युग और प्रत्येक समाज में प्रासंगिक बनाए हुए है।"
जब हम कबीर और वर्तमान दलित-विमर्श के सन्दर्भ में बात करते है तो एक और पहलु हमे ध्यान रखना पडता हैं जिसे ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में इस ढंग से कहा गया है, "निर्गुण धारा के कवियों विशेष रूप से कबीर और रैदास की रचनाओं में अंतर्निहित सामाजिक विद्रोह दलित लेख्कों के लिए प्रेरणादायक है। उससे दलित लेखक ऊर्जा करते हैं, लेकिन वह दलित लेखन का आदर्श नहीं हैं।" इसके लिए एक तर्क यह भी दिया जा सकता है की जैसे गाँधी और अन्य विचारको के जातपात सम्बन्धी चिन्तन उतना परिपक्व नही है जितना की डॉ भीम राव अम्बेडकर जी का है। दलित-मुक्ति के लिए डॉ भीम राव अम्बेडकर का चिन्तन अति आवश्यक हैं क्यूंकि यह समस्या को गहराई से छूता है और संघर्ष को सकारात्मक दिशा देता है। आज के दलित लेखन के लिए सामाजिक और राजनितिक दृष्टिकोण ज्यादा आवश्यक है न की धार्मिक दृष्टिकोण। फिर भी कबीर और अन्य संतों की वाणी नैतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। जिसका एक उदाहरण निम्नलिखित है जिसमे बताया गया है की गुणवान-चालाक, ढोंगी और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो निस्वार्थ भाव से हो :
गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय।
कबीर प्रीति सो जानिये, इंसे न्यारी होय।।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है की भारतीय समाज में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक, राजनैतिक और संस्कृतिक अधिकारों से वंचित रखा गया। उसी सताए हुए समाज की पीड़ा की अभिव्यक्ति का साहित्य दलित-साहित्य है। सन अस्सी के दशक के बाद ही यह साहित्य मुखर रूप में हमारे सामने आया है। इस साहित्य का विकास भारत में बड़ी तेजी से हो रहा है। दलित लेखकों में प्रमुख रूप से धर्मवीर, जयप्रकाश कदर्म, ओमप्रकाश वाल्मीकि , सत्य प्रकाश, निरा परमार , सुशीला टाक भोरे, कँवल भारती , रमणिका गुप्ता आदि का नाम लिया जा सकता है। इसी परम्परा में बहुत सी अन्य कड़ियाँ भी जुडती जा रही हैं। अक्सर दलित रचनाओं पर कच्चेपन और अपरिपक्वता का दोष लगाया जाता है जिसका प्रमुख कारण यह की अक्सर साहित्य लिखते समय साहित्यिक सौन्दर्य निर्माण में वे विचार और आदर्श छुट जाते है जो की दलित विमर्श और दलित संघर्ष के लिए अति आवश्यक है। संघर्ष को दिशा देने वाला साहित्य ही वास्तव में आज की हमारी आवश्यकता है।
अंत में सभी साथियों को दोबारा संत कबीर जयन्ती की हार्दिक बधाई।
सन्दर्भ:
प्रस्तुत लेख में निम्नलिखित रचनाओं से वैचारिक अंशदान लिया गया है :
ओमप्रकाश वाल्मीकि: मुख्यधारा और दलित साहित्य
एम फिरोज खान: नई सदी में कबीर
एन सिंह: दलित साहित्य :परम्परा और विन्यास
बलदेव वंशी : कबीर : एक पुनर्मुल्यांकन
तरुण कुमार: दलित साहित्य-विमर्श की एक और पुस्तक (समीक्षा नामक पत्रिका का लेख )
रमाकांत: दलित विमर्श और इक्कीसवीं शती का कथा साहित्य (पंचशील समीक्षा नामक पत्रिका का लेख )