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सेवा-प्रारम्भ

11 अप्रैल 2022

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अल्प दिन हुए,

भक्तों ने रामकृष्ण के चरण छुए।

जगी साधना

जन-जन में भारत की नवाराधना।

नई भारती

जागी जन-जन को कर नई आरती।

घेर गगन को अगणन

जागे रे चन्द्र-तपन

पृथ्वी-ग्रह-तारागण ध्यानाकर्षण,

हरित-कृष्ण-नील-पीत

रक्त-शुभ्र-ज्योति-नीत

नव नव विश्वोपवीत, नव नव साधन।

खुले नयन नवल रे

ॠतु के-से मित्र सुमन

करते ज्यों विश्व-स्तवन

आमोदित किये पवन भिन्न गन्ध से।

अपर ओर करता विज्ञान घोर नाद

दुर्धर शत-रथ-घर्घर विश्व-विजय-वाद।

स्थल-जल है समाच्छन्न

विपुल-मार्ग-जाल-जन्य,

तार-तार समुत्सन्न देश-महादेश,

निर्मित शत लौहयन्त्र

भीमकाय मृत्युतन्त्र

चूस रहे अन्त्र, मन्त्र रहा यही शेष।

बढ़े समर के प्रकरण,

नये नये हैं प्रकरण,

छाया उन्माद मरण-कोलाहल का,

दर्प ज़हर, जर्जर नर,

स्वार्थपूर्ण गूँजा स्वर,

रहा है विरोध घहर इस-उस दल का।

बँधा व्योम, बढ़ी चाह,

बहा प्रखरतर प्रवाह,

वैज्ञानिक समुत्साह आगे,

सोये सौ-सौ विचार

थपकी दे बार-बार

मौलिक मन को मुधार जागे!

मैक्सिम-गन करने को जीवन-संहार

हुआ जहाँ, खुला वहीं नोब्ल-पुरस्कार!

राजनीति नागिनी

बसती है, हुई सभ्यता अभागिनी।

जितने थे यहाँ नवयुवक

ज्योति के तिलक

खड़े सहोत्साह,

एक-एक लिये हुए प्रलयानल-दाह।

श्री ’विवेक’, ’ब्रह्म’, ’प्रेम’, ’सारदा’,

ज्ञान-योग-भक्ति-कर्म-धर्म-नर्मदा,

वहीं विविध आध्यात्मिक धाराएँ

तोड़ गहन प्रस्तर की काराएँ,

क्षिति को कर जाने को पार,

पाने को अखिल विश्व का समस्त सार।

गृही भी मिले,

आध्यात्मिक जीवन के रूप में यों खिले।

अन्य ओर भीषण रव--यान्त्रिक झंकार

विद्या का दम्भ,

यहाँ महामौनभरा स्तब्ध निराकार

नैसर्गिक रंग।

बहुत काल बाद

अमेरिका-धर्ममहासभा का निनाद

विश्व ने सुना, काँपी संसृति की थी दरी,

गरजा भारत का वेदान्त-केसरी।

श्रीमत्स्वामी विवेकानन्द

भारत के मुक्त-ज्ञानछन्द

बँधे भारती के जीवन से

गान गहन एक ज्यों गगन से,

आये भारत, नूतन शक्ति ले जगी

जाति यह रँगी।

स्वामी श्रीमदखण्डानन्द जी

एक और प्रति उस महिमा की,

करते भिक्षा फिर निस्सम्बल

भगवा-कौपीन-कमण्डलु-केवल;

फिरते थे मार्ग पर

जैसे जीवित विमुक्त ब्रह्म-शर।

इसी समय भक्त रामकृष्ण के

एक जमींदार महाशय दिखे।

एक दूसरे को पहचान कर

प्रेम से मिले अपना अति प्रिय जन जान कर।

जमींदार अपने घर ले गये,

बोले--"कितने दयालु रामकृष्ण देव थे!

आप लोग धन्य हैं,

उनके जो ऐसे अपने, अनन्य हैं।

द्रवित हुए। स्वामी जी ने कहा,

"नवद्वीप जाने की है इच्छा,

महाप्रभु श्रीमच्चैतन्यदेव का स्थल

देखूँ, पर सम्यक निस्सम्बल

हूँ इस समय, जाता है पास तक जहाज,

सुना है कि छूटेगा आज!"

धूप चढ़ रही थी, बाहर को

ज़मींदार ने देखा,--घर को,

फिर घड़ी, हुई उन्मन

अपने आफिस का कर चिन्तन;

उठे, गये भीतर,

बड़ी देर बाद आये बाहर,

दिया एक रूपया, फिर फिरकर

चले गये आफिस को सत्वर।

स्वामी जी घाट पर गये,

"कल जहाज छूटेगा" सुनकर

फिर रुक नहीं सके,

जहाँ तक करें पैदल पार

गंगा के तीर से चले।

चढ़े दूसरे दिन स्टीमर पर

लम्बा रास्ता पैदल तै कर।

आया स्टीमर, उतरे प्रान्त पर, चले,

देखा, हैं दृश्य और ही बदले,

दुबले-दुबले जितने लोग,

लगा देश भर को ज्यों रोग,

दौड़ते हुए दिन में स्यार

बस्ती में--बैठे भी गीध महाकार,

आती बदबू रह-रह,

हवा बह रही व्याकुल कह-कह;

कहीं नहीं पहले की चहल-पहल,

कठिन हुआ यह जो था बहुत सहल।

सोचते व देखते हुए

स्वामीजी चले जा रहे थे।

इसी समय एक मुसलमान-बालिका

भरे हुए पानी मृदु आती थी पथ पर, अम्बुपालिका;

घड़ा गिरा, फूटा,

देख बालिका का दिल टूटा,

होश उड़ गये,

काँपी वह सोच के,

रोई चिल्लाकर,

फिर ढाढ़ मार-मार कर

जैसे माँ-बाप मरे हों घर।

सुनकर स्वामी जी का हृदय हिला,

पूछा--"कह, बेटी, कह, क्या हुआ?"

फफक-फफक कर

कहा बालिका ने,--"मेरे घर

एक यही बचा था घड़ा,

मारेगी माँ सुनकर फूटा।"

रोईफिर वह विभूति कोई!

स्वामीजी ने देखीं आँखें

गीली वे पाँखें,

करुण स्वर सुना,

उमड़ी स्वामीजी में करुणा।

बोले--"तुम चलो

घड़े की दूकान जहाँ हो,

नया एक ले दें;"

खिलीं बालिका की आँखें।

आगे-आगे चली

बड़ी राह होती बाज़ार की गली,

आ कुम्हार के यहाँ

खड़ी हो गई घड़े दिखा।

एक देखकर

पुख्ता सब में विशेखकर,

स्वामीजी ने उसे दिला दिया,

खुश होकर हुई वह विदा।

मिले रास्ते में लड़के

भूखों मरते।

बोली यह देख के,--"एक महाराज

आये हैं आज,

पीले-पीले कपड़े पहने,

होंगे उस घड़े की दूकान पर खड़े,

इतना अच्छा घड़ा

मुझे ले दिया!

जाओ, पकड़ो उन्हें, जाओ,

ले देंगे खाने को, खाओ।"

दौड़े लड़के,

तब तक स्वामीजी थे बातें करते,

कहता दूकानदार उनसे,--"हे महाराज,

ईश्वर की गाज

यहाँ है गिरी, है बिपत बड़ी,

पड़ा है अकाल,

लोग पेट भरते हैं खा-खाकर पेड़ों की छाल।

कोई नहीं देता सहारा,

रहता हर एक यहाँ न्यारा,

मदद नहीं करती सरकार,

क्या कहूँ, ईश्वर ने ही दी है मार

तो कौन खड़ा हो?"

इसी समय आये वे लड़के,

स्वामी जी के पैरों आ पड़े।

पेट दिखा, मुँह को ले हाथ,

करुणा की चितवन से, साथ

बोले,--"खाने को दो,

राजों के महाराज तुम हो।"

चार आने पैसे

स्वामी के तब तक थे बचे।

चूड़ा दिलवा दिया,

खुश होकर लड़कों ने खाया, पानी पिया।

हँसा एक लड़का, फिर बोला

"यहाँ एक बुढ़िया भी है, बाबा,

पड़ी झोपड़ी में मरती है, तुम देख लो

उसे भी, चलो।"

कितना यह आकर्षण,

स्वामीजी के उठे चरण।

लड़के आगे हुए,

स्वामी पीछे चले।

खुश हो नायक ने आवाज दी,

"बुढ़िया री, आये हैं बाबा जी।"

बुढ़िया मर रही थी

गन्दे में फर्श पर पड़ी।

आँखों में ही कहा

जैसा कुछ उस पर बीता था।

स्वामीजी पैठे

सेवा करने लगे,

साफ की वह जगह,

दवा और पथ फिर देने लगे

मिलकर अफसरों से

भीग माग बड़े-बड़े घरों से।

लिखा मिशन को भी

दृश्य और भाव दिखा जो भी।

खड़ी हुई बुढ़िया सेवा से,

एक रोज बोली,--"तुम मेरे बेटे थे उस जन्म के।"

स्वामीजी ने कहा,--

"अबके की भी हो तुम मेरी माँ।"

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रचनाएँ
अनामिका
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“ 'निराला' काव्य के रूप में शक्ति के पुंज हैं, अडिग आत्म विश्वास से वे ओत-प्रोत हैं, विपरीत विचारधाराओं के तूफानी थपेड़ों के बीच चट्टान की भाँति स्थिर रहने की सामर्थ्य रखते हैं। उनकी अन्त:शक्‍ति असीम है। उसी के बल पर वे विरोधों के बीच बढ़ते जाते हैं और विरोध को पराजित करते हैं।”
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गीत

9 अप्रैल 2022
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जैसे हम हैं वैसे ही रहें, लिये हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें। मुदें पलक, केवल देखें उर में, सुनें सब कथा परिमल-सुर में, जो चाहें, कहें वे, कहें। वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय देख रह

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प्रेयसी

9 अप्रैल 2022
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घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ। दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्म

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मित्र के प्रति

9 अप्रैल 2022
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(1) कहते हो, ‘‘नीरस यह बन्द करो गान- कहाँ छन्द, कहाँ भाव, कहाँ यहाँ प्राण ? था सर प्राचीन सरस, सारस-हँसों से हँस; वारिज-वारिज में बस रहा विवश प्यार; जल-तरंग ध्वनि; कलकल बजा तट-मृदंग सदल;

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सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति

9 अप्रैल 2022
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वीक्षण अगल बज रहे जहाँ जीवन का स्वर भर छन्द, ताल मौन में मन्द्र, ये दीपक जिसके सूर्य-चन्द्र, बँध रहा जहाँ दिग्देशकाल, सम्राट! उसी स्पर्श से खिली प्रणय के प्रियंगु की डाल-डाल! विंशति शताब्दि,

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दान

9 अप्रैल 2022
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वासन्ती की गोद में तरुण, सोहता स्वस्थ-मुख बालारुण; चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल तरुणियों सदृश किरणें चंचल; किसलयों के अधर यौवन-मद रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद। (1) खुलती कलियों से कलियों पर नव आ

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प्रलाप

9 अप्रैल 2022
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वीणानिन्दित वाणी बोल! संशय-अन्धकामय पथ पर भूला प्रियतम तेरा सुधाकर-विमल धवल मुख खोल! प्रिये, आकाश प्रकाशित करके, शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके! शुष्क हूँ--नीरस हूँ--

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खँडहर के प्रति

9 अप्रैल 2022
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खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी? अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज! विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए? पवन-संचरण के साथ ही परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज आश

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प्रेम के प्रति

9 अप्रैल 2022
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चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब, तुम अनादि तब केवल तम; अपने ही सुख-इंगित से फिर हुए तरंगित सृष्टि विषम। तत्वों में त्वक बदल बदल कर वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल, विद्युत की माया उर में, तुम उतरे जग

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वीणावादिनी

9 अप्रैल 2022
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तव भक्त भ्रमरों को हृदय में लिए वह शतदल विमल आनन्द-पुलकित लोटता नव चूम कोमल चरणतल। बह रही है सरस तान-तरंगिनी, बज रही है वीणा तुम्हारी संगिनी, अयि मधुरवादिनि, सदा तुम रागिनी-अनुरागिनी, भर अमृत-ध

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प्रगल्भ प्रेम

9 अप्रैल 2022
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आज नहीं है मुझे और कुछ चाह, अर्धविकव इस हॄदय-कमल में आ तू प्रिये, छोड़ कर बन्धनमय छ्न्दों की छोटी राह! गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण, कण्टकाकीर्ण, कैसे होगी उससे पार? काँटों में अंचल के तेरे तार

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यहीं

9 अप्रैल 2022
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मधुर मलय में यहीं गूँजी थी एक वह जो तान लेती हिलोरें थी समुद्र की तरंग सी, उत्फुल्ल हर्ष से प्लावित कर जाती तट। वीणा की झंकृति में स्मृति की पुरातन कथा जग जाती हृदय में,--बादलों के अंग में म

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क्या गाऊँ

9 अप्रैल 2022
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क्या गाऊँ? माँ! क्या गाऊँ? गूँज रहीं हैं जहाँ राग-रागिनियाँ, गाती हैं किन्नरियाँ कितनी परियाँ कितनी पंचदशी कामिनियाँ, वहाँ एक यह लेकर वीणा दीन तन्त्री-क्षीण, नहीं जिसमें कोई झंकार नवीन, रुद्ध

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प्रिया से

9 अप्रैल 2022
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मेरे इस जीवन की है तू सरस साधना कविता, मेरे तरु की है तू कुसुमित प्रिये कल्पना-ज्ञतिका; मधुमय मेरे जीवन की प्रिय है तू कमल-कामिनी, मेरे कुंज-कुटीर-द्वार की कोमल-चरणगामिनी, नूपुर मधुर बज रहे तेरे,

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सच है

9 अप्रैल 2022
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यह सच है तुमने जो दिया दान दान वह, हिन्दी के हित का अभिमान वह, जनता का जन-ताका ज्ञान वह, सच्चा कल्याण वह अथच है यह सच है! बार बार हार हार मैं गया, खोजा जो हार क्षार में नया, उड़ी धूल, तन स

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सन्तप्त

9 अप्रैल 2022
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अपने अतीत का ध्यान करता मैं गाता था गाने भूले अम्रीयमाण। एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार, विकल वीणा के टूटे तार! मेरा आकुअ क्रंदन, व्याकुल वह स्वर

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चुम्बन

9 अप्रैल 2022
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लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल, चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर, बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु

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अनुताप

9 अप्रैल 2022
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जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी, किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी, जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे, जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे,

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तट पर

9 अप्रैल 2022
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नव वसन्त करता था वन की सैर जब किसी क्षीण-कटि तटिनी के तट तरुणी ने रक्खे थे अपने पैर। नहाने को सरि वह आई थी, साथ वसन्ती रँग की, चुनी हुई, साड़ी लाई थी। काँप रही थी वायु, प्रीति की प्रथम रात की

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ज्येष्ठ

9 अप्रैल 2022
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(१) ज्येष्ठ! क्रूरता-कर्कशता के ज्येष्ठ! सृष्टि के आदि! वर्ष के उज्जवल प्रथम प्रकाश! अन्त! सृष्टि के जीवन के हे अन्त! विश्व के व्याधि! चराचर दे हे निर्दय त्रास! सृष्टि भर के व्याकुल आह्वान!--अचल

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कहाँ देश है

9 अप्रैल 2022
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’अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’ कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश! मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर, फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा व

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दिल्ली

9 अप्रैल 2022
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क्या यह वही देश है भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र, चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्माचर्य-दीप्त उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमण्डल में उज्जवल, अधीर और चिरनवीन? श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत न

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रेखा

9 अप्रैल 2022
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यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब श्रोत सौन्दर्य का, वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का था मधुर आकर्षणमय, मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में। वाहिनी संसृति की आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित स्मृति-र

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आवेदन

11 अप्रैल 2022
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फिर सवाँर सितार लो! बाँध कर फिर ठाट, अपने अंक पर झंकार दो! शब्द के कलि-कल खुलें, गति-पवन-भर काँप थर-थर मीड़-भ्रमरावलि ढुलें, गीत-परिमल बहे निर्मल, फिर बहार बहार हो! स्वप्न ज्यों सज जाय यह तरी

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तोड़ती पत्थर

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वह तोड़ती पत्थर; देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर वह तोड़ती पत्थर। कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार; श्याम तन, भर बंधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन, गुरु हथौड़ा हाथ, करती

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विनय

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(गीत) पथ पर मेरा जीवन भर दो, बादल हे अनन्त अम्बर के! बरस सलिल, गति ऊर्मिल कर दो! तट हों विटप छाँह के, निर्जन, सस्मित-कलिदल-चुम्बित-जलकण, शीतल शीतल बहे समीरण, कूजें द्रुम-विहंगगण, वर दो! दू

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उत्साह

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(गीत) बादल, गरजो! घेर घेर घोर गगन, धाराधर जो! ललित ललित, काले घुँघराले, बाल कल्पना के-से पाले, विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले! वज्र छिपा, नूतन कविता फिर भर दो  बादल, गरजो! विकल विकल, उन

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वनबेला

11 अप्रैल 2022
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वर्ष का प्रथम पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम किसलयों बँधे, पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे प्रणय के गान, सुनकर सहसा, प्रखर से प्रखर तर हुआ तपन-यौवन सहसा; ऊर्जित, भास्वर पुलकित शत

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हताश

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जीवन चिरकालिक क्रन्दन । मेरा अन्तर वज्रकठोर, देना जी भरसक झकझोर, मेरे दुख की गहन अन्ध तम-निशि न कभी हो भोर, क्या होगी इतनी उज्वलता इतना वन्दन अभिनन्दन ? हो मेरी प्रार्थना विफल, हृदय-कमल-के

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प्याला

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(गीत) मृत्यु-निर्वाण प्राण-नश्वर कौन देता प्याला भर भर? मृत्यु की बाधाएँ, बहु द्वन्द पार कर कर जाते स्वच्छन्द तरंगों में भर अगणित रंग, जंग जीते, मर हुए अमर। गीत अनगिनित, नित्य नव छन्द विवि

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गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को

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गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को; भले और बुरे की, लोकनिन्दा यश-कथा की नहीं परवाह मुझे; दास तुम दोनों का सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव! पीछे खड़े रहते हो, इसी लिये हास्य-मुख दे

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नाचे उस पर श्यामा

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फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि गूँज रहे हैं चारों ओर जगतीतल में सकल देवता भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर। गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है खोल रही स्मृतियों के द्वार, ललित-तरंग नदी-नद सरसी, चल-शतदल पर भ्रमर-विह

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हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र

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मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन, मैं हूँ केवल पतदल--आसन, तुम सहज बिराजे महाराज। ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि मैं ही वसन्त का अग्रदूत, ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत मैं र

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उक्ति

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कुछ न हुआ, न हो मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल पास तुम रहो! मेरे नभ के बादल यदि न कटे चन्द्र रह गया ढका, तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे लेश गगन-भास का, रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम हाथ यदि गह

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सरोज स्मृति (भाग 1)

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ऊनविंश पर जो प्रथम चरण तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण; तनये, ली कर दृक्पात तरुण जनक से जन्म की विदा अरुण! गीते मेरी, तज रूप-नाम वर लिया अमर शाश्वत विराम पूरे कर शुचितर सपर्याय जीवन के अष्टादशाध्याय,

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सरोज स्मृति (भाग 2 )

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पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।  देखें वे; हसँते हुए प्रवर, जो रहे देखते सदा समर, एक साथ जब शत घात घूर्ण आते थे मुझ पर तुले तूर्ण, देखता रहा मैं खडा़ अपल वह शर-क्षेप,

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सरोज स्मृति (भाग 3)

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पर संपादकगण निरानंद वापस कर देते पढ़ सत्त्वर दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर। लौटी लेकर रचना उदास ताकता हुआ मैं दिशाकाश बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर व्यतीत करता था गुन-गुन कर सम्पादक के गुण; यथाभ्या

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सरोज स्मृति (भाग 4)

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आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल, आई पुतली तू खिल-खिल-खिल हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन सोचता हुआ विवाह-बन्धन। कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो" आई तू, दिया, कहा--"खेलो।" कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश सासुजी रह

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सरोज स्मृति (भाग 5)

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वे जो यमुना के-से कछार पद फटे बिवाई के, उधार खाये के मुख ज्यों पिये तेल चमरौधे जूते से सकेल निकले, जी लेते, घोर-गंध, उन चरणों को मैं यथा अंध, कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति हो पूजूं, ऐसी नहीं श

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मरण-दृश्य

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कहा जो न, कहो ! नित्य - नूतन, प्राण, अपने          गान रच-रच दो ! विश्व सीमाहीन; बाँधती जातीं मुझे कर कर          व्यथा से दीन ! कह रही हो--"दुःख की विधि यह तुम्हें ला दी नई निधि, विहग के वे

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तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा पत्थर, की निकलो फिर, गंगा-जल-धारा! गृह-गृह की पार्वती! पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती उर-उर की बनो आरती! भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा! तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा! 

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खुला आसमान

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बहुत दिनों बाद खुला आसमान! निकली है धूप, खुश हुआ जहान! दिखी दिशाएँ, झलके पेड़, चरने को चले ढोर--गाय-भैंस-भेड़, खेलने लगे लड़के छेड़-छेड़ लड़कियाँ घरों को कर भासमान! लोग गाँव-गाँव को चले, को

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ठूँठ

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ठूँठ यह है आज! गई इसकी कला, गया है सकल साज! अब यह वसन्त से होता नहीं अधीर, पल्लवित झुकता नहीं अब यह धनुष-सा, कुसुम से काम के चलते नहीं हैं तीर, छाँह में बैठते नहीं पथिक आह भर, झरते नहीं यहाँ दो

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कविता के प्रति

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ऐ, कहो, मौन मत रहो! सेवक इतने कवि हैं--इतना उपचार लिये हुए हैं दैनिक सेवा का भार; धूप, दीप, चन्दन, जल, गन्ध-सुमन, दूर्वादल, राग-भोग, पाठ-विमल मन्त्र, पटु-करतल-गत मृदंग, चपल नृत्य, विविध भंग,

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अपराजिता

11 अप्रैल 2022
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हारीं नहीं, देख, आँखें परी नागरी की; नभ कर गंई पार पाखें परी नागरी की। तिल नीलिमा को रहे स्नेह से भर जगकर नई ज्योति उतरी धरा पर, रँग से भरी हैं, हरी हो उठीं हर तरु की तरुण-तान शाखें; परी नागरी

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वसन्त की परी के प्रति

11 अप्रैल 2022
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आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी छवि-विभावरी; सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी छबि-विभावरी; बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग, तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग, पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग, शीतल-मुख

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वे किसान की नयी बहू की आँखें

11 अप्रैल 2022
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नहीं जानती जो अपने को खिली हुई विश्व-विभव से मिली हुई, नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को, नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को, वे किसान की नयी बहू की आँखें ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें; वे

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प्राप्ति

11 अप्रैल 2022
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तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्

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राम की शक्ति पूजा (भाग 1)

11 अप्रैल 2022
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रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर, शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर, प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समू

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राम की शक्ति पूजा (भाग 2)

11 अप्रैल 2022
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फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को, ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण, पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन; लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन, खिंच

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राम की शक्ति पूजा (भाग 3 )

11 अप्रैल 2022
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कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय, तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय! रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार, जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार, बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर, कहता रण की

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राम की शक्ति पूजा (भाग 4 )

11 अप्रैल 2022
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कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न, फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न। हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन। बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्

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राम की शक्ति पूजा (भाग 5 )

11 अप्रैल 2022
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कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक, ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक। ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय, काँपा

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सखा के प्रति

11 अप्रैल 2022
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रोग स्वास्थ्य में, सुख में दुख, है अन्धकार में जहाँ प्रकाश, शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन जहाँ वहाँ क्या आश सुख की करते हो तुम, मतिमन?--छिड़ा हुआ है रण अविराम घोर द्वन्द्व का; यहाँ पुत्र को पित

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सेवा-प्रारम्भ

11 अप्रैल 2022
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अल्प दिन हुए, भक्तों ने रामकृष्ण के चरण छुए। जगी साधना जन-जन में भारत की नवाराधना। नई भारती जागी जन-जन को कर नई आरती। घेर गगन को अगणन जागे रे चन्द्र-तपन पृथ्वी-ग्रह-तारागण ध्यानाकर्षण, हरित

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नारायण मिलें हँस अन्त में

11 अप्रैल 2022
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याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तॄत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल आलोचनाओं से जटिल तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा, गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा।

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प्रकाश

11 अप्रैल 2022
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रोक रहे हो जिन्हें नहीं अनुराग-मूर्ति वे किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम? और लगाना गले उन्हें जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं कब से प्रियतम, है भ्रम? हुई दुई में अगर कहीं पहचान तो रस भी क्या अपने ह

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नर्गिस

11 अप्रैल 2022
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(1 )  बीत चुका शीत, दिन वैभव का दीर्घतर डूब चुका पश्चिम में, तारक-प्रदीप-कर स्निग्ध-शान्त-दृष्टि सन्ध्या चली गई मन्द मन्द प्रिय की समाधि-ओर, हो गया है रव बन्द विहगों का नीड़ों पर, केवल गंगा का स्

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नासमझी

11 अप्रैल 2022
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समझ नहीं सके तुम, हारे हुए झुके तभी नयन तुम्हारे, प्रिय। भरा उल्लास था हॄदय में मेरे जब, काँपा था वक्ष, तब देखी थी तुमने मेरे मल्लिका के हार की कम्पन, सौन्दर्य को!

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उक्ति (जला है जीवन यह)

11 अप्रैल 2022
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जला है जीवन यह आतप में दीर्घकाल; सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे सिक्त आलबाल; बन्द हुआ गुंज, धूलि धूसर हो गये कुंज, किन्तु पड़ी व्योम उर बन्धु, नील-मेघ-माल। 

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सहज

11 अप्रैल 2022
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सहज-सहज पग धर आओ उतर; देखें वे सभी तुम्हें पथ पर। वह जो सिर बोझ लिये आ रहा, वह जो बछड़े को नहला रहा, वह जो इस-उससे बतला रहा, देखूँ, वे तुम्हें देख जाते भी हैं ठहर उनके दिल की धड़कन से मिली

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और और छबि

11 अप्रैल 2022
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और और छबि रे यह, नूतन भी कवि, रे यह और और छबि! समझ तो सही जब भी यह नहीं गगन वह मही नहीं, बादल वह नहीं जहाँ छिपा हुआ पवि, रे यह और और छबि। यज्ञ है यहाँ, जैसा देखा पहले होता अथवा सुना; कि

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मेरी छबि ला दो

11 अप्रैल 2022
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मेरी छबि उर-उर में ला दो! मेरे नयनों से ये सपने समझा दो! जिस स्वर से भरे नवल नीरद, हुए प्राण पावन गा हुआ हृदय भी गदगद, जिस स्वर-वर्षा ने भर दिये सरित-सर-सागर, मेरी यह धरा धन्य हुई भरा नीलाम्बर,

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वारिद वंदना

11 अप्रैल 2022
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मेरे जीवन में हँस दीं हर वारिद-झर! ऐ आकुल-नयने! सुरभि, मुकुल-शयने! जागीं चल-श्यामल पल्लव पर छवि विश्व की सुघर! पावन-परस सिहरीं, मुक्त-गन्ध विहरीं, लहरीं उर से उर दे सुन्दर तनु आलिंगन कर!

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