हिन्दुस्तान के शहरो की तस्वीर । जहा क्रकिट के जंगल है । झोपडपट्टियो की कतार है । खुले आसमान तले जिन्दगी है । करोडो की तादाद में रहते लोगो पर भूख इस तरह हावी है कि जीने का सौन्दर्यशास्त्र होता क्या ये कोई नही जानता । इन्फ्रसट्रक्चर या जीने की न्यूनतम सुविधा भी कोई चीज होती है कोई नही जानता । क्योकि संघर्ष जीने का । जीने के लिये न्यूनतम का है । तो आंकडो में छलाग लगाते देश में शेयर बाजार का ससंकेक्स 30 हजार पार कर भी जिन्दगी को सुकुन दे नहीं पाता और मंगलवार को जब पहली जब मुबंई के शेयर बाजार में जब निफ्टी भी 10 हजार का अंक पार करते हुये दिखा तो भी नजर मुबई के घाटकोपर में गिरी चार मंजिला इमारत पर ही जा टिकी । और बाढ में डूबे शहर दर शहर का जायजा लेने पहुंचे पीएम के जरीये गुजरात में चरमराये इन्फ्रस्ट्रक्चर पर चाहे अेनचाहे हर किसी की नजर गई । जहा 75 लोगो की जान जा चुकी है । 20 हजार से ज्यादा लोग बेघर हो चुके है ।
तो फिर शहरी करण की कौन सी लकीर देश में खिंची जा रही है । जिसमें वर्लड बैक से लेकर इक्नामीक सर्वे । और मैकंजी की रिपोर्ट से लेकर इंडियास्पेंड की रिपोर्ट यही बताती है कि देश के 700 शहरो की झपडपट्टियो में 20 करोड लोग रहते है । बिना इन्फ्रस्ट्क्चर के पक्के घरो में तीन करोड से ज्यादा लोग रहते है । और यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शहरी गरीब लोग भारत में ही है । तो फिर शहरो के माध्यम से कौन सी लकीर किन लोगो के लिये खिंची जाती है । ये देश की इक्नामिक सर्वे से भी समझा जा सकता है कि दो करोड शहरी लोगो को जो घर चाहिये उसमें 95.6 फिसदी कमजोर तबको की जरुरत है । यानी शहरो में जो रईस तबका रहता है उसकी सुविधाओ पर कोई आंच नहीं आती । लेकिन जो गांव छोड रोजी रोटी की तालाश में शहर आ जाते है उनके पास सिवाय छत के कुछ नहीं होता और ये छत कभी भी छिन सकती है । कभी भी जान जा सकती है ।
क्योकि शहरो पर लोगो का बोझ जिस रफ्तार से बढ रहा है उस अनुपात शहर का इन्फ्रस्ट्कर्चर और कमजोर ही होता जा रहा है । मैकजी की रिपोर्ट के मुताबिक , फिलहाल 37करोड 70 लाख के करीब लोग शहर में रहते है । हर बरस 1 करोड लोग गांव छोड शहरो में आ रहे है । ऐसे में सिर्फ 13 बरस बाद शहर उस विस्पोटक स्थिति में होगें जहा इन्फर्सट्क्तर खडा नहीं किया गया तो शहरो की मौत होने लगेगी । और शहरो को सुविधाओ के दायरे में लाने के लिये 2030 तक शहरो में 7 से 9 करोड स्कावय मिटर की जगह व्यवसायिक और रिहाउशी के लिये चाहिये होगी । ढाई सौ करोड स्कवायर मिटर सडक की जरुरत होगी । 7400 किलोमिटर की मेट्रो और सब-वे की जरुरत होगी । यानी शहरो में लोग सुविधाओ से रहे । शहरो में मौत ना हो । इसके लिये अगले 13 बरस में बीते 10 बरस में जिसृतना काम हुआ उससे 20 गुना ज्यदा उन्फ्रस्ट्कर्चर की जरुरत होगी । अन्यथा कही बाढ । तो कही इमारतो के ढहने तले मौत खबर भी नहीं बनेगी । ऐसे में मुबंई के घाटकोपर की बिल्डिग को ही अगर मौत की बिल्डिंग मान ले तो भी क्या होगा । क्योकि सवाल इतना भर नहीं कि इमारत कैसे गिरी।
सवाल ये है कि बिना किसी इन्फ्रस्ट्क्चर के इस इमारत में दर्जनो परिवार भी रह रहे ते । और ग्रउंड फ्लोर पर मैटर्निटी होम चल भी रहा था । बीएमसी की जांच में इसे खतरनाक माना भी नहीं गया । और मेटर्निटी होम में पिछले दिनो जब कन्स्ट्रक्शन का काम हुआ तो बाकि रहने वाले महसूस भी करते रहे कि इमाररत खतरनाक हो चली है । यानी छत चाहिये तो कही भी जिन्दगी काटी जा सकती है । क्योकि मुबंई शहर में जगह कम है । लेकिन कमाई के रास्ते बहुत है । लोगो की तादाद समुद्द को भी छोटा कर देती है । यानी न्यूनतम की ऐसी लडाई जहा छत की बुनियाद कोई नहीं देखता । और जब कच्ची बुनियाद या जर्जर इमारत ढहती है तो मौत की संख्या गिनने में वक्त अगली इमारत के गिरने के इंतजार की तरफ ले जाता है ।
यू मुब्ई में हजारो इमारते ऐसी है जो जर्जर है । लेकिन जर्जर जिन्दगी के सामने इमारत की जर्जरता कहा मायने रखती है । मसलन रईस इलाके कफपरेड से लेकर सबसे घनत्व वाले इलाके मोहम्मद अली रोड का अलावे नागपाडा, कमाठीपुरा, भायखला, शिवडी, मझगांव, लालबाग, परेल, दादर, घाटकोपर विक्रोली में करीब 10 हजार से ज्यादा इमारते जर्जर है । जो कभी भी गिर सकती है । बीएमसी के मुताबिक पूरी मुब्ई में 16 हजार जर्जर इमारते है । जिन्हे नोटिंस दिया गया है । लेकिन जिस मुबंई के हालात इतने जर्जर हो कि 5 लाख से ज्यादा लोग जिंदा होकर भी कब्रिस्तान में रहने को मजबूर हैं। उस मुबंई का असल सच ये भी है कि रहने को जगह नहीं है। यानी शहरीकरण की मार से पीड़ित मुंबई में काम-रोजगार और अपने ख्वाबों को जीने की कोशिश तले लोगों का आना जारी है-लेकिन रहने की व्यवस्था नहीं। आलम ये है कि 1971 में मुंबई की आबादी 80 लाख थी, जो अब 2 करोड़ 20 लाख से ज्यादा है ।
इस आबादी में करीब एक करोड आबादी झुग्गी झोपड़ों में रहने को मजबूर हैं । 60 लाख से ज्यादा लोग एक कमरे के घर से ही काम चला रहे हैं । यानी सच यही है कि जिन्दगी दांव पर लगाकर मुबंई में जी लें । या फिर जिन्दगी सुरक्षित रखकर दो जून की रोटी की रोटी का जुगाड भी मयसर ना हो । तो क्य़ा हर हालात मौत की तरफ ही ढकेल रहे है । और शहरी करण का मतलब सिर्फ न्यूनत का जुगाड करना भर है । क्योकि देश में सबसे ज्यादा स्लम महाराष्ट्र में है । देश में सबसे ज्यादा शहरी गरीब महाराष्ट्र में है । मुबंई की 80 पिसदी आबादी स्लम के ढेर पर रहती है । और मुबई के जर्जर इमारत की किमत भी करोड में है । और जबतक इमारत ढहती नहीं तबतक लाखो की कमाई भी करा ही देती है ।
तो इन्फ्रसट्क्चर से बेपरवाह शहरो में मौत होती कैसे है ये आईआईटी मुंबई की रिसर्च से समझा जा सकता है । 2015 में वायु प्रदूषण के चलते ही दिल्ली और मुंबई में 30 साल की उम्र से ज्यादा के 80656 लोग बेवजह काल के गाल में समा गए । इतना ही नहीं, एयर पाल्युशन से हुई बीमारियों से निपटने में इन दोनों शहरों को करीब 70000 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े । लेकिन काल के ग्रास में समेते शहरी गरीबो से उपजा एक सच ये भी है कि पिछले दशक में मुंबई का प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पाद 36,883 रुपये से बढ़कर अब 58,818 रुपये हो गया है । मंबई में प्रति व्यक्ति आय भी 1 लाख 25 हजार से ज्यादा है, जो देश के टॉप शहरों में है । यानी शहरी करण मौत का ऐसा दरवाजा है जो चकाचौंध तले दफ्न होने की जमीन को बनाता जाता है । और मौत के बाद दफ्न की जमीन पर कोई दूसरा उसाी बेताबी से दफ्न होने के लिये आ खडा होता है । और दफ्न होने की कतार शहर दर शहर लगातार लंबी होती जा रही है ।