दुनिया के तमाम अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर से कही ज्यादा रौशनी वाली 2900 किलोमीटर लंबी भारत पाकिसात सीमा पर डेढ़ लाख प्लड लाइट इसलिये चमकते हैं क्योंकि ये सीमा दुनिया की सबसे खतरनाक सीमा में तब्दील हो चुकी है । और दुनिया की नजर भारत पाकिसातन को लेकर इसीलिये कहीं तीखी है कि अगर युद्द छिड़ा तो युद्द परमाणु हथियारो के उपयोग तक ना चला जाये । इसीलिये माना यही जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र जनरल एसेंबली की बैठक कल जब शुरु होगी तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी पाकिसातन की जमीन से हो रहे आतंक के मुद्दे को उठायेंगे । और भारतीय जवानों के मारे जाने पर शोक व्यक्त जरुर करेंगें । और इसी के बाद ये सवाल बडा हो जायेगा कि संयुक्त राष्ट्र में जब भारत पाकिसातन का मुद्दा उठेगा तो क्या सेना पर हुये अबतक के सबसे बड़े हमले के बाद -भारत खामोश रहकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिसातन को आतंकी देश घोषित करवाने और आर्थिक पाबंदी लगवाने की दिशा में जायेगा । या फिर पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक युद्द की दिशा में कदम बढायेगा । अगर भारत अंतराष्ट्रीय मंच का सहारा लेता है तो पाकिसातन के लिये कशमीर पर बहस छेडना आसान हो जायेगा । जिसकी शुरुआत पाकिस्तानी राष्ट् पति नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेबली की बैठक से पहले न्यूयार्क पहुचकर कर शुरु भी कर दी है । और अगर भारत युद्द की दिशा में बढता है तो संयुक्त राष्ट्र ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मंचों पर इसी बात की ज्यादा सुगबुगाहट शुरु हो जायेगी कि युद्द अगर परमाणु युद्द में तब्दील हो गया तो क्या होगा । यानी भारत के साथ खडा अमेरिका भी युद्द नहीं चाहेगा । तो फिर भारत के सामने अब रास्ता क्या है । क्योकि पहली बार भारत के सामने अपने तीन सवाल है । पहला आंतरिक सुरक्षा डॉवाडोल है । दूसरा, युद्द के लिये 10 दिन से ज्यादा गोला बारुद भारत के पास नहीं है । और तीसरा पाकिसातन के पीछे चीन खडा है । तो क्या भारत के पीछे अमेरिका खडा होगा ।
जाहिर है हर हालातो पर साउथ ब्लाक से लेकर 7 आरसीआर तक बैठकों में जिक्र जरुर हो रहा है । तो क्या वाकई भारत के लिये सबसे मुश्किल इम्तिहान का वक्त है । क्योंकि आतंक की जमीन पाकिसातन की है । हमला आतंकी है । और जो भारत की सीमा के भीतर घुसकर छापामार तरीके से किया गया है । ऐसे में युद्द के तीन तरीके है । गुप्त आपरेशन , पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द । यानी पाकिस्तान करे खिलाफ कारावाई के यही तीन आधार है । जो युद्द की दिशा में भी भारत को ले जाता है । और युद्द पर भारत का रुख डिटरेन्स वाला है । लेकिन हमेशा डिटेरेन्स अपनायेंगे तो फिर सेना की जरुरत ही क्या है इसपर भी सवालिया निशान लग जायेगा । तो डिपलॉमैसी और अंतराष्ट्रीय मंच के सामानांतर पहला विकल्प गुप्त आरपेशन का है । और गुप्त आपरेशन का मतलब है बिना पारंपरिक युद्द के ट्रेड कमाडोज के जरीये पीओके में आंतकी कैप को ध्वास्त करना । फिर पाकिसातन में रह रहे कश्मीरी नुमाइन्दो को निपटाना । और तीसरे स्तर पर जो भारत विरोधी पाकिस्तान में आश्रय लिये हुये है उनके खिलाफ पाकिसातन में ही गुप्त तरीके से आपरेशन को अंजाम देना । यानी ये कारावाई हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन से लेकर दाउद तक के खिलाफ हो सकती है । और पीओके से लेकर पेशावर और मुरीदके से लेकर कराची तक आंतकी कैप ध्वस्त किये जा सकते हैं । जबकि पारंपरिक युद्द और परमाणु युद्द का मतलब है समूची दुनिया को इसमें इन्वाल्व करना । क्योकि भारत की हालात अमेरिका या इजरायल
वाली नहीं है जो अपने खिलाफ कारारावई को अंजाम देने के लिये हवाई स्ट्राइक करने से नहीं कतराते । भारत की मुश्किील ये हैा अगर वह सीमा पर ग्रउड सेना को जमा करता है और एयर स्ट्रईल की इजाजत दे देता है तो काउंटर में पाकिसातन के साथ हर तरह के युद्द के लिये समूची रणनीति पहले से तैयार रखनी होगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है युद्द के हालात परमाणु युद्द तक कही ना चले जाये । मुश्किल ये है कि पाकिसातन को कश्मीर का सवाल ही एकजूट किये हुये है । और कशमीर के भीतर पाकिस्तानी आंतक को पनाह देने से लेकर हर जरुरत मुहैया कराने में कही ना कही कशमीरी है । फिर सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन महीनो में हिजबुल में शामिल होने वाले नये कश्मीरियों की संख्या तेजी से बढी है । यानी कश्मीर में सेना से इतर राजनीति क-सामाजिक चेहरो को तलाशना होगा जो दिल्ली के साथ खडा हो ना कि पाकिस्तानी आतंक के साथ । लेकिन इस दौर में कश्मीर में हिंसा को लेकर या पाकिसातन की कश्मीर में दखल के बावजूद दिल्ली की खामोशी में आम लोगो का गुस्सा जायज है कि पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर सकते । क्योंकि पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने कोई पहली बार जवानों पर हमला नहीं किया। देश चाहता यही है कि भारत उठे और पाकिस्तान को सबक सिखा दे। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत पाकिस्तान को युद्ध में फौरन पटखनी दे सकता है?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते साल सीएजी की रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 15-20 दिन तक युद्ध लड़ने का गोला-बारुद है । स्वदेशी लड़ाकू जहाज तेजस भी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है । कुछ खास गोला-बारुद का रिजर्व तो महज 10 दिन के लिए ही है । तो याद कीजिए तो कारगिल युद्ध 67 दिन तक चला था। लेकिन-उस वक्त दोनों सेनाएं एक खास इलाके में लड़ रही थीं। यानी अगर पूरी तरह से युद्ध हुआ तो भारत के पास पर्याप्त गोला-बारुद नहीं है। जबकि आदर्श हालात में वॉर वेस्टेज रिजर्व्स कम से कम 40 दिन का होना चाहिए । और ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात को नहीं जानती। क्योंकि मार्च 2012 में जनरल वीके सिंह ने सरकार को खत लिखकर साफ साफ कहा था कि सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है । और तब बीजेपी ने मनमोहन सरकरा पर सवाल उठाया था कि सेना इनकी प्रथमिकता में है ही नहीं । फिर इसी सत्र में स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एंटी मैटेरियल गन, मल्टीपल ग्रैनेड लॉन्चर और 120 एमएण आर्टिलरी गोले तक की सेना में खासी कमी है । और गोला-बारुद क्यों नहीं है। इसकी कई वजह हैं। इनमें सेना को पर्याप्त फंड न मिलने के राजनीतिक कारण से लेकर आय त की समस्या, आयुध फैक्ट्रियों में पर्याप्त प्रोडक्शन न होना और नौकरशाही की समस्या तक कई वजह हैं। आलम ये कि 2008 से 2013 के लालफीताशाही के वजह से तय ऑर्डर का सिर्फ 20 फीसदी ही गोलाबारुद आयात हुआ। लेकिन मुद्दा सिर्फ इतना नहीं है कि लंबे युद्ध के लिए भारत के पास पर्याप्त गोलाबारुद नहीं है। दरअसल,पाकिस्तान ने आतंक को पोसने की अपनी रणऩीति में भारत को ऐसा उलझाया है कि भारतीय सेना युद्ध पर कम और दूसरे मामलों में ज्यादा उलझ गई। मसलन कारगिल युद्ध के बाद सेना के 12 हजार से ज्यादा जवान कारगिल में अटक गए । 26/11 यानी मुंबई हमले ने भारतीय नौसेना को समुद्री तटों की रखवाली में ज्यादा उलझा दिया। महंगे समुद्री पोत भी इसी काम में लगाए गए । एलओसी पर फैंसिंग ने सेना को डिफेंसिव मोड में रखा यानी भारतीय सेना की हदें तो तय हो गई अलबत्ता आतंकी और उनके हैंडलर्स आसानी से फैंसिंग को धता बताकर घुसपैठ करते रहे । और घुसपैठ विरोधी ऑपरेशन्स को अंजाम देने का जो काम पैरामिलिट्री फोर्स के पास होना चाहिए-भारतीय सेना को वो काम सौंप दिया गया। यानी युद्ध की बात से पहले युद्ध की पूरी तैयारी जरुरी है। क्योंकि एक बड़ा सच ये भी है कि हर आंतकी हमले के द पीएम से लेकर रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से लेकर समूची सरकार ही नहीं बल्कि हर राजनीतिक दल ही जिस तरह सियासत शुरु कर देता है उसमें लगता यही है कि देश में सैनिक , अद्सैनिक बल या एनआईए या किसी भी स्तर पर सुरक्षाकर्मी कोई मायने रखता ही नहीं बल्कि सुरक्षा का हर बंदोबस्त राजनेताओ के कंघे पर है ।
और असर इसी का है कि आंतरिक सुरक्षा का मसला गंभीर होते हुए भी इस पर कोई ठोस नीति नहीं है । हालत ये है कि आंतक पर राज्य और केन्द्र के बीच कोई तालमेल नहीं है । तमाम एंजेसियो के बीच खुफिया सूचनाओ के आदान प्रदान की स्थिति अच्छी नहीं है ।साइबर-इंटेलीजेंस का हाल खस्ता है । आधुनिक हथियार और आधुनिक उपकरणो की खासी कमी है । इसीलिये सवाल सिर्फ तीन दिन पहले उडी में हमले का नहीं बल्कि उससे पहले पठानकोट । उससे पहले मणिपुऱ में उससे पहले मुबई में और उससे पहले कालूचक में । और इन सबके बीच करीब दर्जन भर आंतकी हमले ऐसे हुये जिसमें पहले सो कोई अल्रट नहीं था । तो क्या आंतरिक सुऱक्षा पूरी तरह फेल है और अब वक्त आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा का काम भी सेना को दे दिया जाये । क्योकि इस बार भी हमले के शोरगुल में एलओसी से लगती उड़ी की सैन्य छावनी पर हमले के दौरान सुरक्षा चूक की बात अनदेखी रह गई, जिसकी वजह से हमला आसान हुआ।