बागडोगरा हवाई अड्डे से बायीं तरफ़ का रास्ता पूर्णिया, अररिया ले जाता है। हवाई अड्डे से कोई चालीस पैंतालीस मिनट की यात्रा के बाद आता है उत्तरी दिनाजपुर की एक नगरपालिका इस्लामपुर। चारों तरफ़ फैली हरियाली के बीच आप अचानक ‘राम पताका’ लहराते हुए देखते हैं। आप कहीं भी नज़र दौड़ाइये, किसी भी गली में जाइये, राम पताका से उसे भर दिया गया है।
राम नवमी के रोज़ गांव घरों में नई राम पताका लगाई जाती है। बहुत सी शोभा यात्राएं भी। इन सबके बारे में दिल्ली के पत्रकारों को कुछ अंदाज़ा नहीं है और न ही स्थानीय पत्रकारों को समझ कि सामने हो रहे धार्मिक- राजनीति क बदलाव को कैसे दर्ज करें। दिल्ली के पत्रकार इन जुलूसों को देखकर नाहक की आतंकित होते रहते हैं। यह लोक का उत्सव है। समस्या तब होती जब इस लोक-उत्सव का कोई राजनीतिक दल अपने मकसद के लिए इस्तमाल करता है। इसके सहारे जनता में नकली गौरव और काल्पनिक भय रोप देता है। ईमानदारी से देखें तो इसके विकल्प में दूसरे राजनीतिक दल भी यही करते हैं। आगे आप सबकी इस पर अपनी अपनी राय है, लिखने से कोई फायदा नहीं।
इस्लामपुर को आप इन तस्वीरों के ज़रिये देखिये। कहीं बांस में खोमची लगा कर राम पताका लगा दी गई है तो कहीं सूखे पेड़ पर इस तरह से लगा दिया गया है जैसे हरे की जगह भगवे पत्ते निकल आए हों। विश्व हिन्दू परिषद ने बांग्ला में जय श्री राम लिखकर पोस्टर लगा दिया है। बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय विश्व हिन्दू परिषद ने जिन तस्वीरों का इस्तमाल किया था, उसकी फिर से वापसी हुई है। कांशीराम के कारण यूपी की राजनीति में जब मंदिर मुद्दा अप्रांसगिक हुआ तो यह पोस्टर ग़ायब हो गया। बंगाल में यह पोस्टर लौट आया है। बांग्ला में जय श्री राम लिखा है।
अगले दिन लौटते वक्त हमने इस्लामपुर को ग़ौर से देखा। सरसरी तौर पर कुछ लोगों से बात भी की। मगर इस आयोजन से जुड़े किसी भी शख्स से हमारी कोई बात नहीं हुई है। पूर्णिया जाते वक्त हमारे मन में यही छवि थी कि लोगों ने जमकर रामनवमी मनाई है मगर लौट कर पता चला कि इतने बड़े पैमाने पर राम-पताका, जिसे भगवा झंडा कहते हैं, बग़ैर सैंकड़ों लोगों की भागीदारी और कई दिनों की तैयारी के लग ही नहीं सकता है। आप कल्पना कीजिए इन्हें लगाते वक्त कार्यकर्ताओं में कितना उत्साह रहा होगा और उनके भीतर किस तरह के राजनीतिक साहस का संचार हुआ होगा। वो उस बंगाल को भगवा झंडे से भर रहे होंगे जहां कमल वाला बीजेपी का झंडा लहरा नहीं सका। कमल वाला झंडा लहरा सके इसीलिए राम पताका का सहारा लिया गया है।
पूर्णिया से लौटते वक्त हमें कुछ लड़के मिले जो उन जगहों पर भाजपा का झंडा लगा रहे थे, जहां राम-पताका लगाई गई थी। उन्होंने बताया कि भाजपा का झंडा लगाने से दूसरे दलों के लोग हटा देते हैं। इसलिए हमने ये झंडा लगा दिया। उन्होंने न तो उसे राम पताका कहा न ही भगवा झंडा। ये झंडा लगाने से कोई हटाता नहीं है। हिन्दू का है न इसलिए। पहले जब राम-पताका लगाई गई तो वहां लाखों झंडे में मुश्किल से बीजेपी का एक दो झंडा नज़र आया। अब जाकर वहां भाजपा के झंडे लग रहे थे।
इस्लामपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर है। असंख्य पताकाओं के बीच सैंकड़ों की संख्या में बजरंग बली के झंडे लहरा रहे थे। झंडे में इस्तमाल कपड़े और काम देखकर ही लगा कि महंगे होंगे। हिन्दी और बांग्ला में जय श्री राम लिखा हुआ था। जय सिया राम के लिए आप जितना आंदोलन कर लें, ख़ुद सीता जी भी आ जाएं तो अब जय श्री राम ही बोला जाएगा। बीजेपी का झंडा लगा रहे लड़कों ने कहा कि बजरंग बली का तीन तरह का झंडा है। एक छोटा सा, एक मझौला सा और एक काफी बड़ा। इनकी कीमत 50, 70 और 200 रुपये है। बजरंग बली का झंडा भी बड़े पैमाने पर लगाया है। अब हमें समझ आया कि असंख्य पताकाओं को लहराने में व्यापक संगठन शक्ति के अलावा आर्थिक निवेश भी हुआ होगा। गली गली, दुकान, पेड़, बस स्टैंड और छतों पर इतने झंडे लगाने में काफी ख़र्च भी हुआ होगा। उनसे पूछा कि आप लोग पैसा दे रहे हैं,तो जवाब मिला कि चाय बगान वाला दे देता है,और लोग भी दे देता है।
तो आप इस्लामपुर जायें तो सिर्फ आतंक और आशंका न देखें, संगठन और आर्थिक शक्ति का पहलू भी देखें। दूसरी पार्टी यह काम करती तो हज़ार पांच झंडा कोई एक जगह लगाकर बाप बाप कर रही होती। उनके कार्यकर्ताओं को प्रमोशन हो गया था। इस्लामपुर में जितने पताके लगे हैं वो बिना लाखों रुपये के और सैंकड़ों लोगों के समपर्ण के संभव नहीं था। क्या ये सब अब आपको किसी दूसरे दल में नज़र आता है? दो दिन में बिहार के तीन ज़िलो के ठीक ठाक जगह से गुज़रा।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक का पोस्टर नज़र नहीं आया. अगर आप पोस्टर को पैमाना माने तो यकीन कर लेंगे कि बिहार में न तो आर जे डी है न ही जे डी यू है। इनके विधायकों ने चुनाव जीतने के बाद अपने पोस्टर अंडमान निकोबार में लगा दिये हैं। कहने का मतलब है कि इन दलों ने ज़मीन पर अपना राजनैतिक कार्यक्रम और संगठन स्थिगत कर दिया है। बिहार जाकर लगा कि मैं एक राजनीतिविहीन प्रदेश में आ गया हूं। यहां के पोस्टरों को लकवा मार गया है। ग़ैर भाजपा दलों में यह विश्राम काल चल रहा है। भाजपा का यह परिश्रम काल है।
मैंने तीन बंगाल देखे हैं। सीपीएम के समय चारों तरफ लाल झंडा दिखता था। झंडों का ऐसा प्रयोग हमने किसी और राज्य में नहीं देखा। चप्पे चप्पे पर लाल झंडा होता था। लगता था कि बंगाल में घास भी लाल रंग की होती है। बाद में तृणमूल आई तो घास ही उसके झंडे का निशान हो गया। उसी तरह गली गली में तृणमूल के झंडे दिखने लगे। भाजपा का कमल वाला झंडा अपना रूतबा जमा नहीं सका तो अब उसने भगवा झंडे का सहारा लिया है। विरोधी चाहें जितना कह लें कि भाजपा राम का इस्तमाल करती है, हकीकत यह है कि राम हमेशा भाजपा के काम आ जाते हैं। राम-पताका लगाकर भाजपा ने बंगाल की राजनीतिक भाषा में जवाब दिया है कि उसका नहीं तो उसके अन्य संगठनों की भावना से जुड़े झंडे गली गली में लहरा सकते हैं। झंडों के हिसाब से यह मैं तीसरा बंगाल देख रहा हूं।
बंगाल से सटे बिहार के इलाके में भी रामनवमी धूमधाम से मनाई गई है मगर वहां इस तरह राम-पताओं का वर्चस्व नज़र नहीं आया। वैसे भी रामनवमी के बाद नई राम-पताकाएं लगती हैं। उन्हें देखकर आतंकित मत होइये, आनंदित होइये लेकिन जब कोई इस्लामपुर के पैमाने पर राम-पताका लगा दे तो भी आतंकित मत होइये, आशंकित होइये। इस आशंका पर विचार कीजिये कि राजनीति धर्म का इस्तमाल कब तक करेगी। तमाम राज्यों में विजय पताका लहराने के बाद भी भाजपा या संघ परिवार को राम-पताका में ही क्यों इतना यकीन है। कहीं ऐसा न हो जाए कि एक दिन भाजपा अपने कमल निशान वाले झंडे को ही राम-पताका से विस्थापित कर दे। गुलाबी कमल को सफेद तो कर ही दिया गया था 2014 में।
17 मार्च के हफिंगटन पोस्ट में स्वाति सेनगुप्ता की एक रिपोर्ट भी पढ़ी। इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया हैकि रामनवमी के लिए आर एस एस किस तरह की तैयारी कर रहा है। इसमें बंगाल और अंडमान-निकोबार के आर एस एस के संगठन सचिव विद्युत मुखर्जी का बयान है। वे बता रहे हैं कि बंगाल में हिन्दुओं पर हमले हो रहे हैं। दुर्गा पूजा पर हमले हो रहे हैं इसलिए हिन्दुओं को ज़्यादा से ज़्यादा अपनी पहचान पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। स्वाति ने लिखा है कि राम नवमी को इस तरह का रूप कभी नहीं दिया गया।
धर्म तो हमारे चारों तरफ है। लेकिन जब इसे कोई राजनीतिक दल अपनी संगठन शक्ति के ज़रिये उभारता है तब सोचना चाहिए। ख़ासकर धार्मिक लोगों को सोचना चाहिए कि जिन चीज़ों को उन्होंने बग़ैर किसी सत्ता या संगठन के बचाकर रखा है क्या अब उन्हें राजनीतिक दल के हवाले कर देना चाहिए। कहीं ऐसा दिन न देखना पड़े कि बग़ैर भाजपा के आप न रामनवमी मना सके ना दुर्गा पूजा। राजनीतिक दल को अपना विस्तार मुद्दों के ज़रिये करना चाहिए। राजनीतिक कार्यक्रमों के ज़रिये करना चाहिए। अगर हर सवाल के जवाब में धर्म आएगा तब फिर वो राजनीति राजनीति नहीं रह जाएगी।
समस्या बस इतनी बात से है, राम-पताका से नहीं। आखिर क्यों भाजपा बंगाल में अपना विस्तार राजनीतिक कार्यक्रमों और उनकी कामयाबी के दम पर नहीं करना चाहती है, धर्म या लोक उत्सवों का सहारा क्यों लेती है। क्या उसे अपनी राजनीति पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, वन इंडिया, न्यू इंडिया जब कामयाब हैं, लोग ख़ुश हैं तो राम-पताका के ज़रिये और वो भी विश्व हिन्दू परिषद के ज़रिये अपना विस्तार क्यों करती है।
ज़्यादा लोड मत लीजिए। अनूप जलोटा का गाया यह भजन सुनिये…तेरा राम ही करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को डरे। काहे को डरे रे। इस बार एक नया आइडिया आया। अगर आने वाले समय में करोड़ों राम-पताकाओं की ज़रूरत है तो इसकी आपूर्ति का कारोबार शुरू कर दीजिए। धर्म और राजनीति को कारोबार के एंगल से देखिये। सुखी रहेंगे। अगर रामनवमी के दिन हथियारों का प्रदर्शन राजनीतिक कारणों से ही बड़ा होता जा रहा है तो हिन्दू हथियार स्टोर खोल लीजिए। वैदिक रीति से तलवार और भाले बनाइये। इससे मुसलमानों को भी रोज़गार मिलेगा और किसी हिन्दु कारोबारी का भी भला हो जाएगा। बाकी टीवी डिबेट चलने दीजिए। राम जी सिर्फ उन्हीं का बेड़ा पार नहीं करेंगे, आपका भी बेड़ा पार कर देंगे, पहले कुछ कीजिए तो।