उससे कहना कि कमाई के न चक्कर में रहे
दौर अच्छा नहीं, बेहतर है कि वो घर में रहे I
जब तराशे गए तब उनकी हक़ीक़त उभरी,
वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे I
दूरियाँ ऐसी कि दुनिया ने न देखीं न सुनीं,
वो भी उससे जो मिरे घर के बराबर में रहे I
वो ग़ज़ल है तो उसे छूने की ह़ाजत भी नहीं,
इतना काफ़ी है मिरे शेर के पैकर में रहे I
तेरे लिक्खे हुए ख़त भेज रहा हूँ तुझको,
यूँ ही बेकार में क्यों दर्द तिरे सर में रहे I
ज़िन्दगी इतना अगर दे तो ये काफ़ी है ’अना’
सर से चादर न हटे, पाँव भी चादर में रहे I
-'अना' क़ासमी