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क्यों...?

4 नवम्बर 2015

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“मैं लचक जाता हूँ,


यही सुबूत है मेरे


ज़िन्दा होने का I


तुम अकड़ जाते हो,


क्यों...?


ये तुम्हीं जानो I”

उषा यादव

उषा यादव

“मैं लचक जाता हूँ, यही सुबूत है मेरे ज़िन्दा होने का"............ बहुत गहरी बात ! बहुत खूब !

5 नवम्बर 2015

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पगली

10 सितम्बर 2015
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वो नज़्म... कल रात रखी थी तकिये के नीचे, सुबह उठा... तो ग़ायब थी. कोना-कोना खंगाल आया पूरे घर का । बक्से, तिज़ोरी, अलमारियां, मचान... कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा । रात आंधी चली थी, पानी भी बरसा था, हवा के झोंको के संग उड़कर बाहर न चली गई हो । अख़बार वाले या दूधवाले के हाथ न लग गयी हो । बाहर निकल कर देखा,  सड़क प

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वो शय

11 सितम्बर 2015
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दरमियाँहमारे-तुम्हारे...कई रोज़ रही थी, वो दुश्मन बनकर। दाँत भींचकर पटका था हम दोनों ने लफ्जों को, तकिये जैसे गिरा दिये थे सिरहाने से सारे रिश्ते...। उसकी वजह से, बंद रहा था हुक्का-पानी हम दोनों का कई रोज़ तक, नज़रों की खिड़की पर तान लिए थे

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कई दफ़ा

15 सितम्बर 2015
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कई दफ़ाकाँधे पर हाथरखा करता थावो चुपके से आकर।हर तस्वीरमुकम्मल कर जाता था।उसने ही दिया थाएक सादा कैनवस,अटका हूँ बरसों से।कितने ही बरस बीत गए,अबकी आया ही नहीं।कैनवस, कलर्स, ब्रश,ईज़ल, पालेट सब उसके,ये तस्वीर मुकम्मल कर देतातो किसकी थी?खुशियाँ, मुस्कानेंवाह-वाह सब किसके थे?नहीं चाहिए नई पेंटिंगतो ये रंग

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हमने-तुमने

15 सितम्बर 2015
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हमने-तुमनेमिटटी की गोल गुलाबी गुल्लक में कुछ ख्वाब छिपा कर रखे थे । कुछ दिन रीते, कुछ मौसम बीते... कल शामतोड़ दी गुल्लक वो एक तनहाउदास लम्हे ने । सब के सब वो ख्वाब अब तलक, फूल बन गए । कभी आकर ले जानाउसमें

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हंसना सिखला देना...

23 सितम्बर 2015
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याद है तुमको... सूनी सड़क पर, पहली-पहली बार बस थोड़ा-थोड़ा सीखा था मैंने, साईकिल चलाना । तुम ज़िद करके कैरियर पर बैठीं थीं ।डांवांडोल ऐसे हुए कि जा टकराए गोलगप्पे के ठेले से । सबके-सब चकनाचूर हो गए थे, खट्टा पानी बिखर गया था, चोटें हम दोनों को आई थीं, लेकिन हम खूब हँसे थे । सारे टूटे गोलगप्पे सज-धज कर र

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किरण

23 सितम्बर 2015
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प्याज के छिलकों की तरह, उधेड़ती जाती है ज़िंदगी... दिन एक-एक करके. एक उम्मीद है जो दम भरती है कहीं बरसों से । धूप की टांग पकड़ कर खींच ली थी एक रोज़, तो छाँव के पाँव कांपने लगे थे; बारिश के दोनों हाथ बाँध दिए थे नदी के दो छोरों पर तो बादलों की घिघ्घी बंध गयी थी । अब गालों पर अश्क़ों के लरज़ने की खरोंचें

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कबाड़ी

23 सितम्बर 2015
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कबाड़ी... काफी रईस हो गया है, जिसे कुछ बरस पहले मेरे घर का तमाम कबाड़ किसी ने बेचा था. ये कहकर कि ले लो; ये काफी क़ीमती सामान है. आज भी बड़ी हसरत से तकता है मेरे घर को । सुना है... कॉपी-किताबों के पैसे ठीक दिए थे उसने; फटे पुराने कागज़ों को मुफ्त ले गया था. उन्हीं में मेरी चंद नज़्में, चंद ग़ज़लें थीं. किता

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आदमी

29 सितम्बर 2015
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"बहुत आसान है फ़लक पर खुदा बनके रहना,दुशवार होता है जीना, ज़मीं' के आदमी का ।"

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यूँ ही...

29 सितम्बर 2015
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"कोई यूँ ही मिल जाए तो बहुत खुश मत होना,ये यूँ ही चले भी जाते हैं, इतना ख़याल रखना ।"

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क्यों...?

4 नवम्बर 2015
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तितलियाँ

5 नवम्बर 2015
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कभीबचपन मेंतितलियाँ पकड़ते थे,फिर उँगलियों में छपी  उनकी सुनहरी-रुपहलीकाया देखते रहते थे बहुत देर तक Iवो तितलियाँ अबतब्दील हो गई हैंचमकते खनकतेसिक्कों में ।इनके पीछे भी  भागते हैं हम वैसे हीइन्हें छूकर-गिनकरहाथों को धो लेते हैं I

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कभी अश्कों से सींचा है

14 जनवरी 2016
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कभी अश्कों से सींचा है कभी ख़्वाबों में ढाला है,तुम्हारे दर्द को हमने  बड़ी शिद्दत से पाला है I मेरी आँखों के शीशे में कभी तो खुद को आके देख,झुकी पलकों में  तेरी ही  उदासी का  हवाला है I तेरी यादों से  है आबाद  ये वीराना  ख़्वाबों का,यही दुनिया है  अब मेरी  यही मेरा शिवाला है I तेरे काँधे पे  सर रखके, 

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वफ़ा की राह का आँसू

15 जनवरी 2016
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वफ़ा की राह का आंसू कभी शबनम नहीं होता,ये वो बरसात है जिसका कोई मौसम नहीं होता I बदलते दौर में बदली हैं रिश्तों की भी सीमाएं,क़दम दो-चार ही चलते हैं इनमें दम नहीं होता I ख़ुशी देकर तुझे जो हँस के तेरा तंज सह जाये,न समझो उस हमदम को कोई ग़म नहीं होता I ये सच है वक़्त की परतें बुरी यादें मिटाती हैं,मगर लफ़्ज़

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असफ़फ़

26 जनवरी 2016
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ढूंढने मंज़िल चले

4 फरवरी 2016
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ढूंढने  मंज़िल  चले  तो  उम्र  भर  चलते  रहे,हम  तेरे  साये  की  ख़ातिर  धूप में जलते रहे .दूर  तक  उसने  हमें  आवाज़ दी पीछा किया ज़िन्दगी  को  हम  मगर हर मोड़ पे छलते रहे .वो  परीशाँ  होके  दामन झटक कर चल दिया,हम  खड़े  राहों  में  अपने हाथ ही मलते रहे .आँसुओं से दर्द के सहरा को  हम सींचा  किये,ग़म हमारे

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किसी का दर्द 'गर...

4 फरवरी 2016
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किसी   का   दर्द   अगर   बांटने   चले  होते,तो   लोग   बढ़के   यक़ीनन  गले  लगे  होते।किसी  बहाने  अगर  उठके  हम  चले  आते,तो  होम   करते  हुए  हाथ  क्यों  जले  होते।  किसी के आने की खुशबू सबा न लाती अगर,नज़र  में  फूल  ख़ुशी  के  कहाँ  खिले  होते।  ग़मों  के बोझ से धड़कन भी रुक गयी  होती,मुसीबतों   में  

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तू समंदर है...

5 फरवरी 2016
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फिर   अँधेरा   वहां   कहाँ   होगा जिस गली  में  तेरा  मकाँ   होगा।  मुद्दतों     रास्ते     वो      महकेंगे,तेरा   जाना   जहाँ   जहाँ   होगा।  तू   समंदर  है   और   हम   क़तरे हमसे   तेरा   कहाँ   बयाँ   होगा। हम    तुझे    आफ़ताब    समझेंगे,जब   उजाला  यहाँ  अयाँ   होगा। तू अगर 'शांत' यूँ ही मिलता  र

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हटाओ धूल ये

5 फरवरी 2016
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हटाओ  धूल  ये  रिश्ते  संभाल  कर  रक्खो,पुराना  दूध  है  फिर  से  उबाल कर रक्खो।वक़्त  की  सीढ़ियों  पे  उम्र  तेज़  चलती है,जवां रहोगे  कोई  शौक़  पाल  कर  रक्खो।ये दोस्ती औ' दुश्मनी का मसअला है जनाब,कसौटियों  पे  कसो  देखभाल  कर  रक्खो।दबाओ  होंठ  में,  उंगली  पे  बाँध लो  चाहे ,मैं आँचल हूँ,  मुझे सी

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वो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियाँ न हों

5 फरवरी 2016
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वो  शाख़  है न फूल,  अगर  तितलियाँ न होंवो  घर  भी  कोई घर है  जहाँ बच्चियाँ न होंपलकों  से  आँसुओं  की महक आनी चाहिएख़ाली  है  आसमान  अगर   बदलियाँ  न  होंदुश्मन  को  भी  ख़ुदा  कभी  ऐसा मकाँ न देताज़ा हवा की जिसमें कहीं  खिड़कियाँ न होंमै  पूछता  हूँ   मेरी  गली  में  वो  आए  क्योंजिस  डाकिए  के 

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नयी-नयी पोशाक बदलकर

9 फरवरी 2016
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नयी-नयी  पोशाक  बदलकर,  मौसम   आते-जाते   हैं,फूल  कहॉ  जाते  हैं  जब  भी जाते हैं,   लौट आते हैं।शायद  कुछ  दिन  और  लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,जो  अक्सर  याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।चलती-फिरती  धूप-छाँव  से,  चेहरा  बाद  में बनता है,पहले-पहले   सभी   ख़यालों   से   तस्वीर  बनाते   हैं।आ

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सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

9 फरवरी 2016
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सफ़र  में  धूप  तो  होगी  जो  चल  सको तो चलो,सभी  हैं  भीड़  में  तुम भी निकल सको तो चलो। इधर  उधर  कई  मंज़िल  हैं  चल  सको  तो  चलो,बने   बनाये   हैं   साँचे  जो  ढल  सको  तो चलो। किसी    के    वास्ते    राहें    कहाँ    बदलती   हैं,तुम  अपने आप को ख़ुद  ही बदल सको तो चलो। यहाँ    किसी    को    को

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क्यूँ तबीयत कहीं ठहरती नहीं

10 फरवरी 2016
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क्यूँ    तबीयत   कहीं   ठहरती   नहींदोस्ती   तो   उदास    करती    नहीं Iहम    हमेशा    के    सैर-चश्म   सहीतुझको  देखें  तो  आँख  भरती नहीं Iशब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरहकट  तो  जाती  है पर  गुज़रती नहीं Iये  मोहब्बत  है,  सुन,  ज़माने,  सुन!इतनी   आसानियों  से   मरती  नहीं Iजिस  तरह  तुम  गुजारत

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कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती

10 मार्च 2016
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कैसे  कह  दूँ  कि  मुलाकात  नहीं  होती  हैरोज़  मिलते  हैं  मगर  बात  नहीं  होती  है Iआप  लिल्लाह  न  देखा  करें  आईना  कभीदिल का आ जाना  बड़ी बात  नहीं होती है Iछुप के  रोता हूँ  तेरी याद में  दुनिया  भर  सेकब  मेरी  आँख  से  बरसात  नहीं होती है Iहाल-ए-दिल  पूछने वाले तेरी दुनिया में कभीदिन  तो  हो

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माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है

16 मार्च 2016
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माने  जो  कोई  बात, तो  इक  बात बहुत है,सदियों के लिए  पल  की मुलाक़ात बहुत है।दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा  हर इक बात,ऐसे  में  न  जाओ, कि  अभी  रात बहुत है।महिने में किसी रोज़, कहीं  चाय के दो कप,इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत  है।रसमन  ही  सही, तुमने  चलो ख़ैरियत पूछी,इस  दौर  में  अब  इतनी 

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उससे कहना...

16 मार्च 2016
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उससे  कहना  कि  कमाई  के न चक्कर में रहेदौर  अच्छा  नहीं,  बेहतर है कि वो घर में रहे Iजब  तराशे  गए   तब  उनकी  हक़ीक़त  उभरी,वरना कुछ रूप तो सदियों किसी पत्थर में रहे Iदूरियाँ  ऐसी  कि  दुनिया  ने  न  देखीं  न  सुनीं,वो  भी  उससे  जो  मिरे  घर  के बराबर में रहे Iवो  ग़ज़ल  है  तो  उसे छूने की ह़ाज

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दायरा

26 मार्च 2016
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रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगेफिर वहीं लौट के आ जाता हूँबारहा तोड़ चुका हूँ जिन कोइन्हीं दीवारों से टकराता हूँरोज़ बसते हैं कई शहर नयेरोज़ धरती में समा जाते हैंज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरहवो भी अब रोज़ ही आ जाते हैंजिस्म से रूह तलक रेत ही रेतन कहीं धूप न साया न सराबकितने अरमाँ है किस सहरा मेंकौन रखता है

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कहीं जाना नहीं है...

26 मार्च 2016
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कहीं जाना नहीं हैबस यूँ ही सड़कों पे घूमेंगेकहीं पर तोड़ेंगे सिगनलकिसी की राह रोकेंगेकोई चिल्ला के गाली देगाकोई 'होर्न' बजायेगा!ज़रा एहसास तो होगा कि ज़िन्दा हैंहमारी कोई हस्ती है !!-गुलज़ार

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रहने दो न दोहराओ वही बात पुरानी

1 अप्रैल 2016
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रहने   दो   न   दोहराओ   वही  बात  पुरानी, अब  लगती  है मुझे झूठी परियों  की कहानी हर  पेट  के  जंगल  में   यहाँ  भूख   जले  हैहोठों  पे  जहाँ  प्यास  है  आँखों  में  है पानी हफ़्तों  जहाँ  चूल्हा  नहीं जलता ये वो घर है आती  नहीं  बिस्तर  पे   जहाँ   नींद  सुहानी ज़िंदा   हैं  वही  मौत  स

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रंग भरने से तो तस्वीर नहीं बोलेगी

1 अप्रैल 2016
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रंग   भरने   से   तो   तस्वीर   नहीं   बोलेगी,मौत  ज़िद्दी  है  बड़ी   होठ   नहीं   खोलेगी। जिसमें   पासंग  न  हो   ऐसा  तराज़ू  लाओ,ज़िन्दगी  झूठ  को  अब  और  नहीं  तौलेगी। मेरी  आवाज़  में  अमृत  तो  नहीं है लेकिन,मेरी  आवाज़  कभी   ज़हर   नहीं   घोलेगी। शोर सन्नाटे का दब भी गया सरगम में अगर,तेरी   आवाज़

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बदन पर नई फ़स्ल आने लगी

5 अप्रैल 2016
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बदन   पर   नई  फ़स्ल  आने   लगी,हवा  दिल  में ख़्वाहिश जगाने  लगीकोई  ख़ुदकुशी  की तरफ़ चल दियाउदासी  की  मेहनत   ठिकाने  लगीजो  चुपचाप  रहती  थी   दीवार  मेंवो    तस्वीर    बातें    बनाने   लगीख़यालों   के   तरीक   खंडरात   मेंख़मोशी   ग़ज़ल    गुनगुनाने   लगीज़रा    देर    बैठे    थे    तन्हाई   म

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उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं

5 अप्रैल 2016
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उन   घरों   में   जहाँ  मिट्टी  के  घड़े  रहते  हैंक़द  में  छोटे  हों  मगर  लोग  बड़े  रहते   हैं। जाओ जाकर किसी दरवेश की अज़मत  देखोताज   पहने   हुए   पैरों   में   पड़े   रहते   हैं। जो  भी  दौलत थी वो बच्चों के हवाले  कर दीजब  तलक  मैं  नहीं  बैठूँ  ये  खड़े   रहते  हैं। मैंने  फल  देख  के  इन्स

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चेहरे पढ़ता आँखें लिखता रहता हूँ

12 अप्रैल 2016
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चेहरे   पढ़ता   आँखें   लिखता    रहता   हूँमैं   भी   कैसी   बातें   लिखता   रहता   हूँसारे    जिस्म    दरख्तों    जैसे    लगते   हैंऔर   बाहों   को  शाखें  लिखता  रहता  हूँतुझको   ख़त   लिखने   के  तेवर  भूल  गएआड़ी   तिरछी   सतरें   लिखता   रहता   हूँतेरे   हिज्र  में  और  मुझे  क्या  करना  है ?ते

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अंदर का शोर अच्छा है

14 अप्रैल 2016
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अंदर का  शोर  अच्छा  है  थोड़ा  दबा रहे, बेहतर यही है आदमी  कुछ  बोलता  रहे I मिलता रहे हंसी ख़ुशी औरों से किस तरह, वो आदमी जो खुद से भी रूठा हुआ रहे Iबिछड़ो किसी से उम्र भर ऐसे कि उम्र भर तुम उसको ढूंढो, और वो तुम्हें ढूंढता रहे I-सलमान अख्तर

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आम

28 अप्रैल 2016
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मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों से, मैं जानता हूँजब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिएपरली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसकेजाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगाधाड़

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पूरा दिन

28 अप्रैल 2016
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मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता हैमगर हर रोज़ कोई छीन लेता है,झपट लेता है, अंटी सेकभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने कीआहट भी नहीं होती,खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैंगिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं"तेरी

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ये ज़िन्दगी

29 अप्रैल 2016
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ये ज़िन्दगी आज जो तुम्हारे बदन की छोटी-बड़ी नसों में मचल रही है तुम्हारे पैरों से चल रही है तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही हैये ज़िन्दगी जाने कितनी सदियों से यूँ ही शक्लें बदल रही हैबदलती शक्लों बदलते जिस्मों में चलता-फिरता ये इक श

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साँवली सी एक लड़की

29 अप्रैल 2016
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वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है सुना है वो किसी लड़के से प्यार करती है बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ बस उसी वक़्त जब वो आती है कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है मुझे एक अजनबी की ज़रूरत

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