याद है तुमको...
सूनी सड़क पर,
पहली-पहली बार
बस थोड़ा-थोड़ा
सीखा था मैंने,
साईकिल चलाना ।
तुम ज़िद करके
कैरियर पर बैठीं थीं ।
डांवांडोल ऐसे हुए
कि जा टकराए
गोलगप्पे के ठेले से ।
सबके-सब
चकनाचूर हो गए थे,
खट्टा पानी बिखर गया था,
चोटें हम दोनों को आई थीं,
लेकिन हम खूब हँसे थे ।
सारे टूटे गोलगप्पे
सज-धज कर
रस्ते में कई बार मिले,
मुंह में भरे खटमिट्ठा पानी,
मुझपर हँसते रहते हैं ।
टूटता अब भी है
कितना कुछ,
चोटें अब भी लगती हैं,
पर वो उस दिन जैसी,
अब हंसी नहीं आती ।
अबकी मिलना...
कोई तिनका तोड़कर,
खुलकर हंसना
सिखला देना ।
आकाशवाणी के कानपुर केंद्र पर वर्ष १९९३ से उद्घोषक के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहा हूँ. रेडियो के दैनिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अब तक कई रेडियो नाटक एवं कार्यक्रम श्रृंखला लिखने का अवसर प्राप्त हो चुका है. D