प्याज के
छिलकों की तरह,
उधेड़ती जाती है
ज़िंदगी...
दिन एक-एक करके.
एक उम्मीद है
जो दम भरती है
कहीं बरसों से ।
धूप की टांग पकड़ कर
खींच ली थी एक रोज़,
तो छाँव के पाँव
कांपने लगे थे;
बारिश के दोनों हाथ
बाँध दिए थे
नदी के दो छोरों पर
तो बादलों की
घिघ्घी बंध गयी थी ।
अब गालों पर
अश्क़ों के लरज़ने की
खरोंचें सही नहीं जातीं.
खामोशियाँ...
कान के परदों को
चीरती हैं जैसे;
किसी पत्ते पर लुढ़कती है
ओस की कोई बूँद
तो दिल काँप जाता है
कि कहीं ज़मीन पर
न गिर पड़े,
कोई लम्हा टूट कर,
सब वक़्त के रंग हैं, इंद्रधनुषी...।
धूप-छाँव और बारिश के
इन्हीं उधड़े छिलकों में,
पड़ी होगी कहीं,
उम्मीद की वो किरण
जो दम भरे जाती है,
ना जाने कब से...!
आकाशवाणी के कानपुर केंद्र पर वर्ष १९९३ से उद्घोषक के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहा हूँ. रेडियो के दैनिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अब तक कई रेडियो नाटक एवं कार्यक्रम श्रृंखला लिखने का अवसर प्राप्त हो चुका है. D
सब वक़्त के रंग हैं, इंद्रधनुषी...धूप-छाँव और बारिश के... इन्हीं उधड़े छिलकों में, पड़ी होगी कहीं, उम्मीद की वो किरण जो दम भरे जाती है, ना जाने कब से...! शानदार नज़्म !
"धूप की टांग पकड़ कर खींच ली थी एक रोज़, तो छाँव के पाँवकांपने लगे थे; बारिश के दोनों हाथ बाँध दिए थे नदी के दो छोरों पर तो बादलों की घिघ्घी बंध गयी थी । अब गालों पर अश्क़ों के लरज़ने की खरोंचें सही नहीं जातीं"...बेहतरीन नज़्म !