एकाकी मन
और भीड़ सघन
चाह कि ,
मन की व्यथा बताएं
पर देखा तो कोई नजर न आए
वात्सल्य से कुंठित
हृदय जो था
अब निर्मम जग से संधित है
विलगन की है चाह अधम
पर कर्तव्यों से वो कुंठित है
दूर दराज के शहर निकलते
जब पेट की अग्नि जलाती है
इस निर्मोही से शहर में यारा
अब गांव की याद सताती है
बालक बनकर जन्मे हैं हम
अब घर में कहाँ ठिकाना है
दो जून की रोटी नहीं है काफी
गांव में पक्का मकान भी बनवाना है
एक स्त्री की व्यथा तो फिर भी
बन कर के आंसू बह जाए
पर पुरुष बेचारा , कर्तव्यों का मारा
कैसे अपने घाव दिखाए !!