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वेदना यह प्राण छंदस की सजल अक्षय कला है

24 फरवरी 2022

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वेदना यह प्राण छंदस की सजल अक्षय कला है ।

सीपियां अनगिन रहीं
कल्पांत तक मुख मौन खोले
स्वातियों ने तप किया
शत चातकों के कंठ बोले !
पर पता पाया न इसका,
भार झिल पाया न इसका,
अश्रु-मोती काल की निस्सीम सीपी में ढला है ।

युग-युगों होता रहा
चिर विश्व मन का गरल-मंथन
हर लहर पर तैरता आया चला यह कसककर कण,
पर न पहचाना किसी ने
गरल ही माना सभी ने
यह अमृत का घूंट विष के सात सागर में पला है ।

नाप आया साँस का विस्तार
सपने तौल आया
सत्य था अनमोल उसको
आज यह बिनमोल लाया
शीश पर चिर सजल घन है
चरण तल अंगार-वन है
किंतु दुख-पंथी हदय से आँख तक केवल चला है । 

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रचनाएँ
अग्निरेखा
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अग्निरेखा महादेवी वर्मा का अंतिम कविता संग्रह है जो मरणोपरांत १९९० में प्रकाशित हुआ। इसमें उनके अन्तिम दिनों में रची गयीं रचनाएँ संग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभूत भी करती हैं और आश्चर्यचकित भी, इस अर्थ में कि महादेवी के काव्य में ओत-प्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है इसमें मुखर होकर सामने आता है। अग्निरेखा में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं। - महादेवी वर्मा का विचार है कि अंधकार से सूर्य नहीं दीपक जूझता है- रात के इस सघन अंधेरे में जूझता- सूर्य नहीं, जूझता रहा दीपक! कौन सी रश्मि कब हुई कम्पित, कौन आँधी वहाँ पहुँच पायी? कौन ठहरा सका उसे पल भर, कौन सी फूँक कब बुझा पायी।। अग्निरेखा के पूर्व भी महादेवी जी ने दीपक को प्रतीक मानकर अनेक गीत लिखे हैं- किन उपकरणों का दीपक, मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, सब बुझे दीपक जला दूँ,|
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अग्नि-स्तवन

23 फरवरी 2022
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पर्व ज्वाला का, नहीं वरदान की वेला ! न चन्दन फूल की वेला ! चमत्कृत हो न चमकीला किसी का रूप निरखेगा, निठुर होकर उसे अंगार पर सौ बार परखेगा खरे की खोज है इसको, नहीं यह क्षार से खेला ! किरण ने

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पूछो न प्रात की बात आज-गीत

23 फरवरी 2022
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पूछो न प्रात की बात आज आँधी की राह चलो। जाते रवि ने फिर देखा क्या भर चितवन में ? मुख-छबि बिंबित हुई कणों के हर दर्पण में ! दिन बनने के लिए तिमिर को भरकर अंक जलो ! ताप बिना खण्डों का मिल पाना

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वंशी में क्या अब पाञ्चजन्य गाता है-गीत

23 फरवरी 2022
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वंशी में क्या अब पाञ्चजन्य गाता है ? शत शेष-फणों की चल मणियों से अनगिन, जल-जल उठते हैं रजनी के पद-अंकन, केंचुल-सा तम-आवरण उतर जाता है ! छू अनगढ़ समय-शिला को ये दीपित स्वर, गढ़ छील, कणों को बि

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आँखों में अंजन-सा आँजो मत अंधकार-गीत

23 फरवरी 2022
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आँखों में अंजन-सा आँजो मत अंधकार ! तिमिर में न साथ रही अपनी परछाई भी, सागर नभ एक हुए पर्वत औ’ खाई भी, मेघ की गुफाओं में बन्दी जो आज हुआ, सूरज वह माँग रहा तुमसे अब दिन उधार ! कुंडली में

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किस तरंग ने इसे छू लिया

23 फरवरी 2022
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किस तरंग ने इसे छू लिया मन अब लहरों-सा बहता है ! पाल उड़ा डाले पक्षी-से, नभ की ओर खोलकर इसने, फिर फेंकी पतवार अतल में तरणी आज डुबा दी इसने । अब न किसी तट पर रुकने का यह कोई बंधन सहता है ! लहर

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नभ आज मनाता तिमिर-पर्व-आलोक-छंद

23 फरवरी 2022
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नभ आज मनाता तिमिर-पर्व, धरती रचती आलोक-छंद । नीला सहस्रदल-अंधकार खिल घेर रहा दिशि-चक्रवाल । तृण-कण को केशर-किंशुक कर लौ की जलती निधियां संभाल,, उड़ धूमपंख पर चले विकल दीपक-अलियों के वृन्द-वृन्

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यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है

23 फरवरी 2022
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यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है ? ज्योति-शर से पूर्व का रीता अभी तूणीर भी है, कुहर-पंखों से क्षितिज रूँधे विभा का तीर भी है, क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है ? छंद-रचना-सी गगन की रं

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आलोक पर्व-दीप माटी का हमारा

23 फरवरी 2022
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घन तिमिर में हो गया प्रहरी यही दीपक हमारा । हैं अमर निधियाँ तुम्हारी दीप माटी का हमारा ! सप्त-अश्वारथ सहस्रों रश्मियाँ जिसको मिली थीं, और बारह रंग की तेजसमई आकृति खिली थी, छू सकी जिसको न आँ

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बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में-गीत

23 फरवरी 2022
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बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में ! मिट गए पदचिह्न जिन पर हार छालों ने लिखी थी, खो गए संकल्प जिन पर राख सपनों की बिछी थी, आज जिस आलोक ने सबको मुखर चित्रित किया है, जल उठा वह कौन-सा दी

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दीपक अब रजनी जाती रे-गीत

23 फरवरी 2022
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दीपक अब रजनी जाती रे जिनके पाषाणी शापों के तूने जल जल बंध गलाए रंगों की मूठें तारों के खील वारती आज दिशाएँ तेरी खोई साँस विभा बन भू से नभ तक लहराती रे दीपक अब रजनी जाती रे लौ की कोमल दीप्त

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ओ विषपाई

23 फरवरी 2022
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यह तो वह विष नहीं, मिला जो तुम्हें क्षीर-सागर-मंथन से, जो शीतल हो गया तुम्हारे शीतल गंगा के जलकण से, क्षीर सिंधु की लहरों में पल, विधु की विमल चांदनी में मिल, होकर गरल अमृत की जिसने सहज सहोदरता

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रात के इस सघन अँधेरे से जूझता (गीत)

23 फरवरी 2022
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रात के इस सघन अँधेरे से जूझता सुर्य नहीं, जूझता रहा दीपक ! कौन-सी रश्मि कब हुई कम्पित, कौन आँधी वहाँ पहुंच पाई ? कौन ठहरा सका उसे पल-भर, कौन-सी फूंक कब बुझा पाई ? ज्योतिधन सूर्य है गगन का ही,

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सृजन के विधाता! कहो आज कैसे(गीत)

23 फरवरी 2022
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सृजन के विधाता! कहो आज कैसे कुशल उंगलियों की प्रथा तोड़ दोगे ? अमर शिल्प अपना बना तोड़ दोगे ? युगों में गढ़े थे धवल-श्याम बादल, न सपने कभी बिजलियों ने उगाए युगों में रची सांझ लाली उषा की न पर कल्

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हिमालय

23 फरवरी 2022
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इंद्रधनुष पर बाण चढ़ा विद्युत् फूलों के कामदेव-सा घिर-घिरकर आता है बादल, नहीं वेध पाता पाषाणी कवच तुम्हारा नहीं खुला पाता आग्नेई नयन अचंचल, समाधिस्थ तुम रहे सदा ही मौन हिमालय ! शुभ्र हिमानी प्रज

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बापू को प्रणाम-पूज्य बापू को श्रद्धांजलि

23 फरवरी 2022
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हे धरा के अमर सुत ! तुझको अशेष प्रणाम ! जीवन के अजस्र प्रणाम ! मानव के अनंत प्रणाम ! दो नयन तेरे धरा के अखिल स्वप्नों के चितेरे, तरल तारक की अमा में बन रहे शत-शत सवेरे, पलक के युग शुक्ति-सम्पुट म

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विदा-वेला-कवीन्द रवींद्र के महाप्रस्थान पर

24 फरवरी 2022
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यह विदा-वेला । अर्चना-सी आरती-सी यह विदा-वेला । धूलि की लघु वीण ले छू तार मृदु तृण के लचीले, चुन सभी बिखरे कथा-कण हास-भीने अश्रु-गीले, गीत मधु के राग धन के, युग विरह के, क्षण मिलन के, गा लिए जि

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बंग-वंदना

24 फरवरी 2022
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बंग-भू शत वंदना ले । भव्य भारत की अमर कविता हमारी वंदना ले । अंक में झेला कठिन अभिशाप का अंगार पहला, ज्वाल के अभिषेक से तूने किया शृंगार पहला, तिमिर - सागरहरहराता, संतरण कर ध्वंस आता, तू मनाती

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अश्रु यह पानी नहीं है

24 फरवरी 2022
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अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भा

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दु:ख आया अतिथि द्वार (गीत)

24 फरवरी 2022
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दु:ख आया अतिथि द्वार लौटा न दो । तुम नयन-नीर उर-पीर लौटा न दो ! स्वप्न का क्षार ही पुतलियों में भरा, दृष्टि विस्तार है आज मरु की धरा, दु:ख लाया अमृत सिंधु में डूबकर यह घटा स्नेह-सौगात लौटा

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दिया

24 फरवरी 2022
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धूलि के जिन लघु कणों में है न आभा प्राण, तू हमारी ही तरह उनसे हुआ वपुमान! आग कर देती जिसे पल में जलाकर क्षार, है बनी उस तूल से वर्ती नई सुकुमार । तेल में भी है न आभा न कहीं आभास, मिल गये सब तब दि

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बीज से-कहाँ उग आया है तू हे बीज अकेला

24 फरवरी 2022
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कहाँ उग आया है तू हे बीज अकेला ? यह वह धरती रही सभी को जो अपनाती, नहीं किसी को गोद बिठाने में सकुचाती, ऊँच-नीच का जिसमें कोई भेद नहीं है इसमें आकर प्राण मुक्त प्राणों से खेला ! सघन छाँह वाले

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वेदना यह प्राण छंदस की सजल अक्षय कला है

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वेदना यह प्राण छंदस की सजल अक्षय कला है । सीपियां अनगिन रहीं कल्पांत तक मुख मौन खोले स्वातियों ने तप किया शत चातकों के कंठ बोले ! पर पता पाया न इसका, भार झिल पाया न इसका, अश्रु-मोती काल की नि

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तुम तो हारे नहीं तुम्हारा मन क्यों हारा है

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तुम तो हारे नहीं तुम्हारा मन क्यों हारा है ? कहते हैं ये शूल चरण में बिंधकर हम आए, किन्तु चुभें अब कैसे जब सब दंशन टूट गए, कहते हैं पाषाण रक्त के धब्बे हैं हम पर, छाले पर धोएं कैसे जब पीछे छूट ग

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क्यों पाषाणी नगर बसाते हो जीवन में

24 फरवरी 2022
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क्यों पाषाणी नगर बसाते हो जीवन में ? माना सरिता नहीं, नहीं कोई निर्झरिणी, तपते दिन की ज्वाला से झुलसी है धरिणी, नहीं ओस का कण भी क्या अब रहा गगन में? नहीं मंजरित आम नहीं कोकिल का गायन, पल्

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न रथ-चक्र घूमे

24 फरवरी 2022
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न रथ-चक्र घूमे न पग-चाप आई रहा शून्य मंदिर न तुम दृष्टि आए ! शिलाएँ हुईं रज घिसा नित्य चंदन, तुम्हें खोजने को सुरभि है प्रवासी, थके शंख का रुद्ध है कंठ भी अब अलिन्दों भरे फूल भी हैं आज बासी! ज

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वीणावादिनि ! कस लिया आज क्या अग्नि-तार (गीत)

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वीणावादिनि ! कस लिया आज क्या अग्नि-तार ? आंखों का पानी चढ़ा-चढ़ा कर अग्नि-तार ! रवि-शशि-तूम्बों में विकल रंगभीनी आँधी, नक्षत्र-खूंटियों पर किरणें खींची बाँधी, आघातों पर खुलते जीवन के रुद्ध द्वार !

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नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूँ

24 फरवरी 2022
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नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूँ ! विष तो मैंने पिया, सभी को व्यापी नीलकण्ठता मेरी; घेरे नीला ज्वार गगन को बांधे भू को छांह अंधेरी; सपने जम कर आज हो गये चलती फिरती नील शिलाएं, आज

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चातकी हूँ मैं

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चातकी हूँ मैं किसी करुणा-भरे घन की ! खो रहे जिसके तमस में ज्योति के खग ज्वाल के शर, पीर की दीपित धुरी पर घूमते वे सात अम्बर; सात सागर पूछते हैं साध लघु मन की! चातकी हूँ मैं किसी करुणा-भरे घन

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टकरायेगा नहीं

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टकरायेगा नहीं आज उद्धत लहरों से, कौन ज्वार फिर तुझे पार तक पहुँचायेगा ? अब तक धरती अचल रही पैरों के नीचे, फूलों की दे ओट सुरभि के घेरे खींचे, पर पहुँचेगा पथी दूसरे तट पर उस दिन जब चरणों के नीचे

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राह थी अँधेरी पर गीत संग-संग चला

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राह थी अँधेरी पर गीत संग-संग चला उठकर आरोह ने बवंडर को साध लिया, उतरे अवरोह ने तरंगों को बांध लिया, स्वर्ण जूही फूल उठी जहाँ दीपराग जला राह थी अँधेरी पर गीत संग-संग चला नापा आलापों ने मूर्च्

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