shabd-logo

विशाल भारत

14 जून 2022

16 बार देखा गया 16

विधि-कांत-कर-सँवारा,

संसार का सहारा,

जय-जय विशाल भारत,

भुवनाभिराम प्यारा।

वर-वेद-गान-मुखरित,

उन्नत, उदार, सुचरित,

बहु पूत भूत पूजित

अनुभूत मंत्र द्वारा।

सुर-सिध्द-वृंद-वंदित,

नंदन-वनाभिनंदित,

आनंद-मान्य-मंदिर,

सिंधुर-वदन सुधारा।

जल-निधि-सुता-सुलालित,

सुरसरि-सुवारि-पालित,

जग-वंदिनी-गिरा-गृह,

गिरिनंदिनी उबारा।

रवि-कर-निकर-मनोहर,

विधु-कांति-कल-कलेवर,

सब दिव्यता-निकेतन,

दिवलोक का दुलारा।

मानस-सलिल-मनोरम,

मंजुल-मृदुल, मधु रतम,

कंचन-अचल-अलंकृत,

भव-व्योम-भव्य-तारा।

सुंदर-विचार-सहचर,

सब रस परम रुचिर सर,

शुचि-रुचि-निकेत-केतन,

वर भाव कर उभारा।

सज्जन-समाज-पालक,

दुर्जन-समूह-घालक,

निर्बल-प्रबल-सहायक,

खल-दल-दलन-दुधारा।

सारी सुनीति-नायक,

जन-मुक्ति-गान-गायक,

सब सिध्दि चारु साधान,

सुख-साधा-सिध्द पारा।

नव-नव-विकास-विकसित,

मधु-ऋतु-विभूति-विलसित,

मलयज-समीर-सेवित,

सिंचित-पियूष-धारा।

कुवलय-कलित सितासित,

खग-कुल-कलोल-पुलकित,

सज्जित वसुंधारा का

सौंदर्य-साज सारा।

कमनीयता-निमज्जित,

मणि-मंजु-रत्न-रंजित,

अवनी-ललाट-अंकित

सिंदूर-विंदु-न्यारा।

93
रचनाएँ
कल्पलता
0.0
हरिऔधजी बड़े ही मेधावी, प्रतिभासम्पन्न कवि थे । उन्होंने कविता रचने की प्रेरणा अपने बाबा सुमेरसिंह के सम्पर्क में सीखी । बाल्यावस्था में उन्होंने कबीर की साखियों पर कुण्डलिया लिखकर चमत्कृत कर दिया था । उनका जन्म 15 अप्रैल, 1865 में निजामाबाद में हुआ था ।
1

प्रेम-प्रलाप

14 जून 2022
0
0
0

भरे हैं उसमें जितने भाव, मलिन हैं, या वे हैं अभिराम, फूल-सम हैं या कुलिश-समान, बताऊँ क्या मैं तुझको श्याम! हृदय मेरा है तेरा धाम। गए तुम मुझको कैसे भूल, किसलिए लूँ न कलेजा थाम, न बिछुड़ो तुम जी

2

राम

14 जून 2022
0
0
0

रक्त-रंजित था समय-प्रवाह; चमक थी रही काल-करवाल। कँप रहा था त्रिलोक अवलोक, कालिका-नर्तन परम कराल। दनुजता का दुरंत उत्साह, लोक का करता था संहार। सह न सकता था प्राणिसमूह पाशविकता का प्रबल प्रहार।

3

मेरा राम

14 जून 2022
0
0
0

कला-निधि मंजु माधुरी देख, क्यों न उर-उदधि बने अभिराम। क्यों न अवलोक मूर्ति कमनीय, कमल-से लोचन हों छवि-धाम। रमा का पति है मेरा राम, तप त्रिविध-ताप-तप्त के हेतु। क्यों न दे सुखद जलद-सम काम, सकल भ

4

अवलोकन

14 जून 2022
0
0
0

नभ-तल, जल, थल, अनल, अनिल में है छवि पाती; कहाँ कलामय-कला नहीं है कला दिखाती। रंजित जो रज को न लोक-रंजन कर पाते; जन-रंजनता सकल कुसुम कैसे दिखलाते। हरे-हरे तरु-पुंज की रुचिरतर हरियाली; क्यों करती ज

5

सबमें रमा राम

14 जून 2022
0
0
0

मुग्धकर है उसका गुण-ग्राम; रमा जगती-तल में है राम। दिवस-मणि में वह दिखलाया, उसे विधु में हँसता पाया, अछूते नीले नभ-तल पर पड़ी है उसकी ही छाया। मेघ है कैसा सुंदर श्याम। चाँदनी क्यों खिलती आती,

6

प्यारा राम

14 जून 2022
0
0
0

कौन है, है जिसे न प्यारा राम! राम के हम हैं, है हमारा राम। है दुखी-दीन पर दया करता, बेसहारों का है सहारा राम। तब वहीं पर खड़ा मिला न किसे, जब जहाँ पर गया पुकारा राम। हैं सभी जीव जुगुनुओं-जैसे,

7

हमारा राम

14 जून 2022
0
0
0

ताकते मुँह रहे तुम्हारा राम! पर न तुमने हमें उबारा राम! हम थके, तुम पुकार सुन न सके, कब न हमने तुम्हें पुकारा राम! मन गया हार बेसहारे हो, पर न तुमने दिया सहारा राम! सच है यह, हम सुधार नहीं पाए,

8

अलौकिक गान

14 जून 2022
0
0
0

धारा-कालिमा रही रुधिर से धुलनेवाली; भव-करालता देख किलकिलाती थी काली। विपुल-मनुज-वध श्रेय-बीज था बोनेवाला; मंगल-मूलक महासमर था होनेवाला। शिव-मुंड-माल की कामना मूर्तिमान थी हो रही। धीरे-धीरे थी वसु

9

नियति-नियमन

14 जून 2022
0
0
0

नहीं जब रहता रंजन-योग्य तमोमय रजनी का संभार, राग-रंजित ऊषा उस काल खोलती है अनुरंजन-द्वार। नहीं जब रह जाता कमनीय तारकावलि तम-मोचन-काम, दमकता है तब दिव के मधय दिवस-मणि समणि लोक ललाम। बहुत जब कर

10

प्रेमा

14 जून 2022
0
0
0

उषा राग अनुराग रंग में है छवि पाती; रवि की कोमल किरण जाल में है जग जाती। रस बरसाती मिली कला-निधि कला सहारे; पाकर उसकी ज्योति जगमगाते हैं तारे। है वह उज्ज्वल कांति कौमुदी उससे पाती; जिसके बल से ति

11

मयंक - 1

14 जून 2022
0
0
0

टूटते रहते हो, तो क्या, क्या हुआ घटने-बढ़ने से; मान किसने इतना पाया किसी के सिर पर चढ़ने से। घूमते हो अँधियारे में, तुम्हें रजनीचर कहते हैं; पर बता दो यह, किसका मुँह लोग तकते ही रहते हैं। कलंक

12

नर-नारी

14 जून 2022
0
0
0

देख चंचलता चपला की गरजते मेघों को पाया; बिखर जाती है घन-माला, वायु का झोंका जब आया। देख करके रवि को तपता। दु्रमों में छिपती है छाया। चंद्रमा के पीछे-पीछे चाँदनी को चलते पाया। गोद में गिरिगण के

13

असार जीवन

14 जून 2022
0
0
0

किसको अपना प्यार दिखाऊँ, किसको गूँधा हार पिन्हाऊँ, कैसे बजा सुनाऊँ किसको मानस-तंत्री की झनकार। थे पादप फूले न समाते, थे प्रसून विकसे सरसाते, थे मिलिंद प्रमुदित मधुमाते, थे विहंग कल गान सुनाते,

14

विरह-निवेदन

14 जून 2022
0
0
0

नहीं खुल पाया तेरा द्वार; कान में पड़ पाई न पुकार। नहीं दया कर तूने देखी आकुल नयनों की जल-धार। सुख हैं सुर-तरु-तले न पाते; प्यासे सुर-सरि-तट से जाते। होते सुधा-गेह से नाते; हैं चकोर-सम आग चबाते।

15

उपहार

14 जून 2022
0
0
0

मंजुल-मानस-नंदन-वन में परम-रुचिर-रुचि के अनुकूल, तोड़े हैं अनुरक्ति-करों से भावों के अति सुंदर फूल। हैं ये नव-मरंद के मंदिर पारिजात-से सौरभवान; कोमल-अमल-कमल-दल जैसे सरसित-सरस-प्रसून-समान। चिंता-चा

16

धूल

14 जून 2022
0
0
0

धूल बनी हूँ, धूल रहूँ मैं, बदले बनूँ विमोहक फूल; सुरभित कर-कर सरस पवन को मधुप मधु पता सकूँ न भूल। अथवा नवल दूब-दल बन-बन खोलूँ दृगरंजन का द्वार; मुक्ता मंजु ओस-बूँदें ले विरचूँ परम मनोहर हार। सकल-ल

17

मनोव्यथा - 1

14 जून 2022
0
0
0

बिछा है कूट-नीति का जाल, कलह-कलकल है चारों ओर; कालिमामय मानस का मौन मचाता है कोलाहल घोर। मंजु-पथ-मग्न सरोवर-हंस बन गया परम कुटिल वक-काक; जहाँ था पावन प्रेम-प्रवाह, वहाँ है प्रबल पाप-परिपाक। न

18

हृदय-वेदना

14 जून 2022
0
0
0

हो रहा है गो-धान विध्वंस, कलपते हैं पय को कुल-लाल; किसलिए गया सर्वथा भूल गौरवित गोकुल को गोपाल! भर गयी दानवता सब ओर, बने मन मद-वारिधि के मीन मनुजता-श्रुति को कर रस-सिक्त बजी मुरली मुरलीधार की न

19

विशाल भारत

14 जून 2022
0
0
0

विधि-कांत-कर-सँवारा, संसार का सहारा, जय-जय विशाल भारत, भुवनाभिराम प्यारा। वर-वेद-गान-मुखरित, उन्नत, उदार, सुचरित, बहु पूत भूत पूजित अनुभूत मंत्र द्वारा। सुर-सिध्द-वृंद-वंदित, नंदन-वनाभिनंदित,

20

सिध्दि-साधना

14 जून 2022
0
0
0

कैसा आया समय, बदला काल का रंग कैसा, होती जाती भरत-भुवि की आज कैसी दशा है; आँखें खोलें विबुध-समझें देश की सर्व बातें, सोचें होके प्रयत, युग के धर्म का मर्म क्या है। आशा होवे उदय उर में, दूर नैराश्य

21

त्याग

14 जून 2022
0
0
0

भयंकर-भाव-विभव-अभिभूत, स्वार्थ-तम-तोम-आवरित ओक, लाभ करता है ललित विकास त्याग-रवि तेज-पुंज अवलोक। गृह-कलह-बेलि कठोर कुठार, जाति-गत वैर-पयोद समीर, निवारण-रत समाज-संताप त्याग है सुरसरि शीतल नीर।

22

त्याग भूमि

14 जून 2022
0
0
0

बन गया मूर्तिमान आतंक बहु प्रबल भूत पाप-परिपाक; सत्यता-सूत्र हो गया छिन्न; धूल में मिली धर्म की धाक। किंतु किसके खुल पाए नेत्र, किया किस जन ने उसका त्राण, बिंधा किस धर्म वीर का मर्म, दिया किस ध

23

शिक्षा का उपयोग

14 जून 2022
0
0
0

शिक्षा है सब काल कल्प-लतिका-सम न्यारी; कामद, सरस महान, सुधा-सिंचित, अति प्यारी। शिक्षा है वह धारा, बहा जिस पर रस-सोता; शिक्षा है वह कला, कलित जिससे जग होता। है शिक्षा सुरसरि-धार वह, जो करती है पूत

24

शक्ति

14 जून 2022
0
0
0

जिसे है मानवता का ज्ञान, नहीं पशुता से जिसकी प्रीति; बिना त्यागे विनयन का पंथ लोक-नियमन है जिसकी नीति। क्रोध जिसका है शांति-निकेत, लोभ जिसका लालसा-विहीन; मोह जिसका है महिमावान, काम जिसका अकामना

25

मधु-मत्

14 जून 2022
0
0
0

नया रस भव में सरसाया; छलककर छिति-तल में छाया। सरस होकर रसाल बौरे, बनी किंशुकता मतवाली; लाल फूलों में विलसित हुई मत करनेवाली लाली। लता-दल पुलकित दिखलाया। फूल हैं मुँह खोले हँसते, विकसिती जाती ह

26

वसंत

14 जून 2022
0
0
0

चावमय लोचन का है चोर नवल पल्लवमय तरु अभिराम; प्रलोभन का है लोलुप भाव, ललित लतिका का रूप ललाम। मनोहरता होती है मत्त मंजरी-मंजुलता अवलोक; हृदय होता है परम प्रफुल्ल कुसुम-कुल-उत्फुल्लता विलोक। का

27

मधुर विकास

14 जून 2022
0
0
0

गगन-तल क्यों निर्मल हो गया? नीलिमा क्यों है भरित उमंग? लोक-मोहन क्यों इतना बना आज दिन उसका श्यामल रंग। सभी को कर देने को सरस किसलिए हुआ चौगुना चाव; वारिधार मंजु वारि कर वहन कर गया क्यों छिति पर

28

परिजात

14 जून 2022
0
0
0

बड़े मनोहर हरे-हरे दल किससे तुमने पाए हैं? तुम्हें देखकर के मेरे दृग क्यों इतने ललचाए हैं? कहाँ मिल गये इतने तुमको, क्यों ये इतने प्यारे हैं? किसके सुंदर हाथों ने ये सुंदर फूल सँवारे हैं? जब सित,

29

बहुरंगी फूल

14 जून 2022
0
0
0

इनके-ऐसे नयन विमोहन सुमन कहाँ अवलोके; 'लोक-ललाम' गात में किसके बसे ललिततम होके? इनके-जैसी सहज विकचता मृदुता किसने पाई; किसके अंतर में इतनी जन-रंजनता दिखलाई? रंग-बिरंगे हैं इतने, है रंगत इतनी प्यार

30

प्रकृत पाठ

14 जून 2022
0
0
0

प्यारे बालक! नयन खोल सब ओर विलोको; दिव्य भाव से भरे भव-विभव को अवलोको, बहु सज्जित तरु-पुंज, फल-भरी उनकी डाली, परम मनोहर छटा, नयन-रंजन हरियाली। मंजु रंग में रँगे सुरभि से मुग्ध बनाते; विकसे नाना फ

31

तंत्री के तार

14 जून 2022
0
0
0

टूट गये तंत्री के तार; रही नहीं अब वह स्वर-लहरी, रही नहीं अब वह झंकार। कुसुमोपम मृदु उँगली से छिड़ नहीं बरसते हैं रस-धार; हैं प्रदान करते न पवन को मुग्धकरी धवनि मधुर अपार। हैं न कान को सुधा पिलाते

32

मर्म-व्यथा

14 जून 2022
0
0
0

बिखर रहा है चंद हमारा। सकल-लोक-मानस-अवलंबन, जगतीतल-लोचन का तारा; राका-रजनि-अंक-अनुरंजन है आवरित निविड़ घन द्वारा। है हो रहा अकांत कांत तन बहु नीरस सरसित रस-धारा; अधाम सिंहिकानंदन से है अवनीतल-अभिन

33

सम्मान

14 जून 2022
0
0
0

बरस जाती है रुचिकर वारि विनय की मधुर वचन की खोज; मिले निर्मल-उर-रवि-कर मंजु विलसता है सम्मान-सरोज। नहीं होता कीने के पास अछूते आव-भगत का वास; बुझी कब बिना समादर-ओस किसी सम्मान-सुमन की प्यास? ल

34

मैं क्या हूँ

14 जून 2022
0
0
0

मैं मिट्टी से हूँ बना, किंतु हूँ सोना; हूँ धूल, फूल बनकर करता हूँ टोना। मैं पानी का हूँ बूँद, किंतु हूँ मोती; मैं हूँ मानव, पर हूँ सुरगुरु का गोती। मैं मर हँ, किंतु अमर है मेरी सत्ता; हूँ तरु-जीव

35

सौंदर्य

14 जून 2022
0
0
0

कांत रविकर-किरीट कमनीय, अलंकृत ओस-युक्त मणि-माल, विपुल स्वर्गीय विभूति-निकेत, कुसुम-कुल-विलसित प्रात:काल। उषा का जग-अनुरंजन राग, दिग्वधू का विमुग्धकर हास, पुरातन है, पर है अति दिव्य, और है भव-स

36

असहृदयता

14 जून 2022
0
0
0

है वही रंगमंच कवि-कर्म जहाँ पर प्रकृति-नटी सब काल दिखाकर रंग परम रमणीय लुटाती है रत्नों का थाल। यही है वह अनुपम उद्यान, जहाँ खिलते हैं भाव-प्रसून; यही है वह महान रस-सोत, जिसे अरसिक सकता है छू न

37

दीया

14 जून 2022
0
0
0

समय के सिर का है टीका, बड़ा ही सुंदर चमकीला; कंठ का उसके है जुगनू, कलाएँ हैं जिसकी लीला। वह सुनहलापन है इसमें, सुनहली कर दीं दीवारें, रूप ऐसा है मन-मोहन फतिंगे जिस पर तन वारें। तेज सूरज या तार

38

गीता-गौरव

14 जून 2022
0
0
0

है परम-दिव्य-ज्योति-संभूत, वेद-आभा से आभावान; उपनिषद् का कमनीय विकास, विविध आगम-निधि-रत्न महान। मनुजता-मंदिर-रत्न-प्रदीप, चारु-चिंतन-नभ-रुचिर-मयंक; कल्पना-कलिका-कांत-प्रभात, भारती-भव्य-भाल का अ

39

अतीत संगीत

14 जून 2022
0
0
0

था भव-प्रात:काल, राग-रंजित था नभतल; लोहितवसना ललित अंक था लोक समुज्ज्वल। था अभिव्यक्ति-विकास प्रकृति-मानस में होता; धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था तामस खोता। क्षितिज-अंक से निकल विभा के बहुविध गोले केलि

40

वैधा विहार

14 जून 2022
0
0
0

प्रकृति-मानस का प्रिय अनुराग, लालसाओं का ललित मिलाप; रसिकता का रस-सिध्द रहस्य, मुग्धता-मंजुल कार्य-कलाप। अभिजनन का साधान सर्वस्व, भवन-भावन-विलास-अवलंब; युवकता-युवती का शृंगार, नवल-यौवन-कल्लोल-क

41

कांत कामना

14 जून 2022
0
0
0

ऐ नव-जीवन के जीवन-धान, ऐ अनुरंजन के आधार; ऐ मंजुलता के अवलंबन, ऐ रसमयता के अवतार! ऐ उमंगमय मानस के मधु, ऐ तरंगमय चित के चाव! प्रकृति-कंठ के हार मनोहर, भव-भावुकता के अनुभाव! ऐ कुसुमाकर, जो भारत को

42

मुरली की तान

14 जून 2022
0
0
0

कहलाते हैं हिंदू-बालक, बनते हैं हिंदू-कुल-काल; हैं भारत-ललना से लालित, किंतु हैं न भारत के लाल। रोम-रोम है देश-प्रेममय, रखते हैं न जाति से प्यार; राजनीति के अनुपम नेता, पर कुनीति के हैं अवतार। हैं

43

वीणा-झंकार

14 जून 2022
0
0
0

नहीं लुभा लेता है उर को ललित लयों से पूरित गान; मोह नहीं मानस लेती है सरस कंठ की सुंदर तान। अंतर धवनित नहीं होता है सुने स्वर्ग धवनिमय आलाप; नहीं अल्प भी मुग्ध बनाता अति मंजुल स्वर-ताल-मिलाप। मौन

44

मंगल-कामना

14 जून 2022
0
0
0

मंगल गान सुर-वधू गावे, बहु विमुग्ध दिग्वधू दिखावे; विलस गगन-तल में छवि पावे, सु-मनस-वृंद सुमन-झर लावे। विविध-विनोद-वितान विधि-सदन में तने। समय ललित लीलामय होवे, काल कलंक-कालिमा धोवे; रंजन-बीज र

45

मन का

14 जून 2022
0
0
0

छेड़ता जो कि है जले तन को, कौन कहता उसे नहीं सनका; आग के साथ खेलना है यह, यह पकड़ना है साँप के फन का। गिर किसी जल रहे तवे पर वह क्यों न जल-बूँद की तरह छनका; जाति में आग जो लगाता है, क्यों न गोल

46

लहर

14 जून 2022
0
0
0

कलेजा कब चिचोरती नहीं बन चुड़ैलों जैसी बद बहू; दूध जिस माँ का पीकर पली, चूस लेती है उसका लहू। हाथ से जिसके पल जी सकी, गोद में जिसकी फूली-फली; बेतहर लुटता है वह बाप, छुरी गरदन पर उसकी चली। सगा

47

शांति

14 जून 2022
0
0
0

प्रबल जिससे हों दानव-वृंद, अबल पर हो बहु अत्याचार; कुसुम-कोमल उर होवे बिध्द, धारा पर बहे रुधिर की धार। सूत्र मानवता का हो छिन्न, सदयता का हो भग्न कपाल; लुटे सज्जनता का सर्वस्व, छिने सहृदयता-संच

48

हाहाकार

14 जून 2022
0
0
0

वज्री के अति प्रबल वज्र-सम वज्र-हृदय-जन का है काल; दंडनीय जन के दंडन-हित है अंतक का दंड कराल। शूल-प्रदायक प्राणिपुंज को है शूली का तीव्र त्रिशूल; चक्र-पाणि के चक्र-तुल्य है कलि-चक्रांत-निपुण प्

49

विबोधन

14 जून 2022
0
0
0

खुले न खोले नयन, कमल फूले, खग बोले; आकुल अलि-कुल उड़े, लता-तरु-पल्लव डोले। रुचिर रंग में रँगी उमगती ऊषा आई; हँसी दिग्वधू, लसी गगन में ललित लुनाई। दूब लहलही हुई पहन मोती की माला; तिमिर तिरोहित हुआ

50

भारत के नवयुवक

14 जून 2022
0
0
0

जाति-धान, प्रिय नव-युवक-समूह, विमल मानस के मंजु मराल; देश के परम मनोरम रत्न, ललित भारत-ललना के लाल। लोक की लाखों आँखें आज लगी हैं तुम लोगों की ओर; भरी उनमें है करुणा भूरि, लालसामय है ललकित कोर।

51

देश

14 जून 2022
0
0
0

सबल हो लिबरल हैं बलहीन, अहित को है हित-भाव प्रदत्त; पान कर मनमानापन-मदक स्वराजी हैं नितांत मदमत्त। सुनाते हैं स्वतंत्रता-तान, किंतु हैं कहाँ स्वतंत्र स्वतंत्र; छेड़ते हैं हृत्तंत्री-तार अन्य दल

52

हृदय-वेदना - 1

14 जून 2022
0
0
0

कहाँ वह सरस वसंत रहा, जो देता था भारत-भू में रस का सोत बहा। पलाशों की बिलोक लाली लहू आँखों में है आता; देख उसमें का कालापन दोष अपना है खल जाता। दिल दहलाता है लहू से दाड़िम-सुमन नहा। अलि-अवलि का

53

सूखा रंग

14 जून 2022
0
0
0

लाल-लाल कोंपल से तरुवर वैसे ही होते हैं लाल; ललित विविध सुमनों से सज्जित वैसी ही होती है डाल। पावक-सम अरुणाभ फूल से बनते हैं कमनीय अनार; वैसे ही लोहित कुसुमों से विलसित होता है कचनार। सेमल वैसे ही

54

अंतर्दाह

14 जून 2022
0
0
0

किसलिए टूटी कितनी आस, हुआ क्यों सुख में दुख का वास; बतला दे होलिके! कहाँ वह गया मनोहर हास। किसी का छिना भाल-सिंदूर, किसी का टूटा सुंदर हार; किसी का गया सुधा-सर सूख, किसी का लुटा स्वर्ण संसार। क

55

मनोवेदना

14 जून 2022
0
0
0

चिर दिन से आँखें आकुल हो लालायित हैं मेरी; भारत-जननि, नहीं अवलोकी कांति अलौकिक तेरी। वर विकासमय वारिज के सम विकसित बदन न देखा; चारु अधार पर नहीं बिलोकी रुचिर हँसी की रेखा। कहाँ गयी वह रूप-माधुरी,

56

प्रलाप

14 जून 2022
0
0
0

विजयिनी बनती हो, तो बनो, किसे है यहाँ विजय से काम; वेदना है रग-रग में भरी, कलप हैं रहे कलेजा थाम। गर्व गत गौरव का क्यों करें, हम रहे हैं रौरव-दुख भोग; फफोलों से है छाती भरी, उपजते नए-नए हैं रोग

57

अंतर्वेदना

14 जून 2022
0
0
0

किसलिए आई हो तुम आज, चित व्यथित हुआ तुम्हें अवलोक; हो गये पूर्व विभव की याद, भर गया अंतस्तल में शोक। जहाँ बहता था रस का सोत, वहाँ है बरस रहा अंगार; बन गया परम भयंकर व्याल गले का कलित कुसुम का ह

58

करुण दशा

14 जून 2022
0
0
0

घर-घर ग्राम-ग्राम नगरों में भर जावेगा भूरि प्रकाश; विभा बढ़ेगी, तो भी होगा क्या भारत-भूतल-तम-नाश? अगणित दीपावलि चमकेगी, चमक उठेगा चारु दिगंत; तो भी क्या तामस मानस के तमो भाव का होगा अंत? आलोकित कर

59

परिवर्तन - 1

14 जून 2022
0
0
0

टपकता ही रहता है क्यों, पड़ा कैसे दिल में छाला; उँजेले में क्यों रहता है सामने दृग के अँधियारा? फूल खिल-खिल हँस-हँस करके लुभा लेते थे दिल मेरा; आँख उन पर पड़ते ही क्यों दुखों ने मुझको आ घेरा?

60

परिवर्तन - 2

14 जून 2022
0
0
0

भरा आँखों में था जादू, हँसी होठों पर थी रहती; बात टूटी-फूटी कहते, किंतु रस-धारा-सी बहती। गोद में बैठे रहते थे, लोग थे मुँह चूमा करते; स्वर्ग था तब घर बन जाता, जब कभी किलकारी भरते। बलाएँ माता ल

61

विजयागमन

14 जून 2022
0
0
0

आती हो प्रतिवर्ष दिखा जाती हो गरिमा; भर जाती हो मुग्ध मनों में महा मधुरिमा। कितनी ही कमनीय कलाएँ हो कर जातीं; विविध जीवनी शक्ति जाति में हो भर पाती। किंतु आज भी जाग न पाई भारत-जनता; है इतनी बल-ही

62

प्रेम-परख - 1

14 जून 2022
0
0
0

प्रेम-धन से पुनीत प्रेम न कर जो बनी प्रेम-रंकिनी है वह, तो लगेंगे कलंक क्यों न उसे, कामिनी-कुल-कलंकिनी है वह। है अहंभाव प्रेम का बाधाक, वह नहीं प्रेम-बीज है बोता; ऊबता प्रेम है बनावट से, प्रेम

63

प्रेम-परख - 3

14 जून 2022
0
0
0

एक है सुरपुर-सुपथ-मंदाकिनी, सुख-सरित है दूसरी मरु-राह में; है बड़ा अंतर, असमता है बहुत, प्रेम-ममता और समता चाह में। पति-परायणता वहाँ कैसे पुजे, है जहाँ फहरा रही ममता-ध्वजा; प्रेम की अधीनता क्यों

64

हृदय-दान

14 जून 2022
0
0
0

अलकावलि को केलिमयी कमनीय बनाया; कोमल मंजुल-कुसुम-दाम से उसे सजाया। किया रुचिर सिंदूर-बिंदु से भाल मनोहर; सरस नयन में दिए भाव कुसुमायुध के भर। दसन सँवारे मधुर वचन से, मधु बरसाया; बदन-इंदु का विभव

65

वितर्क

14 जून 2022
0
0
0

किंशुक की लालिमा कालिमा से न बची है। कलित-काकलीमयी कलमुँही गयी रची है। रसिक-प्रवर रसलीन परम-प्रेमिक है, तो भी। मधुकर है मद-मत्त महा-चंचल मधु-लोभी। लाल-लाल कमनीय-कुसुम-कुल शोभित सेमल; लाता है रस-ह

66

कुल-ललना

15 जून 2022
0
0
0

आँख में लज्जा हो ऐसी, फाड़ जो परदों को फेंके; राह जो बुरे तेवरों की पहाड़ी घाटी बन छेंके। चाँद-सा मुखड़ा ऐसा हो, न जिस पर हों धब्बे काले; चाँदनी उससे वह छिटके, सुधा जो वसुधा पर ढाले। हँसे, तो

67

शक्ति - 1

15 जून 2022
0
0
0

प्रेम का वह अनुपम उद्यान, जहाँ थे भाव-कुसुम कमनीय, सुरभि थी जिसकी भुवन-विभूति, मंजुता भव-जन-अनुभवनीय। हो रहा है वह क्यों छवि-हीन, छिना क्यों उसका सरस विकास; बना क्यों अमनोरंजन-हेतु विमोहक उसका

68

शक्ति - 1

15 जून 2022
0
0
0

प्रेम का वह अनुपम उद्यान, जहाँ थे भाव-कुसुम कमनीय, सुरभि थी जिसकी भुवन-विभूति, मंजुता भव-जन-अनुभवनीय। हो रहा है वह क्यों छवि-हीन, छिना क्यों उसका सरस विकास; बना क्यों अमनोरंजन-हेतु विमोहक उसका

69

शक्ति - 1

15 जून 2022
0
0
0

प्रेम का वह अनुपम उद्यान, जहाँ थे भाव-कुसुम कमनीय, सुरभि थी जिसकी भुवन-विभूति, मंजुता भव-जन-अनुभवनीय। हो रहा है वह क्यों छवि-हीन, छिना क्यों उसका सरस विकास; बना क्यों अमनोरंजन-हेतु विमोहक उसका

70

परिवर्तन - 3

15 जून 2022
0
0
0

वासनाएँ होवें सुरभित, कामनाएँ हों मंजुलतम; भावनाएँ हों भाव-भरित, कल्पनाएँ हों कुसुमोपम। कमल-मुख सदा मिले विकसित, कालिमा लगे न कुम्हलाए; नयन रस-भरे रहें, मोती बूँद आँसू की बन जाए। हँसी बिजली-जै

71

सहेली

15 जून 2022
0
0
0

तो मानवता-वदन विकच किस भाँति मिलेगा, सुमतिदायिनी मति जो बनती है मतवाली; कैसे तो न अमंजु मंजु मानसता होगी, जो मायामय बने मधु रतम मानसवाली। तो कैसे सिर सकल सरस साधों न धु नेंगी, सुखविधायिनी जो विधा

72

सफलता-सूत्र

15 जून 2022
0
0
0

दूर कर अवनी-तल-तम-तोम, तमी-तामस का कर संहार; दलन कर दानव-दल का व्यूह भानु करता है प्रभा-प्रसार। प्रतिदिवस कला-हानि अवलोक कलानिधि होता नहीं सशंक; समय पर सकल कला कर लाभ सरस करता है भूतल अंक। वाय

73

सफल लोक

15 जून 2022
0
0
0

विकसित, कुसुमित लता कंटकित है दिखलाती; रुधिर-रहित है नहीं पूत पय-पूरित छाती। रस से भरे रसाल-मधय हैं बीए होते, मिले कहाँ मल-हीन सलिल के सुंदर सोते। सुख-दुख का है साथ, तेज-तम मिले हुए हैं; कीच बीच

74

युवक

15 जून 2022
0
0
0

जाति-आशा-निशि-मंजु-मयंक; कामना-लतिका-कुसुम-कलाप; युवक है लोक-कालिमा-काल, देश-कमनीय-कंठ-आलाप। जगाता है नव-जीवन-ज्योति राग-आरंजित जिसका गात; लोक-लोचन का है जो ओक, युवक है वह भव-भव्य-प्रभात। सुमन

75

जीवन-रण-नाद

15 जून 2022
0
0
0

सभी चाहता है कि चमके सितारा; रहे सब जगह रंग रहता हमारा। पलक मारते काम हो जाय सारा; जगे भाग का सब दिनों हो सहारा। सँवरता रहे घर सुखों के सहारे; रहें फूल बनते दहकते अँगारे। किसे है नहीं चाह, आराम

76

कवींद्र-पंचक

15 जून 2022
0
0
0

महाचमत्कारक, लोल-लोचना, विचार-धारा-वलिता, विचक्षणा, चतुर्मुखी, रोचक-चित्र-चित्रिता, विचित्र है केशव-चित्त-चातुरी। समुद्र-उत्तल-तरंग-सी लसी, सुमेरु के शृंग-समान शोभिता, विरक्ति-हीना, अनुरक्ति से

77

स्वागत-गान - 1

15 जून 2022
0
0
0

आज कैसा सुंदर दिन आया। जिसकी सुंदरता की जन-मन-मुकुर में पड़ी छाया। काशी धाम-समान दूसरा धर्म-पीठ न सुनाया; कहाँ विलसती है, निशि-वासर विश्वनाथ की माया। कौन विविध विद्या-विवेक का सिध्द पीठ कहलाया; ब

78

स्वागत-गान - 2

15 जून 2022
0
0
0

सादर हम स्वागत करते हैं। बरसाने के लिए कल कुसुम मंजुल अंजलि में भरते हैं। अंतरज्योति जगाकर उसकी क्यों न जाय आरती उतारी; जिस प्रभु की प्रभुता अवलोके हुई जन-विबुधता बलिहारी। जिसने बन आनंद-वन-अधिप मन

79

स्वागत-गान - 3

15 जून 2022
0
0
0

आज खुल गया भाग हमारा। जहाँ दिखाते थे दुख-सोते, बही वहाँ रस-धारा। दिन फिर गये पड़ी धारती के, सूखा पौधा फूला; हुआ आज जंगल में मंगल, मिला सुख समय भूला। जो श्रीमान् श्रीमती को ले करके कृपा पधारे; तो

80

स्वागत-गान - 4

15 जून 2022
0
0
0

हम हैं प्रभु को शीश नवाते। उमग-उमग स्वागत करते हैं, फूले नहीं समाते। बड़े भाग से ऐसे अवसर कभी-कभी हैं आते; लघु जन पर श्रीमानों-जैसे जन हैं कृपा दिखाते। नाम आपका ले जीते हैं, कीर्ति आपकी गाते; मिल

81

समाज

15 जून 2022
0
0
0

बजाए वह वीणा रमणीय, मधु रतम हो जिसकी झंकार; मूर्च्छनाओं में हो वह मोह, मुग्ध हो जिसको सुन संसार। बताए वह अनुपमतम सूत्र, सकल पद जिसके हों बहु पूत; साधनाओं में हो वह मंत्र, सिध्दियाँ जिसकी हों अन

82

क्रान्ति

15 जून 2022
0
0
0

हाथ में उसके हो वह दीप, जो तिमिर भव का कर दे दूर; स्नेह-पूरित हो जिसका अंक, ज्योति जिसमें होवे भरपूर। पास उसके हो वह वर बीन, विनयमय हो जिसकी झंकार; सुनावें विश्व-बंधुता-राग छिड़े पर जिसके ध्वनि

83

सहेली - 1

15 जून 2022
0
0
0

उलझे जाए सुलझ, भूलती राह बताए; मुँह न चिढ़ाए, बने रंगरलियाँ कर प्यारी। कभी गुदगुदाए इतना न कि आँसू आए; सदा सींचती रहे हृदयतल की फुलवारी। रहे खीज में रीझ कलेजे में कोमलता; सुख देखे हो सुखी, दुखों

84

राजस्थान

15 जून 2022
0
0
0

जहाँ वीरता मूर्तिमंत हो हरती थी भूतल का भार, जहाँ धीरता हो पाती थी धर्म-धुरीण-कंठ का हार, जहाँ जाति-हित-बलि-वेदी पर सदा वीर होते बलिदान, जहाँ देश का प्रेम बना था सुरपुर का सुखमय सोपान, जिस अवनी के

85

विडंबना

15 जून 2022
0
0
0

कंटकित हो क्यों कुसुमित सेज, बने क्यों अकलित कुसुम-कलाप; किसी की विलसित ललित उमंग बने क्यों क्रंदन-बलित विलाप। हरें क्यों अलकावलि का मान किसी के पलित पुरातन केश; मधुरतम-स्वर-लालायित-कान सुने क्

86

भाव-भक्ति

15 जून 2022
0
0
0

पादप के पत्ते हैं प्रताप के पताके हरे, क्यारियाँ सुमन की सुमनता सँवारी हैं; तेरे अनुराग-राग ही से रंजित है उषा, नाना रवि तेरे तेज ही से तेजधारी हैं। 'हरिऔधा' तेरे रंग ही में रजनी है रँगी, विधु की

87

गंगा-गौरव

15 जून 2022
0
0
0

अंग-अंग में है लोक-पावन प्रसंग भरा, रूप अवलोकनीय रंग बहु न्यारा है; तरल तरंग में हैं मंजु भावनाएँ बसी, संचित विभूति में लसित भाव प्यारा है। 'हरिऔधा' अंक अलौकिकता निकेतन है, कमनीय कला कांत कलित कि

88

भारत-विभूति - 2

15 जून 2022
0
0
0

सब-भूत-हित की विभूति विलसी है कहाँ, विश्व-बंधुता की निधि किसकी बही में है; मानवता कहाँ है कुसुम-कलिका-सी खिली; दिव्यता कहाँ के कवि-कुल की कही में है। 'हरिऔधा' आलोकित लोक? किससे है हुआ, सुरपुर-सत्

89

विधि-विधान

15 जून 2022
0
0
0

अकलित कुसुम ललित पल्लवें में मिले, भावुकता भूल-सी विलोके भाल-अंक में; समझे तिमिर में अलोचनता लोचन की, निवसे अकिंचनता कंचन की लंक में। 'हरिऔधा' विधि की है वंकता विदित होती, पाए गये रंकता करंकी भूत

90

मोह-महत्ता

15 जून 2022
0
0
0

सुख को असुख, महा नीरस रसों को कर कलित कुसुम को कुलिश कर पाता है; देता है मलिन बक-माला को मराल-पद, ललित रसाल को बबूल बतलाता है। 'हरिऔधा' विधाना-विधान है विबोधा जन, सुधा-सम वसुधा का जीवन-विधाता है;

91

प्राकृतिक दृश्य

15 जून 2022
0
0
0

रजत विराजित विलोक तरु-राजि-दल, मोहकता अवलोक अवनी अपंक की; भाए विभा-वलित दिगंगना विशद भाल, छाए छवि-पुंजता रुचिर छवि रंक की। 'हरिऔधा' राका-रजनी-सी रंगिणी के मिले, छीर-निधि की-सी छटा देखे सरि अंक की

92

विविध विषय

15 जून 2022
0
0
0

लोग बोली बोलेंगे, करेंगे बोलती तो बंद, बाल-बाल बीनेंगे बला जो बन जाएँगे; चाल जो चलेंगे, तो चलेंगे हम लाखों चाल, मुँह नोच लेंगे, कभी मुँह जो बनाएँगे। 'हरिऔधा' वैरियों को दम लेने देंगे नहीं, आँख तो

93

दो सवैए

15 जून 2022
0
0
0

थी तितली जिनका मुख चूमती, भौंर विलोक जिन्हें ललचाते; जो हँस के हरते जन-मानस, मंजुल वायु को जो महँकाते। ए 'हरिऔधा' हरे दल में खिल जो लतिका में बड़ी छवि पाते; सूख गये, बिखरे, मिले धूल में, आज वे फूल

---

किताब पढ़िए