एक दिन जब उनकी(महबूबा ) दर्द देखा नहीं गया । तो मुझे से कैसे न कैसे करके मिलने चली आई ।
जब मैं उसे पहचान कर उससे पूछा कि कैसे आना हुआ ।
कैसी है वह .....? मैंने उससे पूछा ..
नीचे वही हमलोग की पंक्ति के द्वारा बातें हैं ...)
आंसूओं का घर.....वह जो आंखों के कोर में थी
लफ्ज़ की गठरी जो उनकी ...होठों की ओंठ में छिपी थी
फीकी मुस्कुराती हुई चेहर.. जो चारों ओर ली हुई थी
वह .. जो तकिया, सोने से पहले ही भींग चुकी थी
वह चेहरा .. जो किसी यादें ख्यालों में खो चुकी थी
मेहंदी वाली हाथ जो अब किसी बेजान-सी पड़ी हुई थी
पायल... जो कहीं गुम, सरगम के तान सी बिखरी थीं
उस कमरे का आईना जो सच्चाई देखना भूल गई थी
हालात उनके कपड़ों की कुछ ऐसा था
जैसे कि......बस तन पर रखें हुए हैं ,
कमरा के हर वह चीजें ,जिन से मुहब्बत थी
लावारिस की तरह यहां वहां बिखरी हुई थी
फिर मैंने उससे पूछा और क्या क्या ..?
नैना फिर कहने लगी,कि आगे सुनो..
उस गली के घास, जो राहें पर उग चुकी थी
न जाने ख़ुद को इतना संवार चुकी थी
जो हरी हरी किसी नायिका से कम नहीं थी
उससे जब मैंने पूछा कि तुम इतना खुश क्यों हो
तब उसने तुम दोनों की आखरी आंसू और क़दम दिखाई थी
ये कहते हुए कि आज भी संभाला कर रखी हूं
साथ ही साथ मैं मर जाऊंगी ये भी उसने कही थी
उसी गली के एक दीवार ने मुझे से रोक कर कहा.....
कि, देख उन तुम दोनों की... मुहब्बत के वह साक्ष्य... मेरे सीने में दफ़न हैं...
पीपल के नीचे बने चबूतरे पर, जब मैं हवा खाने गयी
वह भी मुझे से तुमलोग की घंटों बैठने की साक्ष्य दे रहा था
पीपल के छाव किसी गैरों से बच रहे थे
क्यों कि तुम्हारी दी हुई दर्द कहां भूल पा रहे थे
हर किसी पर विश्वास ही नहीं करता है
और न ही तुम्हारी इस दी हुई दर्द से उभर पाया है
और आखिर में यह भी बता दू तुझे
वह आज भी हर वह जगह जाती है
जहां तेरे होने के एहसास मिलते हैं
और फिर खाली हाथ आंखों में सागर लिये लौटती है
एक आंसू भी तो एक महासागर है
पर तुम क्या ख़ाक समझेंगे ...-2