16 नवम्बर 2015
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जो दिल को बहला जाती थी वो मीठी तकरार कहाँ है, कोई हमसे पूछ रहा है पहले जैसा प्यार कहाँ है......... वो दिन कब के बीत चुके जब "ना" के पीछे "हाँ" होती थी, इकरारों की खुशबू लाये ऐसा इंकार कहाँ है......D
बहुत खूब लिखा है आपने और मना किया है दुआएँ लेने से। काश! दुआओं को वस्तुतः दिया और लिया जाता, तो आप लेने से मना कर देते, परंतु यह तो दिल से स्वयं निकलकर आपको लगने जा रही हैं।
18 नवम्बर 2015