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23. काशी में आगमन

7 फरवरी 2022

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ब से वृजरानी का काव्य–चन्द्र उदय हुआ, तभी से उसके यहां सदैव महिलाओं का जमघट लगा रहता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएं थी उनके प्रबंध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अतिरिक्त अन्य नगरों से भी बहुधा स्त्रीयों उससे भेंट करने को आती रहती थी जो तीर्थयात्रा करने के लिए काशी आता, वह विरजन से अवरश्य मिलता। राज धर्मसिंह ने उसकी कविताओं का सर्वांग–सुन्दर संग्रह प्रकाशित किया था। उस संग्रह ने उसके काव्य–चमत्कार का डंका, बजा दिया था। भारतवर्ष की कौन कहे, यूरोप और अमेरिका के प्रतिष्ठित कवियों ने उसे उनकी काव्य मनोहरता पर धन्यवाद दिया था। भारतवर्ष में एकाध ही कोई रसिक मनुष्य रहा होगा जिसका पुस्तकालय उसकी पुस्तक से सुशोभित न होगा। विरजन की कविताओं को प्रतिष्ठा करने वालों मे बालाजी का पद सबसे ऊंचा था। वे अपनी प्रभावशालिनी वक्तृताओं और लेखों में बहुधा उसी के वाक्यों का प्रमाण दिया करते थे। उन्होंने ‘सरस्वती’ में एक बार उसके संग्रह की सविस्तार समालोचना भी लिखी थी।
एक दिन प्रात: काल ही सीता, चन्द्रकुंवरी ,रुकमणी और रानी विरजन के घर आयीं। चन्द्रा ने इन सित्र्यों को फंर्श पर बिठाया और आदर सत्कार किया। विरजन वहां नहीं थी क्योंकि उसने प्रभात का समय काव्य चिन्तन के लिए नियत कर लिया था। उस समय यह किसी आवश्यक कार्य के अतिरिक्त् सखियों से मिलती–जुलती नहीं थी। वाटिका में एक रमणीक कुंज था। गुलाब की सगन्धित से सुरभित वायु चलती थी। वहीं विरजन एक शिलायन पर बैठी हुई काव्य–रचना किया करती थी। वह काव्य रुपी समुद्र से जिन मोतियों को निकालती, उन्हें माधवी लेखनी की माला में पिरों लिया करती थी। आज बहुत दिनों के बाद नगरवासियों के अनुरोध करने पर विरजन ने बालाजी की काशी आने का निमंत्रण देने के लिए लेखनी को उठाया था। बनारस ही वह नगर था, जिसका स्मरण कभी–कभी बालाजी को व्यग्र कर दिया करता था। किन्तु काशी वालों के निरंतर आग्रह करने पर भी उनहें काशी आने का अवकाश न मिलता था। वे सिंहल और रंगून तक गये, परन्तु उन्होनें काशी की ओर मुख न फेरा इस नगर को वे अपना परीक्षा भवन समझते थे। इसलिए आज विरजन उन्हें काशी आने का निमंत्रण दे रही हैं। लोगें का विचार आ जाता है, तो विरजन का चन्द्रानन चमक उठता है, परन्तु इस समय जो विकास और छटा इन दोनों पुष्पों पर है, उसे देख-देखकर दूर से फूल लज्जित हुए जाते हैं।
नौ बजते–बजते विरजन घर में आयी। सेवती ने कहा–आज बड़ी देर लगायी।
विरजन–कुन्ती ने सूर्य को बुलाने के लिए कितनी तपस्या की थी।
सीता–बाला जी बड़े निष्ठूर हैं। मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं।
रुकमिणी–जिसने संन्यास ले लिया, उसे घर–बार से क्या नाता?
चन्द्रकुँवरि–यहां आयेगें तो मैं मुख पर कह दूंगी कि महाशय, यह नखरे कहां सीखें ?
रुकमणी–महारानी। ऋषि-महात्माओं का तो शिष्टाचार किया करों जिह्रवा क्या है कतरनी है।
चन्द्रकुँवरि–और क्या, कब तक सन्तोष करें जी। सब जगह जाते हैं, यहीं आते पैर थकते हैं।
विरजन–(मुस्कराकर) अब बहुत शीघ्र दर्शन पाओगें। मुझे विश्वास है कि इस मास में वे अवश्य आयेगें।
सीता–धन्य भाग्य कि दर्शन मिलेगें। मैं तो जब उनका वृतांत पढती हूं यही जी चाहता हैं कि पाऊं तो चरण पकडकर घण्टों रोऊँ।
रुकमणी–ईश्वर ने उनके हाथों में बड़ा यश दिया। दारानगर की रानी साहिबा मर चुकी थी सांस टूट रही थी कि बालाजी को सूचना हुई। झट आ पहुंचे और क्षण–मात्र में उठाकर बैठा दिया। हमारे मुंशीजी (पति) उन दिनों वहीं थें। कहते थे कि रानीजी ने कोश की कुंजी बालाजी के चरणों पर रख दी ओर कहा–‘आप इसके स्वामी हैं’। बालाजी ने कहा–‘मुझे धन की आवश्यक्ता नहीं अपने राज्य में तीन सौ गौशलाएं खुलवा दीजियें’। मुख से निकलने की देर थी। आज दारानगर में दूध की नदी बहती हैं। ऐसा महात्मा कौन होगा।
चन्द्रकुवंरि–राजा नवलखा का तपेदिक उन्ही की बूटियों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगें, तो महारानी जी ने नौ लाख का मोतियों का हार उनके चरणों पर रख दिया। बालाजी ने उसकी ओर देखा तक नहीं।
रानी–कैसे रुखे मनुष्य हैं।
रुकमणी –हॉ, और क्या, उन्हें उचित था कि हार ले लेते–नहीं–नहीं कण्ठ में डाल लेते।
विरजन–नहीं, लेकर रानी को पहिना देते। क्यों सखी?
रानी–हां मैं उस हार के लिए गुलामी लिख देती।
चन्द्रकुंवरि–हमारे यहॉ (पति) तो भारत–सभा के सभ्य बैठे हैं ढाई सौ रुपये लाख यत्न करके रख छोडे थे, उन्हें यह कहकर उठा ले गये कि घोड़ा लेंगें। क्या भारत–सभावाले बिना घोड़े के नहीं चलते?
रानी–कल ये लोग श्रेणी बांधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे,बडे भले मालूम होते थे।
इतने ही में सेवती नवीन समाचार–पत्र ले आयी।
विरजन ने पूछा–कोई ताजा समाचार है?
सेवती–हां, बालाजी मानिकपुर आये हैं। एक अहीर ने अपनी पुत्र् के विवाह का निमंत्रण भेजा था। उस पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्यों हित रात को चलकर मानिकपुर पहुंचे। अहीरों ने बडे उत्साह और समारोह के साथ उनका स्वागत किया है और सबने मिलकर पांच सौ गाएं भेंट दी हैं बालाजी ने वधू को आशीर्वारद दिया ओर दुल्हे को हृदय से लगाया। पांच अहीर भारत सभा के सदस्य नियत हुए।
विरजन-बड़े अच्छे समाचार हैं। माधवी, इसे काट के रख लेना। और कुछ?
सेवती–पटना के पासियों ने एक ठाकुदद्वारा बनवाया हैं वहाँ की भारतसभा ने बड़ी धूमधाम से उत्स्व किया।
विरजन–पटना के लोग बडे उत्साह से कार्य कर रहें हैं।
चन्द्रकुँवरि–गडूरियां भी अब सिन्दूर लगायेंगी। पासी लोग ठाकुर द्वारे बनवायंगें ?
रुकमणी-क्यों, वे मनुष्य नहीं हैं ? ईश्वर ने उन्हें नहीं बनाया। आप हीं अपने स्वामी की पूजा करना जानती हैं ?
चन्द्रकुँवरि–चलो, हटो, मुझें पासियों से मिलाती हो। यह मुझे अच्छा नहीं लगता।
रुकमिणी–हाँ, तुम्हारा रंग गोरा है न? और वस्त्र-आभूषणों से सजी बहुत हो। बस इतना ही अन्तर है कि और कुछ?
चन्द्रकुँवरि–इतना ही अन्तर क्यों हैं? पृत्वी आकाश से मिलाती हो? यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे कछवाहों वंश में हूँ, कुछ खबर है?
रुक्मिणी–हाँ, जानती हूँ और नहीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम्हारे ठाकुर साहब (पति) किसी पासी से बढकर मल्ल–युद्ध करेंगे? यह सिर्फ टेढी पाग रखना जानते हैं? मैं जानती हूं कि कोई छोटा–सा पासी भी उन्हें काँख–तले दबा लेगा।
विरजन –अच्छा अब इस विवाद को जाने तो। तुम दोनों जब आती हो, लडती हो आती हो।
सेवती–पिता और पुत्र का कैसा संयोग हुआ है? ऐसा मालुम होता हैं कि मुंशी शलिग्राम ने प्रतापचन्द्र ही के लिए संन्यास लिया था। यह सब उन्हीं कर शिक्षा का फल हैं।
रक्मिणी–हां और क्या? मुन्शी शलिग्राम तो अब स्वामी ब्रह्रमानन्द कहलाते हैं। प्रताप को देखकर पहचान गये होगें ।
सेवती–आनन्द से फूले न समाये होगें।
रुक्मिणी-यह भी ईश्वर की प्रेरणा थी, नहीं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर क्या करने जाते?
सेवती–ईश्वर की इच्छा के बिना कोई बात होती है?
विरजन–तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ही गयी। ऋषीकेश में पहले लालाजी ही से प्रतापचनद्र की भेंट हुई थी। प्रताप उनके साथ साल-भर तक रहे। तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चले।
रुक्मिणी–हां, प्राणनाथ के लेख में तो यह वृतान्त था। बालाजी तो यही कहते हैं कि मुंशी संजीवनलाल से मिलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न होता तो मैं भी मांगने–खानेवाले साधुओं में ही होता।
चन्द्रकुंवरि-इतनी आत्मोन्नति के लिए विधाता ने पहले ही से सब सामान कर दिये थे।
सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सुर्य बने हुए हैं। अभी पचीसवें वर्ष में होगें?
विरजन–नहीं, तीसवां वर्ष है। मुझसे साल भर के जेठे हैं।
रुक्मिणी -मैंने तो उन्हें जब देखा, उदास ही देखा।
चन्द्रकुंवरि–उनके सारे जीवन की अभिलाषाओं पर ओंस पड़ गयी। उदास क्यों न होंगी?
रुक्मिणी–उन्होने तो देवीजी से यही वरदान मांगा था।
चन्द्रकुंवरि–तो क्या जाति की सेवा गृहस्थ बनकर नहीं हो सकती?
रुक्मिणी–जाति ही क्या, कोई भी सेवा गृहस्थ बनकर नहीं हो सकती। गृहस्थ केवल अपने बाल-बच्चों की सेवा कर सकता है।
चन्द्रकुंवरि–करनेवाले सब कुछ कर सकते हैं, न करनेवालों के लिए सौ बहाने हैं।
एक मास और बीता। विरजन की नई कविता स्वागत का सन्देशा लेकर बालाजी के पास पहुची परन्तु यह न प्रकट हुआ कि उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया या नहीं। काशीवासी प्रतीक्षा करते–करते थक गये। बालाजी प्रतिदिन दक्षिण की ओर बढते चले जाते थे। निदान लोग निराश हो गये और सबसे अधीक निराशा विरजन को हुई।
एक दिन जब किसी को ध्यान भी न था कि बालाजी आयेंगे, प्राणनाथ ने आकर कहा–बहिन। लो प्रसन्न हो जाओ, आज बालाजी आ रहे हैं।
विरजन कुछ लिख रही थी, हाथों से लेखनी छूट पडी। माधवी उठकर द्वार की ओर लपकी। प्राणनाथ ने हंसकर कहा–क्या अभी आ थोड़े ही गये हैं कि इतनी उद्विग्न हुई जाती हो।
माधवी–कब आयंगें इधर से हीहोकर जायंगें नए?
प्राणनाथ–यह तो नहीं ज्ञात है कि किधर से आयेंगें–उन्हें आडम्बर और धूमधाम से बडी घृणा है। इसलिए पहले से आने की तिथि नहीं नियत की। राजा साहब के पास आज प्रात:काल एक मनुष्य ने आकर सूचना दी कि बालाजी आ रहे हैं और कहा है कि मेरी आगवानी के लिए धूमधाम न हो, किन्तु यहां के लोग कब मानते हैं? अगवानी होगी, समारोह के साथ सवारी निकलेगी, और ऐसी कि इस नगर के इतिहास में स्मरणीय हो। चारों ओर आदमी छूटे हुए हैं। ज्योंही उन्हें आते देखेंगे, लोग प्रत्येक मुहल्ले में टेलीफोन द्वारा सूचना दे देंगे। कालेज और सकूलों के विद्यार्थी वर्दियां पहने और झण्डियां लिये इन्तजार में खडे हैं घर–घर पुष्प–वर्षा की तैयारियां हो रही हैं बाजार में दुकानें सजायी जा रहीं हैं। नगर में एक धूम सी मची हुई है।
माधवी –इधर से जायेगें तो हम रोक लेंगी।
प्राणनाथ–हमने कोई तैयारी तो की नहीं, रोक क्या लेंगे? और यह भी तो नहीं ज्ञात हैं कि किधर से जायेंगें।
विरजन–(सोचकर) आरती उतारने का प्रबन्ध तो करना ही होगा।
प्राणनाथ–हॉ अब इतना भी न होगा? मैं बाहर बिछावन आदि बिछावाता हूं।
प्राणनाथ बाहर की तैयारियों में लगे, माधवी फूल चुनने लगी, विरजन ने चांदी का थाल भी धोकर स्वच्छ किया। सेवती और चन्द्रा भीतर सारी वस्तुएं क्रमानुसार सजाने लगीं।
माधवी हर्ष के मारे फूली न समाती थी। बारम्बार चौक–चौंककर द्वार की ओर देखती कि कहीं आ तो नहीं गये। बारम्बार कान लगाकर सुनती कि कहीं बाजे की ध्वनि तो नहीं आ रही है। हृदय हर्ष के मारे धड़क रहा था। फूल चुनती थी, किन्तु ध्यान दूसरी ओर था। हाथों में कितने ही कांटे चुभा लिए। फूलों के साथ कई शाखाऍं मरोड़ डालीं। कई बार शाखाओं में उलझकर गिरी। कई बार साड़ी कांटों में फंसा दीं उसस समय उसकी दशा बिलकुल बच्चों की-सी थी।
किन्तु विरजन का बदन बहुत सी मलिन था। जैसे जलपूर्ण पात्र तनिक हिलने से भी छलक जाता है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों प्राचीन घटनाएँ स्मरण आती थी, त्यों-त्यों उसके नेत्रों से अश्रु छलक पड़ते थे। आह! कभी वे दिन थे कि हम और वह भाई-बहिन थे। साथ खेलते, साथ रहते थे। आज चौदह वर्ष व्यतीत हुए, उनकास मुख देखने का सौभग्य भी न हुआ। तब मैं तनिक भी रोती वह मेरे ऑंसू पोछतें और मेरा जी बहलाते। अब उन्हें क्या सुधि कि ये ऑंखे कितनी रोयी हैं और इस हृदय ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये हैं। क्या खबर थी की हमारे भाग्य ऐसे दृश्य दिखायेंगे? एक वियोगिन हो जायेगी और दूसरा सन्यासी।
अकस्मात् माधवी को ध्यान आया कि सुवमस को कदाचित बाजाजी के आने की सुचना न हुई हो। वह विरजन के पास आक बोली– मैं तनिक चची के यहाँ जाती हूँ। न जाने किसी ने उनसे कहा या नहीं?
प्राणनाथ बाहर से आ रहे थे, यह सुनकर बोले– वहाँ सबसे पहले सूचना दी गयीं भली-भॉँति तैयारियॉँ हो रही है। बालाजी भी सीधे घर ही की ओर पधारेंगे। इधर से अब न आयेंगे।
विरजन–तो हम लोगों का चलना चाहिए। कहीं देर न हो जाए। माधवी–आरती का थाल लाऊँ?
विरजन–कौन ले चलेगा ? महरी को बुला लो (चौंककर) अरे! तेरे हाथों में रुधिर कहाँ से आया?
माधवी–ऊँह! फूल चुनती थी, कॉँटे लग गये होंगे।
चन्द्रा–अभी नयी साड़ी आयी है। आज ही फाड़ के रख दी।
माधवी–तुम्हारी बला से!
माधवी ने कह तो दिया, किन्तु ऑखें अश्रुपूर्ण हो गयीं। चन्द्रा साधारणत: बहुत भली स्त्री थी। किन्तु जब से बाबू राधाचरण ने जाति-सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे दिया था वह बालाजी के नाम से चिढ़ती थी। विरजन से तो कुछ न कह सकती थी, परन्तु माधवी को छेड़ती रहती थी। विरजन ने चन्द्रा की ओर घूरकर माधवी से कहा–जाओ, सन्दूक से दूसरी साड़ी निकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छलनी कर डाले!
माधवी–देर हो जायेगी, मैं इसी भॉँति चलूँगी।
विरजन–नही, अभी घण्टा भर से अधिक अवकाश है।
यह कहकर विरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाल गूंथे, एक सुन्दर साड़ी पहिनायी, चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगाकर सजल नेत्रों से देखते हुए कहा–बहिन! देखो, धीरज हाथ से न जाय।
माधवी मुस्कराकर बोली–तुम मेरे ही संग रहना, मुझे सभलती रहना। मुझे अपने हृदय पर भरोसा नहीं है।
विरजन ताड़ गई कि आज प्रेम ने उन्मत्ततास का पद ग्रहण किया है और कदाचित् यही उसकी पराकाष्ठा है। हाँ ! यह बावली बालू की भीत उठा रही है।
माधवी थोड़ी देर के बाद विरजन, सेवती, चन्द्रा आदि कई स्त्रीयों के संग सुवाम के घर चली। वे वहाँ की तैयारियॉँ देखकर चकित हो गयीं। द्वार पर एक बहुत बड़ा चँदोवा बिछावन, शीशे और भॉँति-भाँति की सामग्रियों से सुसज्जित खड़ा था। बधाई बज रही थी! बड़े-बड़े टोकरों में मिठाइयॉँ और मेवे रखे हुए थे। नगर के प्रतिष्ठित सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पहिने हुए स्वागत करने को खड़े थे। एक भी फिटन या गाड़ी नहीं दिखायी देती थी, क्योंकि बालाजी सर्वदा पैदल चला करते थे। बहुत से लोग गले में झोलियॉँ डालें हुए दिखाई देते थे, जिनमें बालाजी पर समर्पण करने के लिये रुपये-पैसे भरे हुए थे। राजा धर्मसिंह के पॉँचों लड़के रंगीन वस्त्र पहिने, केसरिया पगड़ी बांधे, रेशमी झण्डियां कमरे से खोसें बिगुल बजा रहे थे। ज्योंहि लोगों की दृष्टि विरजन पर पड़ी, सहस्रों मस्तक शिष्टाचार के लिए झुक गये। जब ये देवियां भीतर गयीं तो वहां भी आंगन और दालान नवागत वधू की भांति सुसज्जित दिखे! सैकड़ो स्त्रीयां मंगल गाने के लिए बैठी थीं। पुष्पों की राशियाँ ठौर-ठौर पड़ी थी। सुवामा एक श्वेत साड़ी पहिने सन्तोष और शान्ति की मूर्ति बनी हुई द्वार पर खड़ी थी। विरजन और माधवी को देखते ही सजल नयन हो गयी। विरजन बोली– चची! आज इस घर के भाग्य जग गये। सुवामा ने रोकर कहा–तुम्हारे कारण मुझे आज यह दिन देखने का सौभाग्य हुआ। ईश्वर तुम्हें इसका फल दे।
दुखिया माता के अन्त:करण से यह आशीर्वाद निकला। एक माता के शाप ने राजा दशरथ को पुत्रशोक में मृत्यु का स्वाद चखाया था। क्या सुवामा का यह आशीर्वाद प्रभावहीन होगा?
दोनों अभी इसी प्रकार बातें कर रही थीं कि घण्टे और शंख की ध्वनि आने लगी। धूम मची की बालाजी आ पहुंचे। स्त्रीयों ने मंगलगान आरम्भ किया। माधवी ने आरती का थाल ले लिया मार्ग की ओर टकटकी बांधकर देखने लगी। कुछ ही काल मे अद्वैताम्बरधारी नवयुवकों का समुदाय दखयी पड़ा। भारत सभा के सौ सभ्य घोड़ों पर सवार चले आते थे। उनके पीछे अगणित मनुष्यों का झुण्ड था। सारा नगर टूट पड़ा। कन्धे से कन्धा छिला जाता था मानो समुद्र की तरंगें बढ़ती चली आती हैं। इस भीड़ में बालाजी का मुखचन्द्र ऐसा दिखायी पड़ता था मानो मेघाच्छदित चन्द्र उदय हुआ है। ललाट पर अरुण चन्दन का तिलक था और कण्ठ में एक गेरुए रंग की चादर पड़ी हुई थी।
सुवामा द्वार पर खड़ी थी, ज्योंही बालाजी का स्वरुप उसे दिखायी दिया धीरज हाथ से जाता रहा। द्वार से बाहर निकल आयी और सिर झुकाये, नेत्रों से मुक्तहार गूंथती बालाजी के ओर चली। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। वह उसे हृदय से लगाने के लिए उद्विग्न है।
सुवामा को इस प्रकार आते देखकर सब लोग रुक गये। विदित होता था कि आकाश से कोई देवी उतर आयी है। चतुर्दिक सन्नाटा छा गया। बालाजी ने कई डग आगे बढ़कर मातीजी को प्रमाण किया और उनके चरणों पर गिर पड़े। सुवामा ने उनका मस्तक अपने अंक में लिया। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। उस पर आंखों से मोतियों की वृष्टि कर रहीं है।
इस उत्साहवर्द्धक दृश्य को देखकर लोगों के हृदय जातीयता के मद में मतवाले हो गये ! पचास सहस्र स्वर से ध्वनि आयी-‘बालाजी की जय।’ मेघ गर्जा और चतुर्दिक से पुष्पवृष्टि होने लगी। फिर उसी प्रकार दूसरी बार मेघ की गर्जना हुई। ‘मुंशी शालिग्राम की जय’ और सहस्रों मनुष्ये स्वदेश-प्रेम के मद से मतवाले होकर दौड़े और सुवामा के चरणों की रज माथे पर मलने लगे। इन ध्वनियों से सुवामा ऐसी प्रमुदित हो रहीं थी जैसे महुअर के सुनने से नागिन मतवाली हो जाती है। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। अमूल्य रत्न पाने से वह रानी हो गयी है। इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की रज लोगो के नेत्रों का अंजन और माथे का चन्दन बन रही है।
अपूर्व दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनि उठती थी और स्वर्ग के निवासियों को भातर की जागृति का शुभ-संवाद सुनाती थी। माता अपने पुत्र को कलेजे से लगाये हुए है। बहुत दिन के अनन्तर उसने अपना खोया हुआ लाल है, वह लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। फूल चारों और से निछावर हो रहे है। स्वर्ण और रत्नों की वर्षा हो रही है। माता और पुत्र कमर तक पुष्पों के समुद्र में डूबे हुए है। ऐसा प्रभावशाली दृश्य किसके नेत्रों ने देखा होगा।
सुवामा बालाजी का हाथ पकड़े हुए घरकी ओर चली। द्वार पर पहुँचते ही स्त्रीयॉँ मंगल-गीत गाने लगीं और माधवी स्वर्ण रचित थाल दीप और पुष्पों से आरती करने लगी। विरजन ने फूलों की माला-जिसे माधवी ने अपने रक्त से रंजित किया था–उनके गले में डाल दी। बालाजी ने सजल नेत्रों से विरजन की ओर देखकर प्रणाम किया।
माधवी को बालाजी के दशर्न की कितनी अभिलाषा थी। किन्तु इस समय उसके नेत्र पृथ्वी की ओर झुके हुए है। वह बालाजी की ओर नहीं देख सकती। उसे भय है कि मेरे नेत्र पृथ्वी हृदय के भेद को खोल देंगे। उनमे प्रेम रस भरा हुआ है। अब तक उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा यह थी कि बालाजी का दशर्न पाऊँ। आज प्रथम बार माधवी के हृदय में नयी अभिलाषाएं उत्पन्न हुई, आज अभिलाषाओं ने सिर उठाया है, मगर पूर्ण होने के लिए नहीं, आज अभिलाषा-वाटिका में एक नवीन कली लगी है, मगर खिलने के लिए नहीं, वरन मुरझाने मिट्टी में मिल जाने के लिए। माधवी को कौन समझाये कि तू इन अभिलाषाओं को हृदय में उत्पन्न होने दे। ये अभिलाषाएं तुझे बहुत रुलायेंगी। तेरा प्रेम काल्पनिक है। तू उसके स्वाद से परिचित है। क्या अब वास्तविक प्रेम का स्वाद लिया चाहती है?


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रचनाएँ
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। 'वरदान' दो प्रेमियों की दुखांत कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएं संजोईं, जिनके सुन्दर घर के निर्माण के अपने सपने थे और भावी जीवन के निर्धारण के लिए अपनी विचारधारा थी। किन्तु उनकी कल्पनाओं का महल शीघ्र ढह गया। वरदान’ दो प्रेमियों की दुखांत कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएं संजोईं, जिनके सुन्दर घर के निर्माण के अपने सपने थे और भावी जीवन के निर्धारण के लिए अपनी विचारधारा थी। किन्तु उनकी कल्पनाओं का महल शीघ्र ढह गया। विश्व के महान कथा-शिल्पी प्रेमचन्द के उपन्यास वरदान में सुदामा अष्टभुजा देवी से एक ऐसे सपूत का वरदान मांगती है, जो जाति की भलाई में संलग्न हो। इसी ताने-बाने पर प्रेमचन्द की सशक्त कलम से बुना कथानक जीवन की स्थितियों की बारीकी से पड़ताल करता है। सुदामा का पुत्र प्रताप एक ऐसा पात्र है जो दीन-दुखियों, रोगियों, दलितों की निस्वार्थ सहायता करता है।
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वरदान 1.

7 फरवरी 2022
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वरदान (उपन्यास) मुंशी प्रेमचंद (‘वरदान’ दो प्रेमियों की दुखांत कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएं संजोईं, जिनके सुन्दर घर के निर्मा

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2. वैराग्य

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मुंशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वाषिर्क आय भी व्यय को

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4. एकता का संबंध पुष्ट होता है

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कुछ काल से सुवामा ने द्रव्याभाव के कारण महाराजिन, कहार और दो महरियों को जवाब दे दिया था क्योंकि अब न तो उसकी कोई आवश्यकता थी और न उनका व्यय ही संभाले संभलता था। केवल एक बुढ़िया महरी शेष रह गयी थी। ऊपर

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5. शिष्ट जीवन के दृश्य

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दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटेराम नित्य प्रात: काल आत और सिद्धान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था, क्योकि इस पुस्तक के पढ़न में अब विरजन का

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6. डिप्टी श्यामाचरण

7 फरवरी 2022
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डिप्टी श्यामाचरण की धाक सारे नगर में छाई हुई थी। नगर में कोई ऐसा हाकिम न था जिसकी लोग इतनी प्रतिष्ठा करते हों। इसका कारण कुछ तो यह था कि वे स्वभाव के मिलनसार और सहनशील थे और कुछ यह कि रिश्वत से उन्हें

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7. निष्ठुरता/निठुरता और प्रेम

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सुवामा तन-मन से विवाह की तैयारियां करने लगीं। भोर से संध्या तक विवाह के ही धन्धों में उलझी रहती। सुशीला चेरी की भांति उसकी आज्ञा का पालन किया करती। मुंशी संजीवनलाल प्रात:काल से सांझ तक हाट की धूल छानत

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डिप्टी श्यामाचरण का भवन आज सुन्दरियों के जमघट से इन्द्र का अखाड़ा बना हुआ था। सेवती की चार सहेलियॉ-रूक्मिणी, सीता, रामदैई और चन्द्रकुंवर-सोलहों सिंगार किये इठलाती फिरती थी। डिप्टी साहब की बहिन जानकी

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7 फरवरी 2022
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प्रतापचन्द्र ने विरजन के घर आना-जाना विवाह के कुछ दिन पूर्व से ही त्याग दिया था। वह विवाह के किसी भी कार्य में सम्मिलित नहीं हुआ। यहॉ तक कि महफिल में भी न गया। मलिन मन किये, मुहॅ लटकाये, अपने घर बैठा

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10. सुशीला की मृत्यु

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तीन दिन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न रही। तीनों दिन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देते रहे। वह तनिक देर के लिए भी वहां से किसी काम के लिए चले जाते, तो वह व्याकुल होने लगत

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राधाचरण रूड़की कालेज से निकलते ही मुरादाबाद के इंजीनियर नियुक्त हुए और चन्द्रा उनके संग मुरादाबाद को चली। प्रेमवती ने बहुत रोकना चाहा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता है। सेवती कब की ससुराल आ चुकी थी। यहा

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12. कमलाचरण के मित्र

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जैसे सिन्दूर की लालिमा से मांग रच जाती है, जैसे ही विरजन के आने से प्रेमवती के घर की रौनक बढ गयी। सुवामा ने उसे ऐसे गुण सिखाये थे कि जिसने उसे देखा, मोह गया। यहां तक कि सेवती की सहेली रानी को भी प्रेम

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13. कायापलट

7 फरवरी 2022
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पहला दिन तो कमलाचरण ने किसी प्रकार छात्रालय में काटा। प्रात: से सायंकाल तक सोया किये। दूसरे दिन ध्यान आया कि आज नवाब साहब और तोखे मिर्जा के बटेरों में बढ़ाऊ जोड़ हैं। कैसे-कैसे मस्त पट्ठे हैं! आज उनकी

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14. भ्रम

7 फरवरी 2022
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वृजरानी की विदाई के पश्चात सुवामा का घर ऐसा सूना हो गया, मानो पिंजरे से सुआ उड़ गया। वह इस घर का दीपक और शरीर की प्राण थी। घर वही है, पर चारों ओर उदासी छायी हुई है। रहनेचाला वे ही है। पर सबके मुख मलिन

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15. कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष

7 फरवरी 2022
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जब तक विरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी दृष्टि में एक हिन्दु-पतिव्रता के कर्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर न हुआ था। घर में कभी पति-सम्बंधी चर्चा भी न होती थी। उसने स्त्री-धर्म की पुस्तकें अवश्य पढ

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15. कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष

7 फरवरी 2022
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जब तक विरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी दृष्टि में एक हिन्दु-पतिव्रता के कर्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर न हुआ था। घर में कभी पति-सम्बंधी चर्चा भी न होती थी। उसने स्त्री-धर्म की पुस्तकें अवश्य पढ

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16. स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय

7 फरवरी 2022
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रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध नहीं रहती कि कौन मेरी औषधि करता है, कौन मुझे देखने के लिए आता है। वह अपने ही कष्ट मं इतना ग्रस्त रहता है कि किसी दूसरे के बात का ध्यान ही उसके हृदय मं उत्पन्न नहीं होत

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17. कमला के नाम विरजन के पत्र

7 फरवरी 2022
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1. ‘प्रियतम, प्रेम पत्र आया। सिर पर चढ़ाकर नेत्रों से लगाया। ऐसे पत्र तुम न लख करो! हृदय विदीर्ण हो जाता है। मैं लिखूं तो असंगत नहीं। यहाँ चित्त अति व्याकुल हो रहा है। क्या सुनती थी और क्या देखती है

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18. प्रतापचंद और कमलाचरण

7 फरवरी 2022
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प्रतापचन्द्र को प्रयाग कालेज में पढ़ते तीन साल हो चुके थे। इतने काल में उसने अपने सहपाठियों और गुरुजनों की दृष्टि में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। कालेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था जहाँ उनकी प्रत

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19. दुःख-दशा

7 फरवरी 2022
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सौभाग्यवती स्त्री के लिए उसक पति संसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है। वह उसी के लिए जीती और मारती है। उसका हँसना-बोलना उसी के प्रसन्न करने के लिए और उसका बनाव-श्रृंगार उसी को लुभाने के लिए होता है। उसक

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20. मन का प्राबल्य

7 फरवरी 2022
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मानव हृदय एक रहस्यमय वस्तु है। कभी तो वह लाखों की ओर ऑख उठाकर नहीं देखता और कभी कौड़ियों पर फिसल पड़ता है। कभी सैकड़ों निर्दषों की हत्या पर आह ‘तक’ नहीं करता और कभी एक बच्चे को देखकर रो देता है। प्रत

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21. विदुषी वृजरानी

7 फरवरी 2022
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जब से मुंशी संजीवनलाल तीर्थ यात्रा को निकले और प्रतापचन्द्र प्रयाग चला गया उस समय से सुवामा के जीवन में बड़ा अन्तर हो गया था। वह ठेके के कार्य को उन्नत करने लगी। मुंशी संजीवनलाल के समय में भी व्यापार

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22. माधवी

7 फरवरी 2022
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कभी–कभी वन के फूलों में वह सुगन्धित और रंग-रुप मिल जाता है जो सजी हुई वाटिकाओं को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। माधवी थी तो एक मूर्ख और दरिद्र मनुष्य की लड़की, परन्तु विधाता ने उसे नारियों के सभी उत्तम गु

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23. काशी में आगमन

7 फरवरी 2022
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ब से वृजरानी का काव्य–चन्द्र उदय हुआ, तभी से उसके यहां सदैव महिलाओं का जमघट लगा रहता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएं थी उनके प्रबंध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अतिरिक्त अन्य नगरों से भी बह

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24. प्रेम का स्वप्न

7 फरवरी 2022
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मनुष्य का हृदय अभिलाषाओं का क्रीड़ास्थल और कामनाओं का आवास है। कोई समय वह थां जब कि माधवी माता के अंक में खेलती थी। उस समय हृदय अभिलाषा और चेष्टाहीन था। किन्तु जब मिट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन

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25. विदाई

7 फरवरी 2022
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दूसरे दिन बालाजी स्थान-स्थान से निवृत होकर राजा धर्मसिंह की प्रतीक्षा करने लगे। आज राजघाट पर एक विशाल गोशाला का शिलारोपण होने वाला था, नगर की हाट-बाट और वीथियाँ मुस्काराती हुई जान पड़ती थी। सडृक के दो

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26. मतवाली योगिनी

7 फरवरी 2022
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माधवी पहले ही से मुरझायी हुई कली थी। निराशा ने उसे खाक मे मिला दिया। बीस वर्ष की तपस्विनी योगिनी हो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कि या तो मन में कोई अभिलाषा ही उत्पन्न न हुई, या हुई दुदैव ने उसे

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