आईना
मुक्तक
गरीबी का नहीं आभास होता धन के दर्पण में।
मगर अन्याय दिखता है, हर इक जीवन के दर्पण में।।
भले देकर के धोखा तुम किसी को लूट लो लेकिन।
कहीं एक टीस उठती है, तुम्हारे मन के दर्पण में।।
बुरा जब काम करते हैं, झिझोड़े तन का आईना।
कदम हर वक़्त रोके, इस निगोड़े मन का आईना।।
मगर जब ख्वाहिसों के पर, कदम रुकने नहीं देते।
तो फिर लाचार होकर साथ छोड़े जन का आईना।।
रचनाकार ✍️
भरत सिंह रावत भोपाल मध्यप्रदेश