नसीब का
गज़ल
होता है खेल सिर्फ ,जहां में नसीब का।
चाहे अमीर का कहो, चाहे गरीब का।।
जब वक्त बदलता है, बदलता है जमाना।
संग वक्त के भी दूर हो, साथी करीब का।।
अच्छा नसीब हो तो ,सभी पूछते हैं हाल।
पर हाल कौन पूछता , है बदनसीब का।।
चमकाते रहे लोग, हमेशा दिवार ओ दर।
बदहाल रहा यार जो, पत्थर था नीब का।।
हर इक बुराई फूलती, फलती रही मगर।
अच्छाई को ईनाम, मिला है सलीब का।।
इंसान समझता नहीं, ये और बात है।
लेकिन इसारा मिलता है, यारो हबीब का।।
रावत ये ठिकाना न ,उसके काम आ सका।
जो खेलता था खेल, हमेशा जरीब का।।
रचनाकार ✍️
भरत सिंह रावत भोपाल मध्यप्रदेश