कहानी
यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है, समानता संयोग से हो सकती है।
राकेश अपने प्रेम विवाह की असफलता से टूट चुका था, रूबी उसकी सहकर्मी थी, दोनों साथ काम करते थे, तो बातें होना भी लाजमी था, धीरे धीरे निकटता बढ़ती गई, और फिर एक दिन दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया।
किंतु धीरे धीरे उन दोनों को एक दूसरे में कमियां दिखने लगीं , बस यहीं से टकराव आरंभ हो गया नतीजतन दो साल साथ रहने के बाद, दोनों ने अलग रहने का फैसला कर लिया, राकेश को रूबी की चर्चा करना भी पसंद नहीं था, उसके कारण राकेश ने अपनी नौकरी, घर, और जो बचत की थी सब छोड़ दिया था, अब राकेश अपने गांव आ चुका था, अपने माता-पिता के पास।
कहते हैं ना कि माता पिता के मन सेअपने बच्चों का स्नेह कभी नहीं जाता, बच्चे भले ही गलत हों पर माता पिता उनको सहारा देते ही हैं, राकेश के साथ भी वही हुआ।
धीरे धीरे दो साल का समय गुजर गया, एक दिन राकेश की मां की तबियत खराब हो गई, अत्यधिक गर्मी के कारण उन्हें हैजा हो गया, राकेश मां को लेकर सरकारी अस्पताल आया, और उपचार शुरू हुआ।
मां को अत्यधिक कमजोरी आ चुकी थी, इस कारण अचानक कपड़े खराब हो गए, राकेश, बोला -: मां कोई बात नहीं मैं कपड़े बदल देता हूं,।
मां -: अरे तू कैसे बदलेगा मेरे कपड़े, और ये गंदे कपड़े कौन धोएगा बेटा।
राकेश-: मां मेरे बचपन में तुमने भी तो मेरे गंदे कपड़े धोए हैं, तो मैं क्यों नहीं धो सकता तुम्हारे कपड़े।।
मां बेटे की बातों को पास ही खड़ी पुष्पा सुन रही थी, जो अपनी बीमार दादी की देखभाल करने आई हुई थी, अचानक बीच में बोल पड़ी-: देखिए यह बात मां बेटे की नहीं बल्कि स्त्री पुरुष की है, कोई भी महिला अपने कपड़े किसी पुरुष से नहीं बदलवा सकती, भले ही वह पुरुष उसका बेटा ही क्यों न हो।
इसीलिए आप बाहर जाइए मैं मां जी के कपड़े बदलती हूं, भले ही मेरा आपसे कोई रिश्ता नहीं है, पर एक स्त्री होने के नाते यह मेरा फ़र्ज़ है।
और फिर पुष्पा राकेश की मां की सेवा करने लगी, धीरे धीरे जान पहचान बढ़ी और परिचय होने पर पता चला कि दोनों ही एक समाज से हैं, और आपस में दूर का रिश्ता भी है।
कुछ दिनों बाद राकेश की मां स्वश्थ होकर घर लौट आई, पर मां को पुष्पा की याद सताने लगी, बहुत अच्छी लड़की है , काश पुष्पा मेरी बहू बन जाए।
अरे हां ऐसा हो सकता है, मां ने पिता जी से बात की और फिर एक दिन दोनों परिवारों ने आपसी सहमति से पुष्पा और राकेश का विवाह निर्धारित कर दिया,
राकेश को जब इस बात का पता चला तो उसने अपनी मां से कहा-: मां मैं शादी नहीं कर सकता, शादी का परिणाम देख चुका हूं, इसलिए अब नहीं करूंगा शादी।
मां-: बेटा वह शादी तुम्हारी भूल थी, यह शादी हमारी सामाजिक परम्परा से बंधी होगी, चिंता मत कर, पुष्पा बहुत अच्छी लड़की है।
राकेश-: पर मां मैं शादी शुदा हूं, यह बात पुष्पा को पता नहीं है, मैं उसे बिना बताए यह शादी नहीं कर सकता।
तभी पता चला कि पुष्पा पड़ोस के गांव में एक शादी में आई हुई है, राकेश भी उस शादी में गया था, दोनों की बातचीत हुई।
राकेश-: पुष्पा तुम्हें पता है हम दोनों की शादी की चर्चा चल रही है।
पुष्पा-: हां पता है, और यह भी पता है कि तुम एक प्रेम विवाह भी कर चुके हो।।
राकेश-: फिर भी तुम इस शादी को राज़ी हो???
पुष्पा-: हां क्योंकि यह विवाह हमारी सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार होगा, हम दोनों की सामाजिक बाध्यताएं हैं।
और फिर दोनों एक दिन पूरी रीति रिवाज से बंध गए सात फेरों में, सात वचनों से, सात जन्मों के लिए।
पुष्पा के आते ही घर में अचानक खुशियां बरसने लगीं, राकेश को सरकारी नौकरी मिल गई, और आज दोनों अपनी खूशहाल जिंदगी जी रहे हैं, हां थोड़ी बहुत तू तू मैं मैं हो जाती है कभी कभी, पर कभी मां तो कभी पिता जी दोनों को समझा या डांट देते हैं, कुछ पल एक दूसरे से रूठ भी जाते हैं, पर फिर एक दूसरे को मना कर खो जाते हैं एक दूसरे में , और अब तो उनके स्नेह के दो दो परिणाम आ चुके हैं, आज राकेश परिवार परामर्श केंद्र में सलाहकार के पद पर कार्यरत हैं, और अपना दायित्व बखूवी निभा रहा है,
वह कहता है कि सामाजिक शादी ही सफलता का माध्यम है।।
इति
रचनाकार
भरत सिंह रावत भोपाल
7999473420
9993685955