सावन आते ही कभी धूप तो कभी मूसलाधार बारिश से मौसम बड़ा सुहावना हो गया है। झमाझम बरसते बदरा को देख हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच छुपी कोयल की मधुर कूक, आसमान से जमीं तक पहुँचती इन्द्रधनुषी सप्तरंगी छटा, जलपूरित नदी-नालों, ताल-तलैयों में मेंढ़कों का टर्रटर्राना मन विस्मित कर रहा है। शहरी नालों को विकराल रूप में नदी सदृश बनता देख मेरा मन प्रसाद जी के ‘प्रकृति सौन्दर्य’ की तरह उनमें डूबने-उतरने लगता है- '‘सघन वृक्षाच्छादित हरित पर्वत श्रेणी, सुन्दर निर्मल जलपूरित नदियों की हरियाली में छिपते हुए बहना, कई स्थानों में प्रकट रूप से वेग सहित प्रवाह हृदय की चंचलता को अपने साथ बहाए लिए जाता है।''
सावन का प्राकृतिक सौन्दर्य अनन्त और असीम है। जिधर नज़र घुमाओ उधर पेड़-पौधों और हरियाली की चादर बिछी नज़र आती है। हर तरफ प्रकृति का ऐसा दुर्लभ शिल्प देखने को मिलता है, जो मानव द्वारा कभी भी संभव नहीं है। प्रकृति के इन रंगों में जो एक बार डूब गया समझो फिर उसे मानवीय सौन्दर्य फीका ही लगेगा। कल रात से कभी झमाझम तो कभी रिमझिम-रिमझिम फुहारें तन-मन को भिगो रहीं हैं। आज से सावन का महीना भी शुरू हो गया है, यह देखकर 'सावन का महीना पवन करे शोर, जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर' गीत बार-बार होंठों पर आकर सावन की मनमावनी फुहारों और धीमी-धीमी बहती हवाओं में डूबने-उतरने लगा है। बड़े-बड़े शहरों में सावन आकर कब चुपके से चला भी जाता है, लोगों को पता ही नहीं चलता। लेकिन इसे मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ कि कम से कम हम शहर में रहकर भी आज भी सावन को करीब से देख और उसमें कुछ पल जी लेते हैं। सावन आते ही मुझे गाँव की बड़ी याद आती है। तब हम बच्चे स्कूल आते-जाते मिलजुल कर जी भर पेड़ पर रस्सी डालकर झूला झूलते और अपनी पुस्तक की यह कविता जोर-जोर से दुहराते चले जाते कि-
"आओ हम सब झूला झूलें
पेंग बढ़ाकर नभ को छू लें
है बहार सावन की आयी
देखो श्याम घटा नभ छायी
अब फुहार पड़ती सुखदायी
ठंडी-ठंडी अति मन भायी।"
मैं तो चली झूला झूलने और आप ......