आज छुट्टी का दिन था। सुबह जरा देर से जागना हुआ। सावन का महीना चल रहा है। रिमझिम बारिश हो रही थी। भोलेनाथ के दर्शन हेतु मंदिर भी जाना था, इसलिए सबसे पहले नहाना-धोना किया और उसके बाद मंदिर पहुँची। अभी पूजा-पाठ शुरू किया ही था कि एकाएक तेज बारिश शुरू हो गयी। घंटे भर चली तेज बारिश जब कम हुई तो अपनी छतरी लेकर घर की ओर निकल पड़ी। सड़क पर एक ओर जहाँ पानी जमा होने से तालाब जैसा लग रहा था, वहीँ दूसरी ओर सड़क से थोड़ी दूर बहने वाला शांत नाला किसी उफनती नदी का रूप धारण कर सरसराहट और घरघराहट करते हुए तेजी से बह रहा था, जो मुझे हमारे पहाड़ी क्षेत्र की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से होते हुए गाँव के निचले भाग में बहने वाली खटलगढ़ नदी की याद दिलाने लगा। कभी हम बचपन में इसी नदी में जब भी बाढ़ आती थी तो उसमें बहकर आयी लकड़ियों को हथियाने के लिए तैयार रहते थे। बरसात थमते ही हरे-भरे सीढ़ीदार खेतों के बीच से बनी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गिरते-पड़ते, भीगते-ठिठुराते दौड़े-दौड़े चले जाते थे। जहाँ पहुंचकर कई घंटे उसके उतार की राह ताकते रहते। इस दौरान बीच न जाने कितनी बार अचानक बादल गरज-बरस कर हमारे प्रयास को विफल करने का भरसक प्रयास करते रहते, लेकिन वह हमारे बुलंद इरादों के आगे हार मानकर दूर उड़ जाते।
मुझे याद है जब पिछली बरसात में गाँव जाना हुआ तो नदी में आई बाढ़ को देखने का मौका एक बार फिर मिला। इस दौरान भले ही बचपन जैसा वह उत्साह भले ही मन में न रहा हो, लेकिन नदी का मनोरम रूप दिल की गहराईयों में उतराता रहा। पहाड़ी नदी का अपना एक अलग ही सौन्दर्य होता है। वह जब कलकल-छलछल की ध्वनि के साथ उबड़-खाबड़, टेढ़ी-मेढ़ी राहों से तीव्र गति से आगे बढ़ती हैं तो उसका सर्पाकार स्वरुप हर किसी का मन मोह लेता है। उसके इस मनमोहिनी स्वरुप का आनंद वही उठा पाता है, जो स्वयं उसके करीब जाता हो। सावन की इन बरसती घटाओं की ओट से निकलकर जब-तब जीवन के चारों ओर संघर्षों, दुर्घटनाओं, दुर्व्यवस्थाओं की व्यापकता से परे हटकर हरपल उपजती खीज, घुटन और बेचैनी से राहत पहुँचाने आकुल-व्याकुल मन जब-तब अबाध गति से बहती नदी धार में जीवन प्रवाह का रहस्य तलाशने सरपट भागा चला जाता है।