जन समुदाय के समक्ष वसीयत सुनाई गई।सुनकर सबकर हक्के-बक्के रह गयें। क्रोध आया...जीते जी मुझे अपनी जिंदगी जीने नहीं दी।....और मरने के बाद भी जीने नहीं देना चाहतें।मै अपनी लाईफ-स्टाईल किसी के कहने से चेंज
द्वारपाल ने रोका,ठ़हरो यह देवी जागरण तुम जैसो के लिए नहीं हैं।जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं। कृपा ने कहा,माँ के दरबार में कोई छोटा-बड़ा नहीं हैं।माँ की दृष्टि सबपर हैं,हम सब संतान हैं। द्वारपाल हँसने ल
द्वारपाल ने रोका,ठ़हरो यह देवी जागरण तुम जैसो के लिए नहीं हैं।जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं। कृपा ने कहा,माँ के दरबार में कोई छोटा-बड़ा नहीं हैं।माँ की दृष्टि सबपर हैं,हम सब संतान हैं। द्वारपाल हँसने ल
एक व्यक्त के सिर पर टोकरी में फल रखे थे जो घूम-घूमकर बैच रहा था। कृपा के मन में बिचार किया कि शहर में किसी न किसी की मदद लेनी चाहिए। छोटे-मोटे काम करने बाले,फैरी लगाने बालो पर विश्वास कर सकते हैं।जैसे
विख्यात ने सुना कि किसन का अपहरण,तो चुप न रहा।....नहीं नहीं ऐसा नहीं कर सकता हूँ।किसन मेरा भाई हैं। मित्र:-अरे मित्र यह क्या सचमुच का अपहरण थोड़े ही हैं।हमको पैसे चाहिए,बस पैसे मिले हम छोड़ देगें।हम सबस
ग्रामबासी कर भी क्या सकते थें।सब बदुआ और कोस रहे थें।बच्चे बुरे रास्ते पर चलने का होसला माँ-बाप की सह का ही परिणाम हैं।आज यहाँ कुकर्म किया जाने और कहाँ क्या-क्या करेगा। द्रोण ने कृपा को दर-दर भटकने को
द्रोण के पास किसी भी प्रकार की कमी नहीं ।घर भरा-भरा लेकिन तन्हाई थी।सुनैना तो शासन पाकर खुश थी।विख्यात के हाथ खुल चुके थें।भय निकल चुका था।जुर्म करने में सकुचाता नहीं था।निर्भीक होकर ,मित्र मण्ड़
द्रोण का मन उदास था। कृपा की समझ में नहीं आ रहा था कि कहाँ जाऊँ क्या करूँ?गाँव की सीमा पार कर पाई थी कि सामने से नील कार लेकर आ गया। नील:-मित्र मुझे पता था कि तुम आज ही गाँव छोड़ देगें।क्या इस मित्र को
सामने अम्मा को देखकर कलेजा जलता था।छोटी बहू छोटी बहू कहकर चिड़ाती थी।किसन को सारे दिन गोदी में बिठ़ाये रहती,पीछे-पीछे फिरती रहती थी।मेरे विख्यात पर कभी लाड़-प्यार से बात तक नहीं की खिलाना तो दूर की बात
शाम हो गई पशु-पछ़ी घर लौटने लगें।प्राणी भी अपना काम-काज बंद करके घर लोटने लगें।बच्चे बाहर खेल रहे थे वो भी घरों में लोट आयें।शाम धीरे-धीरे चाँदनी रात में बदलने लगीं। सितारे-झिलमिलाने लगें,तीज का चाँद
निशान्त उस युवती को लेकर सूनसान जगह पर पहुँच गया।जहाँ अकेले में जाने से भय लगता हैं।निशान्त मर्यादाओं की हर दहलीज लाँघ चुका था।उसके सामने दौलत की चमक ही चमक दिखाई दे रही थीं।मेहनत न करना पड़े और दौलत उ
सुनैना की जुबान लड़खडा़ने लगी....मैं ...क्यों दूँ। साधु:-तो तुम्हें अधिकार किसने दिया किसी के ऊपर भी आक्षेप लगाना। सुनैना मुँह टेड़ा करके अपने घर चली गई। ग्रामबासी एक साथ कहने लगें।:-महाराज मुझसे भूल हो
सुनैना की जुबान लड़खडा़ने लगी....मैं ...क्यों दूँ। साधु:-तो तुम्हें अधिकार किसने दिया किसी के ऊपर भी आक्षेप लगाना। सुनैना मुँह टेड़ा करके अपने घर चली गई। ग्रामबासी एक साथ कहने लगें।:-महाराज मुझसे भूल हो