[१]
उस अमराई में सावन के लगते ही झूला पड़ जाता और विजयादशमी तक पड़ा रहता। शाम-सुबह तो बालक-बालिकाएँ और रात में अधिकतर युवतियाँ उस झूले की शोभा बढ़ातीं। यह उन दिनों की बात है जब सत्याग्रह आन्दोलन अपने पूर्ण विकास पर था। सारे भारतवर्ष में समराग्नि धधक रही थी। दमन का चक्र अपने पूर्ण वेग से चल रहा था। अखबारों में लाठी- चार्ज, गोली-काण्ड, गिरफ्तारी और सजा की धूम के अतिरिक्त और कुछ रहता ही न था। इस गांव में भी सरकार के दमन का चक्र चल चुका था। कांग्रेस के सभापति और मंत्री पकड़ कर जेल में बन्द कर दिए गए थे ।
इस दिन राखी थी । बहनें अपने भाईयों को सदा इस अमराई में ही राखी बांधा करती थीं। यहाँ सब लोग एकत्रित होकर त्योहार मनाया करते थे। बहने भाईयों को पहिले कुछ खिलातीं, माला पहिनातीं, हाथ में नारियल देतीं और तिलक लगा कर हाथ में राखी बांधते हुए कहतीं, "भाई इस राखी की लाज रखना लड़ाई के मैदान में कभी पीठ न दिखाना।"
एक तरफ़ तो राखी का चित्ताकर्षक दृश्य था। दूसरी ओर छोटे छोटे बच्चे और बच्चियाँ झूले पर झूल रहे थे। इनके सुकुमार हृदयों में भी देश-प्रेम के नन्हें नन्हें पौधे प्रस्फुटित हो रहे थे। बहादुरी के साथ देश के हित के लिए फ़ांसी से लटक जाने में वे भी शायद गौरव समझते थे। पहिले तो लड़कियाँ कजली गा रहीं थी। एकाएक एक छोटा बालक गा उठा-
"झंडा ऊंचा रहे हमारा"
फिर क्या था सब बच्चे कजली-बजली तो गए भूल, और लगे चिल्लाने,
“झंडा ऊंचा रहे हमारा”
[२]
इसकी खबर ठाकुर साहब के पास पहुँची । अमराई उन्हीं की थी। अभी तीन ही महीने पहिले वे राय साहेब हुए थे। आनरेरी मजिस्ट्रेट वो थे ही, और थे सरकार के बड़े भारी खैरख्वाह। जब उन्होंने सुना कि अमराई तो असहयोगियों का अड्डा बन गई है, प्रायः इस प्रकार वहाँ रोज़ ही होता है तो वे बढ़े घबराए, फौरन घोड़ा. कसवा कर अमराई की ओर चल पड़े । किन्तु उनके पहुँचने के पहिले ही वहाँ पुलिस भी पहुँच चुकी थी। ठाकुर साहब को देखते ही दरोगा नियामत अली ने बिगड़ कर कहा--ठाकुर साहब ! आप से तो हमें ऐसी उम्मीद न थी। मालूम होता है कि आप भी उन्हीं में से हैं। यह सब आप की ही तबियत से हो रहा है। लेकिन इससे अमन में खलल पड़ने का खतरा है। आप ५ मिनट के अन्दर ही यह सब मजमा यहाँ से हटवा दीजिये, वरना हमें मजबूर दोकर लाठियाँ चलवानी पड़ेंगी ।
ठाकुर साहब ने नम्रता से कहा-दरोग़ा जी ज़रा सब्र रखिए, में अभी यहां से सब को हटवाए देता हूँ । आपको लाठियाँ चलवाने की नौवत ही क्यों आएगी। नियामत अली का पारा ११० पर तो था ही बोले फिर भी मैं आपको पहले से आगाह कर देना चाहता हूं कि ज्यादः से ज्यादः दस मिनट लगें नहीं तो मुझे मजबूरन लाठियाँ चलवानी ही पड़ेंगी। ठाकुर साहब ने घोड़े से उतर कर अमराई में पैर रखा ही था कि उनका सात साल का नाती विजय हाथ में लकड़ी की तलवार लिए हुए आकर सामने खड़ा हो गया। ठाकुर साहब को सम्बोधन करके बोला--
दादा ! देखो मेरे पास भी तलवार है, मैं भी बहादुर बनूंगा ।
इतने ही में उसकी बड़ी बहिन कांती, जिसकी उमर करीब नौ साल की थी धानी रंग की साड़ी पहिने आकर ठाकुर साहब से बोली-"दादा ! ये विजय लकड़ी की तलवार लेकर बड़े बहादुर बनने चले हैं। मैं तो दादा ! स्वराज का काम करूँगी और चर्खा चला चला कर देश को आजाद कर दूंगी फिर दादा बतलाओ, मैं बहादुर बनूंगी कि ये लकड़ी की तलवार वाले ?"
विजय की तलवार का पहिला वार कान्ती पर ही हुआ, उसने कान्ती की ओर गुस्से से देखते हुए कहा- "देख लेना किसी दिन फांसी पर न लटक जाऊं तो कहना । लकड़ी की तलवार है तो क्या हुआ मारा कि नहीं तुम्हें ?"
बच्चों की इन बातों में ठाकुर साहब क्षण भर के लिए अपने आपको भूल से गए। उधर १० मिनट से ११ होते ही दरोगा नियामत अली ने अपने जवानों को लाठियां, चलाने का हुक्म दे ही तो दिया । देखते ही देखते अमराई में लाठियाँ बरसने लगी । आज अमराई में ठाकुर साहब के भी घर की स्त्रियाँ और बच्चे थे और गाँव के भी प्रायः सभी घरों की स्त्रियाँ बच्चे और युवक त्योहार मनाने आए थे। उनकी थालियाँ राखी, नारियल, केशर, रोली, चन्दन और फूल मालाओं से सजी हुई रखी थीं। किन्तु कुछ ही देर बाद जिन थालियों में रोली और चन्दन था खून से भर गईं ।
[३]
जब पुलिस मजमें को तितर-बितर करके चली गई तो देखा गया कि घायलों की संख्या करीब तीस की थी। जिनमें अधिकतर बच्चे, कुछ स्त्रियाँ और आठ सात युवक थे। विजय को सबसे ज्यादः चोट आई थी! चोट तो कान्ती को भी थी किन्तु विजय से कम । ठाकुर साहब का तो परिवार का परिवार ही घायल था। घायलों को उनके घरों में पहुँचाया गया और अमराई में पुलिस का पहरा बैठ गया।
विजय की चोट गहरी थी, दशा बिगड़ती जा रही थी। जिस समय वह अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा था उसी समय कोर्ट से ठाकुर साहब के लिए सम्मन आया। उन्हें कोर्ट में यह पूछने के लिए बुलाया गया था कि उनका आम का बगीचा असहयोगियों का अड्डा कैसे और किसके हुक्म से बनाया गया। ठाकुर साहब भी आनरेरी मजिष्ट्रेटी का इस्तीफा, राय साहिबी का त्याग-- पत्र जेब में लिए हुए कोर्ट पहुँचे। उनका बयान इस प्रकार था ।
"मेरा बगीचा असहयोगियों का अड्डा कभी नहीं रहा है, क्योंकि मैं अभी तक सरकार का बड़ा भारी खैर-- ख्वाह रहा हूँ। मुझे सरकार की नीति पर विश्वास था, और अपने घर में बैठा हुआ मैं अखबारी दुनिया का विश्वास कम करता था। मुझे यकीन ही न आता था कि न्याय की आड़ में सरकार निरीह बालक, स्त्रियों और पुरुषों पर कैसे लाठियाँ चलवा सकती है ? परन्तु आज तो सारा भेद मेरी आँखों के ही आगे विषयले अक्षरों में लिखा गया है। मेरा तो यह विश्वास हो गया है कि इस शासन- विधान में, जो प्रजा के हितकर नहीं हैं, अवश्य परिवर्तन होना चाहिए । हर एक हिन्दुस्तानी का धर्म है कि वह शासन-सुधार के काम में पूरा पूरा सहयोग दे। मैं भी अपना धर्म पालन करने के लिए विवश हूँ और यह मेरी राय साहिबी और आनरेरी मजिष्ट्रेटी का त्याग-पत्र है। ठाकुर साहब तुरंत कोर्ट से बाहर हो गए।
[४]
दूसरे हो दिन से उस अमराई में रोज ही कुछ आदमी राष्ट्रीय गाने गाते हुए गिरफ्तार होते। और साठ साल के बूढ़े ठाकुर साहब को, सरकार के इतने दिन की खैर- ख्वाही के पुरस्कार स्वरूप छै महीने की सख़्त सजा और ५००) का जुर्माना हुआ। जुरमाने में उनकी अमराई नीलाम कर ली गई। जहाँ हर साल बरसात में बच्चे झूला झूलते थे वहीं पर पुलिस के जवानों के रहने के लिए पुलिस-चौकी बनने लगी।